Author: समयांतर डैस्क Edition : January 2013
इंद्रेश मैखुरी
नरेंद्र सिंह नेगी गढ़वाली गीत-संगीत के अप्रतिम रचनाकार हैं। वह गायक हैं, गीतकार हैं, संगीतकार हैं और कवि भी हैं। पिछले चालीस वर्षों से निरंतर उत्तराखंडी गीत-संगीत में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। वह एक व्यावसायिक कलाकार हैं पर उनकी व्यावसायिकता उनके जनसरोकारों पर हावी नहीं है। पहाड़ी जीवन का लगभग हर रंग उनके गीतों में दिखता है। सुबह होने से लेकर शाम होने तक बारिश से लेकर बाघ के आतंक तक का पहाड़ का हर रंग नेगी के गीतों में दर्ज है।
सूर्योदय के दृश्य का वर्णन करता हुआ उनका गीत है :
चम्, चम् चम्, चम्, चम्, चमकी घाम कांठ्यों मां, हिंवाली कांठी चांदी की बणीगैनी,
ठंडो-मठू चढ़ी घाम फूलों की पाख्यों मा, लगी कुथ्ग्यली तौं कि नांगी काख्यों मा
खित्त हैंसिनी फूल डाळ्यों मा, भौंरा-पोतला रंगमत्त बणीगैनी,
डांडी-कांठी बिजाली पौंछी घाम गौं मा, सुनिंद पोड़ीं छै बेटी-ब्वारी ड्यरों मा,
झम झौल लगी आंख्यों मा, मायादार आंख्यों का सुपिन्या उड़ी गैनी
(चम, चम, चम चमकी धूप पहाड़ों पर /बर्फ से लकदक पहाडिय़ां चांदी जैसी हो गईं/धीरे-धीरे धूप फूलों से भरे पहाड़ी ढाल पर चढ़ी, फूलों के नंगे बदन पर धूप ने गुदगुदी की/ फूल खिलखिला कर हंस पड़े और भौंरे-पतंगे उन्मत्त हो गए, पहाड़ी चोटियों को जगा कर धूप पहुंची गांव में, बहु-बेटियां गहरी नींद में सोयी थीं जहां घरों में/ धूप की आंच आंखों में पड़ी और उनकी प्रेम भरी आंखों के सपने उड़ गए।)
पहाड़ में शाम होने का नजारा नरेंद्र सिंह नेगी के यहां ऐसा है :
डांडा-धारूं मां घाम अछे गे, पोंछी कुजाणी कै दूर मुलुक
पोड़े रुमुक,
गोर-गौचरू का घर बौड़ा ह्वेनी, पंछी अगासू का घोलू पैटीनी,
ऊज्याला अड़ेथी आई अंध्यारु, चोर बिराली सी सूर-सुरुक
बौण लखड़वैनी-घसेनी रगर्यांदा, हे दीदी-हे भूली झट काटा-बांधा,
उनी दूध्या नौनियाल, सासू रिसाड़, जिकुड़ी मां येडिय़ों की धूक-धूक
पोड़े रुमुक
(पहाड़ी चोटियों और ढलानों पर ढली धूप, जाने वो किस दूर के मुल्क पहुंच गई/सांझ ढल गई/ गौचरों में चरने गए पशु घर लौट रहे हैं, आकाश में उड़ते पंछी भी घोसलों में पहुंचने की तैयारी में हैं/ उजाले को धकेल कर अंधेरा दबे पांव चोर बिल्ली की तरह आ पहुंचा है/ सांझ ढल गई है/ जंगल में लकड़ी-घास लेने गई महिलाएं हड़बड़ी में हैं, अरी बहनों फटाफट काटो और बांधो/ घर में दुधमुंहा बच्चा है और सास गुसैल, दिल में धुकधुकी लगी है/ सांझ ढल गई है। )
चरवाहा अपनी भेड़-बकरियां गुम होने के किस्से को जिस मासूमियत से बयां करता है उससे कुछ हास्य भी पैदा होता है:
ढेबरा हर्ची गैनी, मेरी बखरा हर्ची गैनी मेरा,
हे भुल्यों, हे घसैन्यु, हे दीद्यूं-हे पंधेन्यू, हे कका तिल देखीनी, हे चुचों कख फूकेनी
खाडू नर्सिंगा का नौ को छौ सिरायुं धर्मा कोंको, नागराजा खुज्यौ त्वी, तेरो लागोठ्या लीगी क्वी
पटवरी जी की पुजै भोल, बुगठ्या दिख्यो ह्वेगे गोल
(भेड़ें गुम हो गईं मेरी बकरियां लापता/हे भुल्यों (छोटी बहनों)-घसियारिनो, हे दीदियो-पनिहारिनो, अरे काका तूने देखि, अरे लोगो कहां मर गईं / नरसिंह देवता की नाम का खाडू (भेड़) रखवाया था धर्मा ने, नागराजा तू ही खोज तेरी बलि के लिए रखे हुए को ले गया कौन/ पटवारी जी की पूजा कल और बकरा हो गया गोल)
ये पहाड़ की विडंबना है कि कठिन और विकट जीवन स्थितियों में पहाड़ी गीतों में दुख भी हास्य के रूप में फूटता है। इसलिए पहाड़ में कहावत है कि बड़े दुख की बड़ी हंसी।
एयर कंडीशन कमरों में बैठ कर भले ही बाघ बचाने की बड़ी-बड़ी चिंताएं हों लेकिन पहाड़ में तो बाघ आतंक का ही पर्याय है, जो आए दिन पालतू पशुओं से लेकर मनुष्यों पर हमलावर है। ऐसे ही एक गीत में नरेंद्र सिंह नेगी सुमा नाम की लड़की की कहानी सुनाते हैं जिसकी मंगनी होने वाली है और वो बाघ का निवाला बन गई है :
सुमा हे निहोंण्यां सुमा डांडा ना जा, सुमा हे खड्यौंणा सुमा डांडा ना जा,
लाडा की ब्यटूली सुमा डांडा ना जा, यखुली-यखुली सुमा डांडा ना जा,
दोबदो-दोबदो बाघ डांडा ना जा, तेरी घांटी बिलकी सुमा डांडा ना जा
तेरी चिरीं लती-कपड़ी डांडा ना जा, घसेन्यून पछ्याणी सुमा डांडा ना जा
अध्खाईं तेरी लास देखि सैरा गौं का रवेनि सुमा डांडा ना जा
(सुमा अरी ओ नादान सुमा पहाड़ पे मत जा/सुमा ओ लाडली सुमा पहाड़ पे मत जा, अकेली-अकेली सुमा पहाड़ पे मत जा / दबे पांव आया बाघ और तुझपे झपट गया, पहाड़ पे मत जा/ तेरे चीथड़े हो चुके कपड़े घस्यारिनों ने पहचाने, पहाड़ पे मत जा / तेरी आधी खाई लाश देख कर सारे गांव वाले रोये, पहाड़ पे मत जा।
