- डॉ. बलबीर सिंह रावत।
आज उत्तराखंड के पर्वतीय भाग में पलायन प्रदेश के जीवन मरण का प्रश्न बन गया है। इस विनाशकारी पलायन को कम कर पाने की एक मात्र आशा हैकेवल कृषि उत्पादन को एक व्यवसाय बना कर उस से इतनी आय अर्जित कर पाना जितना किसी सामान्य नौकरी या अन्य व्यवसाय से होती है।
समूच प्रदेश की कृषि भूमि का केवल १४ % ही खेती योग्य है। यह भूमि ७.४ लाख हक्टर है और इसका ८९ % भाग छोटे, सीमान्त और सब-सीमान्तकिसानों के स्वामित्व में है।जब तक गुजर वसर की खेती का चलन था तो किसानों का वर्गीकरण जोत के रकबे के अनुसार सार्थक था। जैसे जैसे उन्नत कृषि कीटेक्नॉलॉजी उपलब्ध होती गयी, जमीन की उत्पादकता बढ़ने लगी तो जोतों का वर्गीकरण कृषि से उत्पन्न आय के आधार पर अधिक सार्थक होने लगा। कृषि सेसकल आय की न्यूनतम सीमान्त आय ४५,००० रुपये मानी गयी , इस से कम आय कर पाने वाली जोत को सब-सीमान्त, इस के आसपास को सीमान्त और इससे ऊपर लघु और मध्यम तथा बड़े जोत के किसान। केंद्रीय सरकार के कृषि सेन्सस विभाग के आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड में ( आधार NSS के २००३ के आंकड़े )प्रति हेक्टर आय इस प्रकार थी :-
सीमान्त किसान १५, ४०५ /- , लघु किसान १२, ६९४ /- , लघु और सीमान्त का औसत १४,८५९ /- , मध्य और बड़े का औसत ६९,१३१/-, इन सब का औसत२५,५३६/- था । अगर २००३ में एक परिवार को सामान्य जीवन यापन, शिक्षा स्वास्थ्य, घर और भविषय के लिए थोड़ा सा बचत के लिए आवश्यक राशि को८०,०००/- रूपया प्रति वर्ष मान कर चलें तो आज के हिसाब से यह जीवन यापन की आय २,००,०००/- प्रति वर्ष होनी चाहिये। इसके लिए वर्तमान उत्पादन क्षमताके हिसाब से प्रति परिवार के पास कम से कम ४ हेक्टेयर भूमि खेती के लिए होनी चाहिए, जो कि संभव इस लिए नहीं हैं की इतनी अधिक कृषि भूमि उपलब्ध हीनहीं है। तो क्या आज की कृषि टेक्नॉलॉजी प्रति हेक्टेयर पैदावार बढा कर आज के १ या २ हेक्टर को तब के ३-४ हेक्टेरों के बराबर उत्पादक बना सकती है ?अवश्य बढ़ा सकती है , बशर्ते की उन्नत कृषि टेक्नॉलॉजी के अ से लेकर ञं के सारे घटकों को समुचित अनुपातों में दक्षता से उपयोग में लाया जा सके।
एक उदाहरण मण्डुवे की उन्नत खेती का लेते हैं। कर्नाटक में जहां ९५% सूखी खेती में रागी उगाया जाता है , वहाँ उन्नत बीज, रोपाई, भूमि उर्बरता में बृद्धि औरसिंचाई के समुचित उपयोग से मंडुए उत्पादन का उत्पादन २५ किंटल प्रति क्विंटल, तमिल नाडु में सिंचाई से ४५ और बिना सिंचाई से ३१ क्विंटल, देहरादून मेंपीपल'स साइंस इंस्टिट्यूट के २००९ के प्रयोगों में १८ क्विंटल और इथोपिया में २४ से ३३ क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज ली जा सकती है तो उत्तराखंड के औसत १३.३०९ क्विंटल को कम से कम १८ से २५ क्विंटल तक तो अवश्य किया जा सकता है। यही नियम अन्य फसलों और फलों, फूलों, जड़ी बूटियों,सब्जियों की,मिश्रित खेती की ( अगले लेख में ) उत्पादकता बढ़ाने के लिए लागू होते हैं।
व्यावसायीकरण का पहिला कदम है उत्पादकता बढ़ाना। उत्तराखंड के पर्वतीय कृषि में उत्पादकता का स्तर अभी बहुत नीचे है, प्रदेश के कृषि विभाग के कुछधान्यों की औसत उत्पादयकता के आंकड़े ( कुंतल प्रति हेक्टर { =१०० नाली } - किलो प्रति नालीं ) इस प्रकार हैं : ( स्रोत कृषि विभाग उत्तराखंड कीइंटरनेट पोस्टिंगों से )
(ग म = गढ़वाल मंडल ; कु म = कुमाऊं मंडल ; औ प उ = औसत पर्वतीय उत्तराखंड )
चावल - ग मं १४. ९७९, , कु मं १९. ८४० , औ प उ १२. ९५८ ; मंडुवा - ग म १४. ०१९ , कु म १२. ५८९ , औ प उ १३. ३०९
मक्का १५. ३५५ "" १४. ३९२ , " १२. ८८३ , साँवाँ - " १३. १५९ , " १२. ४४५ , " १२. ९४९
राम दाना " " - ४. ९०४ " ३. १०२ , " ४. ८४० , उड़द " ८.२१४ , " ७. ३०१ , " ८. १५९
राजमा " " १०. ४८५ " ७. ८७५ , " १०.२०५ , गहथ " ७. १७१ " ८. ४३४, " ८. १७५
