डॉ. बलबीर सिंह रावत।
खेती के उत्पादनों से व्यापार करके सुविधायुक्त जीवन यापन कर पाना ही व्यावसायिक खेती है। कालांतर से केवल भरण पोषण की खेती होती रही है कि परिवार को साल भर का अनाज, दूध, घी, तेल, साकसब्जी मिलती रहे और कुछ अतिरिक्त पैदा करके उसे बेच/बदल कर वे आवश्यक वस्तुएं खरीदी जा सकें जो परिवार स्वयं नहीं बनाता। आज वह परिस्तिथियां बदल गयी हैं जिनमे गुजर बसर की खेती जीवन पोषण की आवश्यक गतिबिधि नही रही। अब बिना खेती वाले ग्राहकों की संख्या और उनकी मांगो की किस्में इतनी अधिक है की उनको कृषि आधारित उत्पादों की आपूर्ति करना अपने आप में ही एक अलग बहुत बड़ा धंदा बन गया है। इसकी सम्भावनाओं को समझने के लिए केवल दो उपजें, कपास और गन्ना को उदाहरण के तौर पर देखें बात साफ़ होने लगती है की अब चाहे अनाज की ही खेती क्यों न हो, इनको भी नकदी फसलों की तरह को उगाने का जमाना आ गया है । पंजाब और हरियाण इसके उदाहरण हैं
किसी भी व्यव्साय को स्थापित करने के लिए चार बातों की जानकारी मुख्य होती है : १. स्थान विशिष्ठ में कौन सी पैदावारें किन किन मौसमों में, किन मिश्रणों मे सब से अधिक लाभदायक हैं । जैसे बहु मौसमी फल दार पेड़ , अनाज, सब्जिया , उन्नत बीज, पौध , फूल, जड़ी बूटिया इत्यादि। २. उत्पादित फसलों की उपजों के विपणन ( संकलन, भंडारण , प्रसंस्करण , वितरण ) की मात्राओं , मांगों की क्या स्तिथि है। ३. उपलब्ध बाजार ( मंडी, थोक और खुदरा ) में प्रचलिय भाव कैसे हैं। ४. उन्नत बीज व पौध की उपलब्धि , लगाने /देखरेख की तकनीकें, निवेश के अन्य संसाधन जैसे, बैंकों से कर्जे , सरकारी अनुदान/सहायता , सिंचाई, खाद ,कीट नाशक, भंडारण और विपणन की संस्थाओं और उत्पादकों के सम्बन्ध , सरकारी मार्गदर्शन, प्रोत्साहन, सहायता, सरकारी/ सहकारी/ निजी प्रसंस्करण उद्द्योगों के प्रकार और हालात इत्यादि बाह्य माहौल की जानकारी भी आवश्यक है। क्या उत्तराखंड में जैविक गेहूं, चावल, कोदा , झंगोरा की व्यावसायिक खेती अघिक लाभ दायक सिद्ध होगी या अन्य अधिक मूल्यवान फसलों की ? जैसे, उड़द, गहथ, तोर , सोया बीन , तिल, सरसों ,राजदाना ( मरसा के बीज ), नाना प्रकार के फल, फूल, जड़ी बूटिया, बे मौसमी सब्जियां और अन्य नयी उपजें, जैसे बादाम, जैतून, अंजीर , केसर, मशरूम इत्यादि। इनके साथ साथ क्या मिश्रित खेती से दूध, ऊँन, शहद ,अण्डों और मांस के लिए पौल्ट्री , बकरी , मछली पालन के बड़े व्यवसायी स्तर पर उत्पादन करना और उत्पादकता बढ़ाना। इन उत्पादों का संकलन , उनकी आयु बृद्धि/संरक्षण/भंडारण तथा सुलभ लदान ढुलान के लिए पूर्व प्रसंस्करण करने के घरेलु उद्द्योग लगाना सम्भव है ?
