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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Wednesday, July 1, 2015

आँवला की खेती से सोना कमाइए।

लेखक : डॉ. बलबीर सिंह रावत ,  देहरादून।

आंवला, ऋषि च्यवन का प्रिय फल, जिन्हौने एक चिरायु पौष्टिक पदार्थ, च्यवनप्राश, का अन्वेषण करके मानव जाति को एक ऐसा स्वास्थ्यवर्धक टॉनिक दिया जिसका उपयोग आज के प्रदूषित वतावरण में और भी अधिक आवश्यक हो गया है।  जी हाँ , यह "तुच्छ" फल  इतने अधिक काम आता है की इस से लाखों परिवारों की रोजी रोटी चलती है। आंवले से जूस, अचार, मुरब्बा , चटनी, जैम , लड्डू, कैंडी  और चूर्ण बनाया जाता है क्यों की इन सब पदार्थों की खूब मांग है जो बढ़ती जा रही है।  परीक्षणों से पता चला है कि आंवले में 700 मिलीग्राम विटामिन सी, प्रति 100 ग्राम फल, होता है. विटामिन सी एक तगड़ा एंटी ऑक्सीडेंट है और यह शरीर की प्रतिरोधक शक्ति को बढाता है।  चव्वन ऋषि को यह बात अपने अनुभवों से मालूम थी  तो उन्हौने च्यवनप्राश जैसा  चिरस्थायी अवलेह बना डाला ।  

 आज कल के बाजारों में ताजा आंवला ३० से ३५ रुपये किलो  का भाव अपने मालिक के लिए कमा सकता है। दस साल की उम्र का पेड़ ५० - ७० किलो फल देता है।  एक एकड़ में २०० पेड़ लगाए जाते हैं जो साल भर में ३ लाख स ३ लाख ५० हजार रूपये की कमाई और २ से ३ लाख रुपये का शुद्ध लाभ कमाने का मौका देता है।  आंवला प्रायः हर  उस राज्य में उगाया जा सकता है जहाँ की मिट्टी में रेत की अधिकता न हों और औसत सालाना बारिश ६३० मिमी से ८०० मिमी के लगभग हो. जहाँ न अत्यंत अधिक ठंड पड़ती हो और न ही अत्यधिक गर्मी, वैसे आंवले का पौधा पानी जमा देनी वाली ठंड और ४६ डिग्री सेल्सियस की गर्मी सह सकता है लेकिन इन से उत्पादन पर असर होता है।  इसलिए समाकूल मिट्टी और आबोहवा का ध्यान रखना आवश्यक है।  उरराखण्ड की तराई से लगे पहाड़ी इलाके और नदियों की घाटियों के दक्षिणी,पश्चिमी ढाल आवले की खेती के लिए उपयुक्त जगहे हैं। 

आवले की विकसित प्रजातिया हैं बनारसी, चमइया ,कृष्णा , कंचन,  भवानीसर -१ और NA 6 , NA 7 , NA 10 । आवले की इन में से किसी भी चाहित प्रजाति की कलम लगी पौध को लगाया जाता है।  पौध तौयार करने के लिए स्टॉक के बीज बो कर  पौधे उगाये जाते हैं. इस स्टॉक के पौधों पर बांछित प्रजाति के वांछित पेड़ों से आँखें  लेकर कर शील्ड बडिंग पद्धति से सायंन लगाया जाता है।  जब आँख बढ़ कर कोंपल में विकसित हो जाय तो पौधे लगाने तो तैयार होते हैं।  पौध लगाने के लिए जमीन में मई -जून में ४.५  x  ४. ५ मीटर की दूरी पर  १ x १ x १ मीटर गड्ढे खोदे जाते हैं, जिनको  तेज धुप में १२ से १५ दिन खुला रक्खा जाता है. फिर इन गडढ़ों में प्रति एकड़ बढ़िया गोबर खाद ५ टन,  नत्रजन खाद ९० किलो, फॉस्फोरस की खाद १२० किलो और पोटाश की खाद ४८ किलो को मिट्टी में अच्छी तरह मिला कर गडढे भर देने चाहियें और इस मिश्रण को खूब दबा कर पानी देना चाहिए।  मानसून की पहिली बारिश के बाद पौध लगा देनी चाहिए। हर २५ दिनों में, जरूरत के अनुसार , सिंचाई भी कर देनी चाहिए  

आंवला  ६ वें साल से फल देने लगता है और अपने चरम  उत्पादन  में १० वे साल में ही पहुँच पाता है।   इसलिये अगर हर साल पूरे क्षेत्रफल के १/५ में पौदे लगें तो एक तो सलाना खर्चों कमी आएगी , दुसरे बाग़ की देख रेख करने का अनुभव भी मिलता रहेगा ,  चूंकि आवले के बाग़ में धूप काफी मिलती है तो इसके साथ अन्य फसले, जैसे हरे , काले,  सुफद चने , मटर , मसूर जैसी दो दली फैसले ली जा सकती हैं , इस से अतिरिक्त आय भी हो जाती है, खेतों में नत्रजन भी फिक्स होतो रहती हैं। 

आंवले के तने पर सुंडियो का हमला हो सकता है और पत्तियों पर लाल फंगस का । सुंडियों केलिए ०.०५ % एण्डोसल्फोन या ०. ०३ % मोनो फोटोफोस को इंजेक्शन की श्रिन्ज से छेदों में डाल कर छेदों को गीली मिट्टी से बंद कर देना चाहिए।  फंगस के लिए इण्डोफिल M 45 के ०.३ % के घोल का छिड़काव करने से बीमारी पर काबू पाया जाता है। 

फल फरवरी में तोड़े जाते हैं।  तोड़ने से पहिले अगर आवला प्रसंस्करण करने वालों से सम्पर्क करके, भाव तय कर लिया जाय तो रोजाना मंडी के चक्क्रर लगाने से बचा जा सकता है. इसके प्रसंस्करण कर्ता  वे हैं जो आंवले से आचार, , मुरब्बा, जैम , चटनी, जूस, स्क्वेश, कैंडी, लड्डू , चूरन , औषधि ,  बाल धोने का शैमम्पू , और च्यवनप्राश बनाते हैं। , अगर ताजे आंवले बेचने दिक्कत हो तो फलों को उबाल कर, गुठलियाँ हटा कर , सुखा कर और अच्छे तरह पैक करके बाद में भी बेचा जा सकता है।  सूखे आंवले का ७० -७५ रूपये प्रतिकिलो का भाव मिल सकता है। 

आश्चर्य की बात है की इतने लाभदायक फल पर अब तक किसी भी अनुसंधानशाला में रिसर्च नहीं हुयी है जिस से आवले से कोई ऐसा उत्पाद बनाया जा सके जो च्यवन प्राश को टक्कर देने वाला एन्टीऔक्सिडेंट हो और अधिक स्वादिष्ट और सस्ता हो।  क्या हमारे उत्तराखंड की यूनिवर्सिटियां और विज्ञान के परास्नातक कॉलेज इस और ध्यान देंगे या किसी अमेरिकन युनीवर्सिटी से पेटेंट खरीदवायेंगे  ( एक में तो च्यवनप्राश की टेक्नॉलॉजी पर काम हो भी रहा है ).  उत्तराखंड के पंचायती बनों और बन पंचायतों की जमीनों में , और बन विभाग के नदी तटों के जंगलों में आंवले की खेती  को स्ररकारी कार्यक्रम में शामिल किया जा सकता है। ) 

अधिक जानकारी के लिए प्रादेशिक सम्ब्नधित विभाग के अधिकारियों से सम्पर्क करें। 

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