नोट: इस गीत में बाघ का निवाला बन चुकी सुमा को संबोधित करते हुए बाघ द्वारा उसे मारे जाने की कथा बयान की गई है। अनुवाद करने के लिहाज से टेक के रूप में प्रयुक्त पंक्तियां हटा दी गई हैं। )
बाघ का आतंक इतना भारी है पहाड़ पर कि जब नब्बे के दशक में उत्तराखंडी मूल के निशानेबाज जसपाल राणा की ख्याति हुई तो उनसे भी नेगी उत्तराखंड के लोगों की तरफ से बाघ पर निशाना लगाने का ही आग्रह करते हैं
बंदुक्या जसपाल राणा सिस्त साधी दे, निसणु साधी दे
उत्तराखंड मा बाघ लग्युं, बाघ मारी दे, मनस्वाग मारी दे
नथूल्यों गले कि तोई सोना का मेडल द्युंला
बच्यां रौंला जब तलक, राणा तेरो नाम ल्युंला
आतंकबादी ये बाघे की सेक्की झाड़ दे
(बंदूकधारी जसपाल राणा निशाना साध ले/ उत्तराखंड में बाघ लगा हुआ है, बाघ मार दे, आदमखोर को मार दे/ नथें गला कर तुझे हम सोने के मेडल देंगे/ जब तक जिंदा रहेंगे, राणा तेरा गुणगान करेंगे/ आतंकवादी इस बाघ की हेकड़ी उतार दे)
नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में नए-नए हुए विवाह के बाद पति-पत्नी की चुहलबाजी दिखती है:
स्त्री: हे जी कैबै ना करा, मठू-मठू जौंला, नयु-नयु ब्यो च मिठी-मिठी छ्वीं लगोंला,
पुरुष: हिट ले दी घमाघमी, सरासरी जौंला, फुक तौं लोळी छुयुं डेरै मा लागौला
(स्त्री: ऐ जी अकबक मत करो, हौले-हौले चलेंगे, नई-नई शादी है, मीठी-मीठी बातें करेंगे।
पुरुष : लंबे-लंबे डग भर, फटाफट जाएंगे, रहने दे उन कमबख्त बातों को घर में ही करेंगे। )
लेकिन उसी पहाड़ी स्त्री का पति जब नौकरी के लिए पहाड़ से पलायन कर, सालों तक घर नहीं लौटता है तो उसकी पीड़ा भी नेगी के गीतों में दिखती है:
देवर: नारंगी की दाणी हो, क्यान सूखी होलो बौजी मुखड़ी को पाणी हो
बौजी: खोळी को गणेशा हो, जुग बीती गैनी द्यूरा स्वामी परदेसा हो
देवर: धीरज चएंदा हो, खैरी का ये दिन बौजी सदानि नी रएंदा हो
बौजी: त्वे मा क्या लगौण हो, दिन बौडी ऐ भी जाला ज्वनी क्खे ल्योंण हो
(देवर: क्यों सूख गया भाभी तुम्हारे चेहरे का पानी/ भाभी: वर्षों बीत गए देवर स्वामी परदेस ही हैं। / और गीत के अंत में जब देवर भाभी को सांत्वना देते हुए कहता है कि / धीरज रखना चाहिए भाभी, दुख के दिन हमेशा नहीं रहेंगे/ तो पहाड़ की तकलीफों से टकराते-टकराते अपना सब कुछ पहाड़ में ये दफन करने वाली स्त्री की पीड़ा भी उभरती है जब वह कहती है कि/ दिन तो बहुर भी जाएंगे पर जो युवावस्था कष्टों को झेलते-झेलते बीत गई वो कहां से लौटेगी।
नोट: टेक के रूप में इस्तेमाल पंक्तियों का अनुवाद नहीं किया गया है। )
प्रेम पर तो नेगी के कई गीत हैं। हर बार वह नए बिंबों, नए रूपकों के साथ प्रेम गीत रचते हैं, जिनमें फिल्मी छिछोरापन नहीं है बल्कि प्रेम की शालीनता और गरिमा उभरती है। एक नमूना देखिए:
बंडी दिनों मा दिखे आज, दिन आजा को जुगराज,
फल्यान-फूल्यां वो पाखा, वो पैंडा, हैरा-भैरा रयां पुंग्डय़ूं का मेंडा
जौं सारयूं बीच हिटी की तू ऐई, तौं सारयूं खारयूं हो नाज
(प्रेमिका के मिलने पर प्रेमी कह रहा है:
बहुत दिनों में दिखी आज, आज का दिन दीर्घजीवी हो/ फलें-फूलें वो पहाड़ी ढालें, हरे-भरे रहें वो खेतों की मेड़ें / जिन खेतों से चल के तू आई, उनमें हो मनों अनाज )
प्रेमिका के मिलन पर ऐसी उत्पादक कामना अद्भुत ही नहीं है बल्कि दुर्लभ भी है।
शुरुआत के गीतों में देखें तो गढ़वाल की वंदना, गढ़वाल की प्रकृति की सुंदरता की प्रशंसा नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में खूब दिखती है। लेकिन धीरे-धीरे पहाड़ की समस्याएं उनके गीतों में उभर कर सामने आने लगीं :
कख लगाण छवीं, कैमा लगाण छवीं,
ये पहाड़ की, कुमौं-गढ़वाल की,
रीता कूड़ों की, तीसा भांडों की,
बगदा मनख्यूं की, रड़दा डांडों की
(कहां कहें बात, किससे कहें बात, /इस पहाड़ की, कुमाऊं -गढ़वाल की/ खाली मकानों की, / प्यासे बर्तनों की, बहते मनुष्यों की, लुढ़कते पहाड़ों की। )
ये पहाड़ से लगातार पलायन की पीड़ा है, लेकिन चूंकि नीति-नियंताओं को इस पलायन और खाली होते पहाड़ के गांवों से कोई फर्क नहीं पड़ता, इसलिए आम पहाड़ी आदमी की पीड़ा भी इसमें है कि कहां कहें और किससे कहें।
जनविरोधी विकास या विकास के नाम पर हो रहे विनाश की ओर भी नरेंद्र सिंह नेगी आम आदमी का ध्यान खींचते हैं :
नौ फरें विकास का, विनाश कैन कैरी यूं पहाड़ों को, /खोजा वे सणी, पछ्याणा, वे सणी
(विकास के नाम पर विनाश किसने किया इन पहाड़ों का, /खोजो उसे, पहचानो उसे।)
उत्तराखंड आंदोलन के दौर में तो आंदोलन के गीतों का एक पूरा कैसेट ही नेगी ने निकाला। 1994 के प्रचंड जनांदोलन में उत्तराखंडियों को जागने का संदेश देते हुए उन्होंने लिखा:
उठा जागा उत्तराखंडियों, सौं उठाणो बक्त ऐगे,
उत्तराखंड का मान सम्मान बचाणो बक्त ऐगे,