कुल खाद्यान्य " १३.५१५ " १६. ९०९ , " १२.४९५ , कुल दालें रबी " ७. ७४२ , " ९. ०३२ , " ७. ३६०
तिलहन कुल " ४.७७५ " १५. ४१८ , " ९.१७० , कुल धान्य रबी " १८. ५९० " २५. ८९२ , " १४.०४८ ,
आलू खरीफ १०५. ६८१ " ७१. ७२३ " ९३.८१३, आलू रबी " १४०. ५६४ , " १३३.५१६ , " १२२. ५१२
प्याज ५५. ३९० " ५२. ५३२ " ५३.०३५ , अदरख " ९४. ७५३ " ८४. ७०६ , " ८६. ७६६
क्या ऐसी उत्पादकता और जोत के आकारों से आम पर्वतीय उत्तराखंडी समुचित जीवन यापन के खर्चे कमा सकता है ? इसका उत्तर दने के लिए एक नजर मंडी केऔर न्यूनतम समर्थन मूल्यों पर डाली जाय। भारत सरकार ने वर्ष २०१५-१६ के लिए जो प्रति क्विंटल न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित किये हैं, कुछ फसलों केलिए वे हैं :-
रागी ( मंडुवा) १,६५०/- मक्का १,३२५ /- तोर ४,४२५/- उड़द ४,४२५ /- सोयाबीन पीली २,६०० /- तिल ४,७००/-
गेहूं १,४५० /- चना ३,१७५/- ( पिछला) गन्ना २३०/- सरसों ३,१००/- सोयाबीन काली २,५००/- तोड़िया ३,२००/-
अगर साल में खरीफ और रबी की दो फसलें ली जाती हैं तो एक हेक्टर (१०० नाली) जमीन से उत्पादित लगभग २५ -२८ क्विंटल धान्यों से औसत १५०० के भाव से ४२,०००/- , तिलहनो से, दालों से ३५-४०,०००/- आलू से रबी में ७०,००० /- खरीफ में ४०,००० के लगभग आय होती है। अगर कृषि उत्पादन की नयीएक्नॉलोजियों को अपनाने से उत्पादन दुगुना किया जा सके तो यह आय दुगुनी हो सकती है। कृषि की नकदी फसलों पर आधारित उत्पाादक कम्पनियों के अपनेलघु और मध्य आकार के उद्द्योग लगा कर , उत्पादों से अर्जित आय में दुगुना और इस से अधिक जोड़ सकते हैं।
ग्राहक के स्तर पर खुदरा मूल्यों की तुलना में मंडी भाव काफी कम हैं, इसका अर्थ यह हुवा की उत्पादकता बढ़ाने के साथ साथ विपणन व्यवस्था को भी सुधारनापड़ेगा जिसके बिना उत्तराखंड में कृषि को व्यावसायिक बना पाना दुष्कर कार्य है। ध्यान रहे विपणन व्यवस्था सुधार में जहां बिचौलियो की श्रृंखलाओं को कम करकेमंडी व्यवस्था को सुधारने से और उत्पादकों को प्रसंस्करण भी करने के लायक बनाना शामिल है। इस से सरकार की वैट और अन्य करों के मिलने से आय भी बढ़सकती है।
इस लिए कृषि नीति में ऐसे नए नियम लाना जरूरी है जिनसे उत्पादकों को बिन अनावश्यक मोलभाव किये, बिना शोषण युक्त विपणन व्यवस्था का शिकार हुए,उत्पादकता बढाने का ऐसा प्रोत्साहन मिले कि वे उत्पादक्ता और उत्पादन बढाने के लिए स्वयं अपनी उत्पादक कंपनिया/ NGOs बना कर,सरकारी विभागों, प्रयोगशालाओं और 'आत्मा ' संस्था का पूर्ण लाभ लेने लगें। जब ऐसा होने लगेगा तब इन उन्नत जागरूक किसानों को कृषि विज्ञान केन्द्रों और आत्मा को नयी उत्पादन/उत्पादकता/प्रसंस्करण त कनीकियों से, उन्नत बीजों से , पौधौं से, आद्रता संरक्षण तकनीकियों से, उपकरणों और अन्य निवेश सामग्रियों से और बैंकों को धनमात्रा/नियमों से पूरी तरह लैस मिलना सोने में सुगंध जैसा हो जाएगा। इसकी पहल सरकार को करनी पड़ेगी उसे, अपने संबंधित विभागों द्वारा प्रेरक, कैटेलिस्टमार्गदर्शक की भूमिका में आये बगैर कुछ भी हासिल होना सम्भव नहीं होगा। गेंद सरकार के पाले में है। नियमो ,कायदों का लाभ तभी होता है जब लाभाथियोंको सक्षम बनाने के सम्पूर्ण प्रयास भी साथ साथ होते रहते हैं।
अंत में एक रिमाइंडर : उत्तराखंड एक सीमावर्ती राज्य है, इसलिए प्रदेश को हमेशा सक्षम युवा शक्ति से भरपूर रखना परम आवश्यक है। जो यहां आकर्षक स्व-रोजगार अवसरों की भरमार पैदा करने से ही संभव है। इस के लिए लाभदायक व्यासायिक खेती ही सब से अधिक अवसर दे सकती है।
- डॉ. बलबीर सिंह रावत , ARS, रिटायर्ड प्रमुख वैज्ञानिक ( कृषि अर्थ शास्त्र ), भा. कृ. अनु. सं. संस्थान ( भारत सरकार ), सलाहकार गरीब क्रांति अभियान।
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