भोळ तेरा भला दिनों का खातिर जौं कुल्वे सड़क्यं मा बौगी,
ऊं शहीदों कू कर्ज त्वे पर अब चुकाणो बगत ऐगे
(उठो, जागो, उत्तराखंडियो शपथ लेने का वक्त आ गया है/ उत्तराखंड का मान सम्मान बचाने का वक्त आ गया है/ कल तेरे उज्ज्वल भविष्य के लिए, जिनका लहू सड़कों पर बहा/ उन शहीदों का कर्ज चुकाने का वक्त आ गया।)
2 अक्टूबर, 1994 को दिल्ली में प्रदर्शन करने जा रहे आंदोलनकारियों पर उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुलायम सिंह यादव और मायावती की गठबंधन सरकार ने मुजफ्फरनगर में बर्बर दमन ढाया। गुंडों की तरह नौजवानों की हत्याएं और महिलाओं के साथ दुराचार मुलायम सिंह यादव की पुलिस ने किया। इस बर्बर और शर्मनाक दमन के खिलाफ नरेंद्र सिंह नेगी ने अपने गीत में प्रतिरोध दर्ज किया:
तेरा जुल्म कू हिसाब चुकौला एक दिन, लाठी-गोली को जवाब द्यौला एक दिन,
वो दिन-बार औंण, विकास का रतब्योंण तक,
अलख जगीं राली ये उत्तराखंड मा, लड़ै लगीं राली ये उत्तराखंड मा
(तेरे जुल्म का हिसाब चुकाएंगे एक दिन, लाठी-गोली का जवाब देंगे एक दिन/वो दिन-वो वक्त आने तक, विकास का उजाला होने तक/ अलख जगी रहेगी इस उत्तराखंड में, लड़ाई जारी रहेगी इस उत्तराखंड में।)
9 नवंबर, 2000 को अलग उत्तराखंड राज्य बना, लेकिन ये जनता के सपनों का राज्य नहीं था। लूट और झूठ की कांग्रेसी-भाजपाई राजनीति का उत्तराखंड था, ठेकेदार और माफियाओं का उत्तराखंड था। नेगी के भीतर के गीतकार और गायक ने इस छलावे को जल्दी ही पहचान लिया। जहां राज्य बनने से पूर्व के गीतों में वह विकास के नाम पर विनाश करने वालों को खोजने और पहचानने को कहते हैं, वहीं राज्य बनने के बाद के गीतों में वह लूट की ताकतों और उनके शिखर पुरुषों की न केवल शिनाख्त करते हैं बल्कि खुल कर उन पर उंगली उठाते हैं, उनका नाम लेते हैं। उनके कारनामों को गीतों के जरिये जनता के सामने लाते हैं। कांग्रेसी मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी को केंद्र करके नेगी जी द्वारा लिखा और गाया गीत-नौछम्मी नारैण (बहुरुपिया नारायण) ऐसा ही गीत है, जो नारायण दत्त तिवारी द्वारा सरकारी खजाने की लूट पर तीखा हमला बोलता है। वह यहीं नहीं रुकते, भाजपा की सरकार बनने के बाद वह मुख्यमंत्री ‘निशंक’ पर निशाना साधते हुए गीत लिखते हैं – ‘अब कथ्गा खैल्यो’ (अब कितना खाएगा)। जिस समय ‘निशंक’ के भ्रष्टाचार का दौर चरम पर था, नेगी का यह गीत जैसे सीधा मुख्यमंत्री से सवाल कर रहा था कि भाई बता अब और कितना खाएगा। जहां ‘नौछम्मी नारैण’ में नेगी ने राज्य की पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के निकम्मेपन पर भी व्यंग्य किया वहीं ‘अब कथ्गा खैल्यो’ में वह घोटालों की सरताज केंद्र की कांग्रेस सरकार पर भी प्रहार करते हैं, राष्ट्रमंडल खेल, टू-जी घोटाला, काले धन जैसे मसलों को भी इस गीत में उन्होंने छुआ है।
चुनाव में कांग्रेस-भाजपा जैसी पार्टियों द्वारा अपनाए जा रहे हथकंडों पर नरेंद्र सिंह नेगी का गीत देखिए:
हातन हुस्की पिलाई फूलन पिलायो रम,
छोटा दली-निरदली दिदोंन कच्ची मा टरकायां हम,
ऐंसू चुनौ मा मजा ही मजा, दारु भी रुप्या भी ठमठम
सुबेर पैग पे घडी दगडी, दिन का पैग सैकिल मा चढ़ी,
ब्याखुनी कुर्सी मा लम्तम पड़ी, राती को हाती मा बैठी की तड़ी
ऐंसू चुनौ मा ठाठ ही ठाठ, प्रत्याशी पैदल अर, घोड़ा मा हम।
(हाथ (कांग्रेस) ने व्हिस्की पिलाई, फूल (भाजपा) ने पिलाया रम/ छोटे दलों, निर्दलीय भाइयों ने कच्ची में टरकाये हम/ इस चुनाव में तो मजा ही मजा, दारू भी और नोट भी खटाखट/ सुबह का पैग घड़ी (एन.सी.पी.) के साथ, दिन का पैग साइकिल (सपा) में चढ़ा/ शाम को कुर्सी (उत्तराखंड क्रांति दल) में लंबलेट हुए/ रात को हाथी (बसपा) में बैठ के तड़ी/ इस चुनाव में तो ठाठ ही ठाठ हैं, प्रत्याशी पैदल और घोड़े में हैं हम)
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले इस देश में चुनाव अब तो पैसा बांटने और शराब पिलाने की प्रतियोगिता ही तो बन गए हैं।
aajdo-abhido-uttarakhand-rajya -doटिहरी बांध ने तकरीबन दस हजार परिवारों को विस्थापित कर दिया, टिहरी शहर और कई गांव डूब गए। टिहरी बांध पर अस्सी के दशक में लिखे अपने गीत की भूमिका में नेगी कहते हैं कि विकास के इतिहास में इनका त्याग अमर रहेगा। इस गीत में एक बूढ़ा बाप अपनी मिट्टी से हमेशा के लिए बिछडऩे का दर्द अपने बेटे को चिट्ठी में लिखते हुए कहता है:
अबारी दां तू लंबी छूटी लेके ऐई, ऐगे बगत आखीर,
टीरी डूबण लग्युं चा बेटा डाम का खातीर
(इस बार तू लंबी छुट्टी लेके आना, आखिरी समय आ गया है/ टिहरी डूब रहा है बेटा, बांध की खातिर।)
लेकिन उत्तराखंड बनने के बाद यहां सैकड़ों के तादाद में निर्मित, निर्माणाधीन और प्रस्तावित परियोजनाओं को देख कर नेगी भी समझते हैं कि ये विकास का नहीं संसाधनों की लूट का मामला है। इसलिए वह कहते हैं:
देवभूमि को नौ बदली, बिजली भूमि कैरयाली जी,
उत्तराखंड की धरती योंन डामून डाम्याली जी,
हमरी कूड़ी, पुन्गड़ी, बणों मा बिजलीघर बणाली जी,
जनता बेघरबार होली, सरकार रुप्या कमाली जी।
(देवभूमि का नाम बदल कर बिजली भूमि कर दिया जी/ उत्तराखंड की धरती को इन्होंने बांधों से लहूलुहान कर दिया जी/ हमारे मकान, खेतों, वनों में बिजलीघर बनाएगी/जनता बेघरबार होगी, सरकार तिजोरियां भरेगी जी।)
उत्तराखंड राज्य की मांग के साथ ही राजधानी का सवाल महत्वपूर्ण रूप से जुड़ा रहा है। जनता की मांग रही है कि गैरसैण राजधानी बने। देहरादून में अस्थायी राजधानी के नाम पर सरकार के जमने के खिलाफ लिखे गए गढ़वाली कवि वीरेंद्र पंवार के गीत को नेगी जी ने स्वर दिया :
सब्बी धाणी देरादूण, हूणी-खाणी देरादूण
परजा पिते धार-खाल, राजा राणी देरादूण
सबन बोली गैरसैण, तौंन सूणी देरादूण
(सभी काम देहरादून, विकास के काम देहरादून/ प्रजा खटती रही पहाड़ों पर, राजा-रानी देहरादून/ सबने कहा गैरसैण, उन्होंने सुना देहरादून)
जब उत्तराखंड में स्थायी राजधानी के चयन के लिए बने वीरेंद्र दीक्षित आयोग ने नौ साल में ग्यारह विस्तार पाने और तकरीबन पैंसठ लाख रुपए खर्चने के बाद देहरादून को ही राजधानी बनाने की संस्तुति की तो नरेंद्र सिंह नेगी ने दीक्षित आयोग के साथ ही कांग्रेस, भाजपा और उत्तराखंड क्रांति दल को गैरसैण का मामला लटकाने के लिए कठघरे में खड़ा किया, साथ ही गैरसैण के लिए लड़ाई जारी रखने का आह्वान भी किया:
तुम भी सूणा, मिन सूण्याली, गढ़वाल ना कूमौं जाली
उत्तराखंडे राजधानी बल देरादूणी मा राली, दीक्षित आयोगन बोल्याली,
ऊन बोलण छौ, बोल्याली, हमन् सूणन् छौ, सूण्याली
या भी लड़ै लगीं राली
नौ सालम से कि जागी, धन्य हो पंड्डा जी पैलागी,
पैंसठ लाख रूप्या खर्ची की, देरादूण अब खोज साकी,
जनता का पैंसों की छरळी
या भी …
कांग्रेस-भाजपा नी रैनी कभी गैरसैण का हक्क मा,
सड़कूं मा भी सत्ता मा भी, यू.के.डी. जकबक मा
(तुम भी सुनो, मैंने सुन लिया, गढ़वाल ना कुमाऊं जाएगी/ उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में ही रहेगी, दीक्षित साहब ने कह दिया है/ उन्होंने कहना था कह लिया, हमने सुनना था सुन लिया/ ये लड़ाई भी जारी रहेगी/ नौ साल में सो के जागे, पंडित जी (दीक्षित) तुम्हें प्रणाम/ पैंसठ लाख रुपए खर्च करके, देहरादून अब खोज सके / जनता के पैसे की ये खुलमखुल्ला लूट/ ये भी लड़ाई…/ कांग्रेस, भाजपा नहीं रहे कभी गैरसैण के हक में/ सड़कों में रहें कि सत्ता के साथ यू.के.डी.संशय में।)
नरेंद्र सिंह नेगी सत्ता की लूट पर सीधी चोट करते हैं। अपने एक गीत में वह कहते हैं:
बिना पाणी का घूळी गैनी, यों मा कनि सार च, यूं को च दोस नी यों कि सरकार च
(बिना पानी का हजम कर गए, इनको कैसा अभ्यास है, इनका कोई दोष नहीं है, इनकी सरकार है।)
इस तरह देखें तो पहाड़ का हर रंग, हर शेड नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में है। पीले फ्योंली के फूल हों या लाल बुरांस (बुरुंश), बर्फ से लकदक चोटियों से लेकर गहरी घाटियों तक का सुंदर वर्णन नेगी के गीतों में है। प्रकृति की सुरम्यता के साथ ही पहाड़ के भोले-भाले लोगों और उनके पहाड़ जैसे ही कष्टों का अंदाजा भी नेगी के गीतों से होता है। पहाड़ की प्राकृतिक सुरम्यता, प्रेम और सौंदर्य का ये गायक, गीतकार मजबूती से ना केवल जनता के पक्ष के गीत रचता और गाता है बल्कि आंदोलनों में हिस्सेदार भी बनता है। ‘नौछम्मी नारैण’ लिखते समय नरेंद्र सिंह नेगी उत्तराखंड सरकार की सेवा में थे, लेकिन एन.डी.तिवारी के भ्रष्ट राज के खिलाफ ये गीत गाने के लिए उन्होंने सरकारी सेवा से वी.आर.एस.ले लिया, ऐसा दूसरा उदाहरण शायद ही कोई और हो कि एक गीत गाने के लिए किसी गायक ने सरकारी नौकरी को अलविदा कह दिया हो।
जैसा कि जनता के पक्ष में खड़ी कला और कलाकार एक बेहतर दुनिया के सपने के साथ हमेशा खड़े होते हैं, वैसा ही नरेंद्र सिंह नेगी भी अपने गीत में कहते हैं:
द्वी दिनै की हौर छिन ई खैरी, मुठ बोटी कि रख
तेरी हिकमत आजमाणू बैरी, मुठ बोटी कि रख,
ईं घणा डाळौं बीच छिर्की आलो घाम ये रौला मा भी
सेक्की पाळै द्वी घडी हौर छिन, मुठ बोटी कि रखा
(दो दिनों का और है ये कष्ट, मुट्ठी ताने रख/ तेरी हिम्मत आजमा रहा है बैरी, मुट्ठी ताने रख/इन घने पेड़ों के अंधेरे को चीर कर भी आएगा उजाला/ पाले (तुषार) की हेकड़ी दो वक्त की और है, मुट्ठी ताने रख।)
निश्चित ही लूट-झूठ के राज को मिटाने के लिए तो लडऩा पड़ेगा, खपना पड़ेगा और इस लड़ाई में हमारी मुट्ठी तनी रहे, इसके लिए नरेंद्र सिंह नेगी अपने गीतों के साथ खड़े हैं, डटे हैं।
इंद्रेश मैखुरी
नरेंद्र सिंह नेगी गढ़वाली गीत-संगीत के अप्रतिम रचनाकार हैं। वह गायक हैं, गीतकार हैं, संगीतकार हैं और कवि भी हैं। पिछले चालीस वर्षों से निरंतर उत्तराखंडी गीत-संगीत में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। वह एक व्यावसायिक कलाकार हैं पर उनकी व्यावसायिकता उनके जनसरोकारों पर हावी नहीं है। पहाड़ी जीवन का लगभग हर रंग उनके गीतों में दिखता है। सुबह होने से लेकर शाम होने तक बारिश से लेकर बाघ के आतंक तक का पहाड़ का हर रंग नेगी के गीतों में दर्ज है।
सूर्योदय के दृश्य का वर्णन करता हुआ उनका गीत है :
चम्, चम् चम्, चम्, चम्, चमकी घाम कांठ्यों मां, हिंवाली कांठी चांदी की बणीगैनी,
ठंडो-मठू चढ़ी घाम फूलों की पाख्यों मा, लगी कुथ्ग्यली तौं कि नांगी काख्यों मा
खित्त हैंसिनी फूल डाळ्यों मा, भौंरा-पोतला रंगमत्त बणीगैनी,
डांडी-कांठी बिजाली पौंछी घाम गौं मा, सुनिंद पोड़ीं छै बेटी-ब्वारी ड्यरों मा,
झम झौल लगी आंख्यों मा, मायादार आंख्यों का सुपिन्या उड़ी गैनी
(चम, चम, चम चमकी धूप पहाड़ों पर /बर्फ से लकदक पहाडिय़ां चांदी जैसी हो गईं/धीरे-धीरे धूप फूलों से भरे पहाड़ी ढाल पर चढ़ी, फूलों के नंगे बदन पर धूप ने गुदगुदी की/ फूल खिलखिला कर हंस पड़े और भौंरे-पतंगे उन्मत्त हो गए, पहाड़ी चोटियों को जगा कर धूप पहुंची गांव में, बहु-बेटियां गहरी नींद में सोयी थीं जहां घरों में/ धूप की आंच आंखों में पड़ी और उनकी प्रेम भरी आंखों के सपने उड़ गए।)
पहाड़ में शाम होने का नजारा नरेंद्र सिंह नेगी के यहां ऐसा है :
डांडा-धारूं मां घाम अछे गे, पोंछी कुजाणी कै दूर मुलुक
पोड़े रुमुक,
गोर-गौचरू का घर बौड़ा ह्वेनी, पंछी अगासू का घोलू पैटीनी,
ऊज्याला अड़ेथी आई अंध्यारु, चोर बिराली सी सूर-सुरुक
बौण लखड़वैनी-घसेनी रगर्यांदा, हे दीदी-हे भूली झट काटा-बांधा,
उनी दूध्या नौनियाल, सासू रिसाड़, जिकुड़ी मां येडिय़ों की धूक-धूक
पोड़े रुमुक
(पहाड़ी चोटियों और ढलानों पर ढली धूप, जाने वो किस दूर के मुल्क पहुंच गई/सांझ ढल गई/ गौचरों में चरने गए पशु घर लौट रहे हैं, आकाश में उड़ते पंछी भी घोसलों में पहुंचने की तैयारी में हैं/ उजाले को धकेल कर अंधेरा दबे पांव चोर बिल्ली की तरह आ पहुंचा है/ सांझ ढल गई है/ जंगल में लकड़ी-घास लेने गई महिलाएं हड़बड़ी में हैं, अरी बहनों फटाफट काटो और बांधो/ घर में दुधमुंहा बच्चा है और सास गुसैल, दिल में धुकधुकी लगी है/ सांझ ढल गई है। )
चरवाहा अपनी भेड़-बकरियां गुम होने के किस्से को जिस मासूमियत से बयां करता है उससे कुछ हास्य भी पैदा होता है:
ढेबरा हर्ची गैनी, मेरी बखरा हर्ची गैनी मेरा,
हे भुल्यों, हे घसैन्यु, हे दीद्यूं-हे पंधेन्यू, हे कका तिल देखीनी, हे चुचों कख फूकेनी
खाडू नर्सिंगा का नौ को छौ सिरायुं धर्मा कोंको, नागराजा खुज्यौ त्वी, तेरो लागोठ्या लीगी क्वी
पटवरी जी की पुजै भोल, बुगठ्या दिख्यो ह्वेगे गोल
(भेड़ें गुम हो गईं मेरी बकरियां लापता/हे भुल्यों (छोटी बहनों)-घसियारिनो, हे दीदियो-पनिहारिनो, अरे काका तूने देखि, अरे लोगो कहां मर गईं / नरसिंह देवता की नाम का खाडू (भेड़) रखवाया था धर्मा ने, नागराजा तू ही खोज तेरी बलि के लिए रखे हुए को ले गया कौन/ पटवारी जी की पूजा कल और बकरा हो गया गोल)
ये पहाड़ की विडंबना है कि कठिन और विकट जीवन स्थितियों में पहाड़ी गीतों में दुख भी हास्य के रूप में फूटता है। इसलिए पहाड़ में कहावत है कि बड़े दुख की बड़ी हंसी।
एयर कंडीशन कमरों में बैठ कर भले ही बाघ बचाने की बड़ी-बड़ी चिंताएं हों लेकिन पहाड़ में तो बाघ आतंक का ही पर्याय है, जो आए दिन पालतू पशुओं से लेकर मनुष्यों पर हमलावर है। ऐसे ही एक गीत में नरेंद्र सिंह नेगी सुमा नाम की लड़की की कहानी सुनाते हैं जिसकी मंगनी होने वाली है और वो बाघ का निवाला बन गई है :
सुमा हे निहोंण्यां सुमा डांडा ना जा, सुमा हे खड्यौंणा सुमा डांडा ना जा,
लाडा की ब्यटूली सुमा डांडा ना जा, यखुली-यखुली सुमा डांडा ना जा,
दोबदो-दोबदो बाघ डांडा ना जा, तेरी घांटी बिलकी सुमा डांडा ना जा
तेरी चिरीं लती-कपड़ी डांडा ना जा, घसेन्यून पछ्याणी सुमा डांडा ना जा
अध्खाईं तेरी लास देखि सैरा गौं का रवेनि सुमा डांडा ना जा
(सुमा अरी ओ नादान सुमा पहाड़ पे मत जा/सुमा ओ लाडली सुमा पहाड़ पे मत जा, अकेली-अकेली सुमा पहाड़ पे मत जा / दबे पांव आया बाघ और तुझपे झपट गया, पहाड़ पे मत जा/ तेरे चीथड़े हो चुके कपड़े घस्यारिनों ने पहचाने, पहाड़ पे मत जा / तेरी आधी खाई लाश देख कर सारे गांव वाले रोये, पहाड़ पे मत जा।
नोट: इस गीत में बाघ का निवाला बन चुकी सुमा को संबोधित करते हुए बाघ द्वारा उसे मारे जाने की कथा बयान की गई है। अनुवाद करने के लिहाज से टेक के रूप में प्रयुक्त पंक्तियां हटा दी गई हैं। )
बाघ का आतंक इतना भारी है पहाड़ पर कि जब नब्बे के दशक में उत्तराखंडी मूल के निशानेबाज जसपाल राणा की ख्याति हुई तो उनसे भी नेगी उत्तराखंड के लोगों की तरफ से बाघ पर निशाना लगाने का ही आग्रह करते हैं
बंदुक्या जसपाल राणा सिस्त साधी दे, निसणु साधी दे
उत्तराखंड मा बाघ लग्युं, बाघ मारी दे, मनस्वाग मारी दे
नथूल्यों गले कि तोई सोना का मेडल द्युंला
बच्यां रौंला जब तलक, राणा तेरो नाम ल्युंला
आतंकबादी ये बाघे की सेक्की झाड़ दे
(बंदूकधारी जसपाल राणा निशाना साध ले/ उत्तराखंड में बाघ लगा हुआ है, बाघ मार दे, आदमखोर को मार दे/ नथें गला कर तुझे हम सोने के मेडल देंगे/ जब तक जिंदा रहेंगे, राणा तेरा गुणगान करेंगे/ आतंकवादी इस बाघ की हेकड़ी उतार दे)
नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में नए-नए हुए विवाह के बाद पति-पत्नी की चुहलबाजी दिखती है:
स्त्री: हे जी कैबै ना करा, मठू-मठू जौंला, नयु-नयु ब्यो च मिठी-मिठी छ्वीं लगोंला,
पुरुष: हिट ले दी घमाघमी, सरासरी जौंला, फुक तौं लोळी छुयुं डेरै मा लागौला
(स्त्री: ऐ जी अकबक मत करो, हौले-हौले चलेंगे, नई-नई शादी है, मीठी-मीठी बातें करेंगे।
पुरुष : लंबे-लंबे डग भर, फटाफट जाएंगे, रहने दे उन कमबख्त बातों को घर में ही करेंगे। )
लेकिन उसी पहाड़ी स्त्री का पति जब नौकरी के लिए पहाड़ से पलायन कर, सालों तक घर नहीं लौटता है तो उसकी पीड़ा भी नेगी के गीतों में दिखती है:
देवर: नारंगी की दाणी हो, क्यान सूखी होलो बौजी मुखड़ी को पाणी हो
बौजी: खोळी को गणेशा हो, जुग बीती गैनी द्यूरा स्वामी परदेसा हो
देवर: धीरज चएंदा हो, खैरी का ये दिन बौजी सदानि नी रएंदा हो
बौजी: त्वे मा क्या लगौण हो, दिन बौडी ऐ भी जाला ज्वनी क्खे ल्योंण हो
(देवर: क्यों सूख गया भाभी तुम्हारे चेहरे का पानी/ भाभी: वर्षों बीत गए देवर स्वामी परदेस ही हैं। / और गीत के अंत में जब देवर भाभी को सांत्वना देते हुए कहता है कि / धीरज रखना चाहिए भाभी, दुख के दिन हमेशा नहीं रहेंगे/ तो पहाड़ की तकलीफों से टकराते-टकराते अपना सब कुछ पहाड़ में ये दफन करने वाली स्त्री की पीड़ा भी उभरती है जब वह कहती है कि/ दिन तो बहुर भी जाएंगे पर जो युवावस्था कष्टों को झेलते-झेलते बीत गई वो कहां से लौटेगी।
नोट: टेक के रूप में इस्तेमाल पंक्तियों का अनुवाद नहीं किया गया है। )
प्रेम पर तो नेगी के कई गीत हैं। हर बार वह नए बिंबों, नए रूपकों के साथ प्रेम गीत रचते हैं, जिनमें फिल्मी छिछोरापन नहीं है बल्कि प्रेम की शालीनता और गरिमा उभरती है। एक नमूना देखिए:
बंडी दिनों मा दिखे आज, दिन आजा को जुगराज,
फल्यान-फूल्यां वो पाखा, वो पैंडा, हैरा-भैरा रयां पुंग्डय़ूं का मेंडा
जौं सारयूं बीच हिटी की तू ऐई, तौं सारयूं खारयूं हो नाज
(प्रेमिका के मिलने पर प्रेमी कह रहा है:
बहुत दिनों में दिखी आज, आज का दिन दीर्घजीवी हो/ फलें-फूलें वो पहाड़ी ढालें, हरे-भरे रहें वो खेतों की मेड़ें / जिन खेतों से चल के तू आई, उनमें हो मनों अनाज )
प्रेमिका के मिलन पर ऐसी उत्पादक कामना अद्भुत ही नहीं है बल्कि दुर्लभ भी है।
शुरुआत के गीतों में देखें तो गढ़वाल की वंदना, गढ़वाल की प्रकृति की सुंदरता की प्रशंसा नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में खूब दिखती है। लेकिन धीरे-धीरे पहाड़ की समस्याएं उनके गीतों में उभर कर सामने आने लगीं :
कख लगाण छवीं, कैमा लगाण छवीं,
ये पहाड़ की, कुमौं-गढ़वाल की,
रीता कूड़ों की, तीसा भांडों की,
बगदा मनख्यूं की, रड़दा डांडों की
(कहां कहें बात, किससे कहें बात, /इस पहाड़ की, कुमाऊं -गढ़वाल की/ खाली मकानों की, / प्यासे बर्तनों की, बहते मनुष्यों की, लुढ़कते पहाड़ों की। )
ये पहाड़ से लगातार पलायन की पीड़ा है, लेकिन चूंकि नीति-नियंताओं को इस पलायन और खाली होते पहाड़ के गांवों से कोई फर्क नहीं पड़ता, इसलिए आम पहाड़ी आदमी की पीड़ा भी इसमें है कि कहां कहें और किससे कहें।
जनविरोधी विकास या विकास के नाम पर हो रहे विनाश की ओर भी नरेंद्र सिंह नेगी आम आदमी का ध्यान खींचते हैं :
नौ फरें विकास का, विनाश कैन कैरी यूं पहाड़ों को, /खोजा वे सणी, पछ्याणा, वे सणी
(विकास के नाम पर विनाश किसने किया इन पहाड़ों का, /खोजो उसे, पहचानो उसे।)
उत्तराखंड आंदोलन के दौर में तो आंदोलन के गीतों का एक पूरा कैसेट ही नेगी ने निकाला। 1994 के प्रचंड जनांदोलन में उत्तराखंडियों को जागने का संदेश देते हुए उन्होंने लिखा:
उठा जागा उत्तराखंडियों, सौं उठाणो बक्त ऐगे,
उत्तराखंड का मान सम्मान बचाणो बक्त ऐगे,
भोळ तेरा भला दिनों का खातिर जौं कुल्वे सड़क्यं मा बौगी,
ऊं शहीदों कू कर्ज त्वे पर अब चुकाणो बगत ऐगे
(उठो, जागो, उत्तराखंडियो शपथ लेने का वक्त आ गया है/ उत्तराखंड का मान सम्मान बचाने का वक्त आ गया है/ कल तेरे उज्ज्वल भविष्य के लिए, जिनका लहू सड़कों पर बहा/ उन शहीदों का कर्ज चुकाने का वक्त आ गया।)
2 अक्टूबर, 1994 को दिल्ली में प्रदर्शन करने जा रहे आंदोलनकारियों पर उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुलायम सिंह यादव और मायावती की गठबंधन सरकार ने मुजफ्फरनगर में बर्बर दमन ढाया। गुंडों की तरह नौजवानों की हत्याएं और महिलाओं के साथ दुराचार मुलायम सिंह यादव की पुलिस ने किया। इस बर्बर और शर्मनाक दमन के खिलाफ नरेंद्र सिंह नेगी ने अपने गीत में प्रतिरोध दर्ज किया:
तेरा जुल्म कू हिसाब चुकौला एक दिन, लाठी-गोली को जवाब द्यौला एक दिन,
वो दिन-बार औंण, विकास का रतब्योंण तक,
अलख जगीं राली ये उत्तराखंड मा, लड़ै लगीं राली ये उत्तराखंड मा
(तेरे जुल्म का हिसाब चुकाएंगे एक दिन, लाठी-गोली का जवाब देंगे एक दिन/वो दिन-वो वक्त आने तक, विकास का उजाला होने तक/ अलख जगी रहेगी इस उत्तराखंड में, लड़ाई जारी रहेगी इस उत्तराखंड में।)
9 नवंबर, 2000 को अलग उत्तराखंड राज्य बना, लेकिन ये जनता के सपनों का राज्य नहीं था। लूट और झूठ की कांग्रेसी-भाजपाई राजनीति का उत्तराखंड था, ठेकेदार और माफियाओं का उत्तराखंड था। नेगी के भीतर के गीतकार और गायक ने इस छलावे को जल्दी ही पहचान लिया। जहां राज्य बनने से पूर्व के गीतों में वह विकास के नाम पर विनाश करने वालों को खोजने और पहचानने को कहते हैं, वहीं राज्य बनने के बाद के गीतों में वह लूट की ताकतों और उनके शिखर पुरुषों की न केवल शिनाख्त करते हैं बल्कि खुल कर उन पर उंगली उठाते हैं, उनका नाम लेते हैं। उनके कारनामों को गीतों के जरिये जनता के सामने लाते हैं। कांग्रेसी मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी को केंद्र करके नेगी जी द्वारा लिखा और गाया गीत-नौछम्मी नारैण (बहुरुपिया नारायण) ऐसा ही गीत है, जो नारायण दत्त तिवारी द्वारा सरकारी खजाने की लूट पर तीखा हमला बोलता है। वह यहीं नहीं रुकते, भाजपा की सरकार बनने के बाद वह मुख्यमंत्री ‘निशंक’ पर निशाना साधते हुए गीत लिखते हैं – ‘अब कथ्गा खैल्यो’ (अब कितना खाएगा)। जिस समय ‘निशंक’ के भ्रष्टाचार का दौर चरम पर था, नेगी का यह गीत जैसे सीधा मुख्यमंत्री से सवाल कर रहा था कि भाई बता अब और कितना खाएगा। जहां ‘नौछम्मी नारैण’ में नेगी ने राज्य की पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के निकम्मेपन पर भी व्यंग्य किया वहीं ‘अब कथ्गा खैल्यो’ में वह घोटालों की सरताज केंद्र की कांग्रेस सरकार पर भी प्रहार करते हैं, राष्ट्रमंडल खेल, टू-जी घोटाला, काले धन जैसे मसलों को भी इस गीत में उन्होंने छुआ है।
चुनाव में कांग्रेस-भाजपा जैसी पार्टियों द्वारा अपनाए जा रहे हथकंडों पर नरेंद्र सिंह नेगी का गीत देखिए:
हातन हुस्की पिलाई फूलन पिलायो रम,
छोटा दली-निरदली दिदोंन कच्ची मा टरकायां हम,
ऐंसू चुनौ मा मजा ही मजा, दारु भी रुप्या भी ठमठम
सुबेर पैग पे घडी दगडी, दिन का पैग सैकिल मा चढ़ी,
ब्याखुनी कुर्सी मा लम्तम पड़ी, राती को हाती मा बैठी की तड़ी
ऐंसू चुनौ मा ठाठ ही ठाठ, प्रत्याशी पैदल अर, घोड़ा मा हम।
(हाथ (कांग्रेस) ने व्हिस्की पिलाई, फूल (भाजपा) ने पिलाया रम/ छोटे दलों, निर्दलीय भाइयों ने कच्ची में टरकाये हम/ इस चुनाव में तो मजा ही मजा, दारू भी और नोट भी खटाखट/ सुबह का पैग घड़ी (एन.सी.पी.) के साथ, दिन का पैग साइकिल (सपा) में चढ़ा/ शाम को कुर्सी (उत्तराखंड क्रांति दल) में लंबलेट हुए/ रात को हाथी (बसपा) में बैठ के तड़ी/ इस चुनाव में तो ठाठ ही ठाठ हैं, प्रत्याशी पैदल और घोड़े में हैं हम)
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले इस देश में चुनाव अब तो पैसा बांटने और शराब पिलाने की प्रतियोगिता ही तो बन गए हैं।
aajdo-abhido-uttarakhand-rajya
अबारी दां तू लंबी छूटी लेके ऐई, ऐगे बगत आखीर,
टीरी डूबण लग्युं चा बेटा डाम का खातीर
(इस बार तू लंबी छुट्टी लेके आना, आखिरी समय आ गया है/ टिहरी डूब रहा है बेटा, बांध की खातिर।)
लेकिन उत्तराखंड बनने के बाद यहां सैकड़ों के तादाद में निर्मित, निर्माणाधीन और प्रस्तावित परियोजनाओं को देख कर नेगी भी समझते हैं कि ये विकास का नहीं संसाधनों की लूट का मामला है। इसलिए वह कहते हैं:
देवभूमि को नौ बदली, बिजली भूमि कैरयाली जी,
उत्तराखंड की धरती योंन डामून डाम्याली जी,
हमरी कूड़ी, पुन्गड़ी, बणों मा बिजलीघर बणाली जी,
जनता बेघरबार होली, सरकार रुप्या कमाली जी।
(देवभूमि का नाम बदल कर बिजली भूमि कर दिया जी/ उत्तराखंड की धरती को इन्होंने बांधों से लहूलुहान कर दिया जी/ हमारे मकान, खेतों, वनों में बिजलीघर बनाएगी/जनता बेघरबार होगी, सरकार तिजोरियां भरेगी जी।)
उत्तराखंड राज्य की मांग के साथ ही राजधानी का सवाल महत्वपूर्ण रूप से जुड़ा रहा है। जनता की मांग रही है कि गैरसैण राजधानी बने। देहरादून में अस्थायी राजधानी के नाम पर सरकार के जमने के खिलाफ लिखे गए गढ़वाली कवि वीरेंद्र पंवार के गीत को नेगी जी ने स्वर दिया :
सब्बी धाणी देरादूण, हूणी-खाणी देरादूण
परजा पिते धार-खाल, राजा राणी देरादूण
सबन बोली गैरसैण, तौंन सूणी देरादूण
(सभी काम देहरादून, विकास के काम देहरादून/ प्रजा खटती रही पहाड़ों पर, राजा-रानी देहरादून/ सबने कहा गैरसैण, उन्होंने सुना देहरादून)
जब उत्तराखंड में स्थायी राजधानी के चयन के लिए बने वीरेंद्र दीक्षित आयोग ने नौ साल में ग्यारह विस्तार पाने और तकरीबन पैंसठ लाख रुपए खर्चने के बाद देहरादून को ही राजधानी बनाने की संस्तुति की तो नरेंद्र सिंह नेगी ने दीक्षित आयोग के साथ ही कांग्रेस, भाजपा और उत्तराखंड क्रांति दल को गैरसैण का मामला लटकाने के लिए कठघरे में खड़ा किया, साथ ही गैरसैण के लिए लड़ाई जारी रखने का आह्वान भी किया:
तुम भी सूणा, मिन सूण्याली, गढ़वाल ना कूमौं जाली
उत्तराखंडे राजधानी बल देरादूणी मा राली, दीक्षित आयोगन बोल्याली,
ऊन बोलण छौ, बोल्याली, हमन् सूणन् छौ, सूण्याली
या भी लड़ै लगीं राली
नौ सालम से कि जागी, धन्य हो पंड्डा जी पैलागी,
पैंसठ लाख रूप्या खर्ची की, देरादूण अब खोज साकी,
जनता का पैंसों की छरळी
या भी …
कांग्रेस-भाजपा नी रैनी कभी गैरसैण का हक्क मा,
सड़कूं मा भी सत्ता मा भी, यू.के.डी. जकबक मा
(तुम भी सुनो, मैंने सुन लिया, गढ़वाल ना कुमाऊं जाएगी/ उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में ही रहेगी, दीक्षित साहब ने कह दिया है/ उन्होंने कहना था कह लिया, हमने सुनना था सुन लिया/ ये लड़ाई भी जारी रहेगी/ नौ साल में सो के जागे, पंडित जी (दीक्षित) तुम्हें प्रणाम/ पैंसठ लाख रुपए खर्च करके, देहरादून अब खोज सके / जनता के पैसे की ये खुलमखुल्ला लूट/ ये भी लड़ाई…/ कांग्रेस, भाजपा नहीं रहे कभी गैरसैण के हक में/ सड़कों में रहें कि सत्ता के साथ यू.के.डी.संशय में।)
नरेंद्र सिंह नेगी सत्ता की लूट पर सीधी चोट करते हैं। अपने एक गीत में वह कहते हैं:
बिना पाणी का घूळी गैनी, यों मा कनि सार च, यूं को च दोस नी यों कि सरकार च
(बिना पानी का हजम कर गए, इनको कैसा अभ्यास है, इनका कोई दोष नहीं है, इनकी सरकार है।)
इस तरह देखें तो पहाड़ का हर रंग, हर शेड नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में है। पीले फ्योंली के फूल हों या लाल बुरांस (बुरुंश), बर्फ से लकदक चोटियों से लेकर गहरी घाटियों तक का सुंदर वर्णन नेगी के गीतों में है। प्रकृति की सुरम्यता के साथ ही पहाड़ के भोले-भाले लोगों और उनके पहाड़ जैसे ही कष्टों का अंदाजा भी नेगी के गीतों से होता है। पहाड़ की प्राकृतिक सुरम्यता, प्रेम और सौंदर्य का ये गायक, गीतकार मजबूती से ना केवल जनता के पक्ष के गीत रचता और गाता है बल्कि आंदोलनों में हिस्सेदार भी बनता है। ‘नौछम्मी नारैण’ लिखते समय नरेंद्र सिंह नेगी उत्तराखंड सरकार की सेवा में थे, लेकिन एन.डी.तिवारी के भ्रष्ट राज के खिलाफ ये गीत गाने के लिए उन्होंने सरकारी सेवा से वी.आर.एस.ले लिया, ऐसा दूसरा उदाहरण शायद ही कोई और हो कि एक गीत गाने के लिए किसी गायक ने सरकारी नौकरी को अलविदा कह दिया हो।
जैसा कि जनता के पक्ष में खड़ी कला और कलाकार एक बेहतर दुनिया के सपने के साथ हमेशा खड़े होते हैं, वैसा ही नरेंद्र सिंह नेगी भी अपने गीत में कहते हैं:
द्वी दिनै की हौर छिन ई खैरी, मुठ बोटी कि रख
तेरी हिकमत आजमाणू बैरी, मुठ बोटी कि रख,
ईं घणा डाळौं बीच छिर्की आलो घाम ये रौला मा भी
सेक्की पाळै द्वी घडी हौर छिन, मुठ बोटी कि रखा
(दो दिनों का और है ये कष्ट, मुट्ठी ताने रख/ तेरी हिम्मत आजमा रहा है बैरी, मुट्ठी ताने रख/इन घने पेड़ों के अंधेरे को चीर कर भी आएगा उजाला/ पाले (तुषार) की हेकड़ी दो वक्त की और है, मुट्ठी ताने रख।)
निश्चित ही लूट-झूठ के राज को मिटाने के लिए तो लडऩा पड़ेगा, खपना पड़ेगा और इस लड़ाई में हमारी मुट्ठी तनी रहे, इसके लिए नरेंद्र सिंह नेगी अपने गीतों के साथ खड़े हैं, डटे हैं।
आप का यह लेख पढ़ के मुझे बहुत अच्छा लगा आपने बहुत अच्छी बातें कही है। आप मेरे लेख को पढ़ सकते है।
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