--डॉ. बलबीर सिंह रावत ARS , अवकास प्राप्त प्रमुख वैज्ञानिक, भा, कृ. अनु. परि। .
उपरोक्त प्रश्नो के उत्तर मिलने तो चाहिए थें राज्य के कृषि विभाग के ऐसे प्रकाशनों से जिनको पढ़ कर गांव के किसान अपना भावी मार्ग निश्चित करते जैसा कि ,उदाहरण के लिए , पोर्तोरिको सरकार ने १९४० से शुूरू किया। उसको आंकड़ों से पता चला की अगर सारी खेती योग्य भूमि में खाद्य फसलें उगाई जायंगी तो पूरी आवादी का पेट भी नहीं भरा जा सकेगा। इसलिए नकदी फसलों को उगाने का निंर्णय लिया गया। गन्ना , तम्बाकू और संतरा जाती के फल सब से अधिक लाभकारी लगे तो बिभिन्न व्यापारिक बाधाओं/ बंधनों के होते हुए,अमेरिका के बाजारों में आपूर्ति शुरू की।आज वहाँ के किसानों को आकर्षक आय तो होती ही है, अकेले गन्ने की फसल से आवादी का एक बहुत बड़ा भाग रोजगार भी पाता है।
इसकी तुलना में ,हमारी उत्तराखंड की सरकार ने २०१५ तक क्या किया ? पढ़िए एक ओरोजिनल सरकारी पोस्टिंग :-
The state's economy is one of the fastest growing in recent times. Agriculture is the most significant sectors in Uttarakhand. Rice, soybeans, wheat, groundnuts, pulses, coarse cereals and oil seeds are mainly grown crops. Apples, pears, oranges, peaches, plums and litchis are widely grown and are an important part of the food industry. The main cash crop of the state is sugarcane. The state has high expectations in becoming a striking tourist destination. Tourism is also coming up in the region and contributes in the annual earnings. This sector needs to be explored more and the state needs to invest more in tourism. Another sector where the state need to progress is the agro industries as this will help boost its revenue.
( अनुवाद मेरा :- राज्य की अर्थ व्यवस्था आजकल सबसे अधिक बढ़ने वालों में से एक है। उत्तराखंड में कृषि सबसे अधिक महत्वपूर्ण सेक्टरों में से एक है। चावल ( धान लिखना चाहिए था ) सोया बीन , गेहूं, मूंगफली, दालें, मोटा अनाज , तिलन मुख्य रूप से उगाई जाने वाली फसलें हैं। सेव, नासपाती, सनत्रे, आड़ू, आलूबुखारे और लीची बहुतायत से उगाये जाते हैं और राज्य के खाद्य उद्द्योग के महत्वपूर्ण भाग हैं। राज्य की प्रमुख फसल गन्ना है। राज्य को बहुत बड़ी आशा है कि वह पर्यट्न का आकर्षक स्थल बनेगा। टूरिज्म बढ़ रहा है और राज्य की आय बढ़ाने में भागीदारी कर रहा है। इस सेक्टर को और अधिक एक्सप्लोर करना है , राज्य को चाहिए इसमें अधिक निवेश करे। दूसरा सेक्टर जिसमे राज्य को विकास करने की जरूरत है वह है कृषि आधारित उद्द्योग जो राज्य की आय बढ़ा सकते हैं )
बहुत प्रयासों के बाद भी मैं पता नहीं चला पाया कि उत्तराखंड की सरकार के और किसी भी संस्थान के प्रकाशनों में कोई ऐसे मार्गदर्शिका गाइड है जिसे पढ़ कर कोई अपने
इलाके में वावसायिक खेती के लिए उचित दिशा निर्देश ले सके। यहाँ तक की प्रदेश का कोई ऐसा विस्तृत कृषि नक्शा भी नहीं है की कहाँ क्या विशेष रूप से पैदा होता है। इसके
लिए जिलास्तर में सम्बंधित विभाग और भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद के १३ कृषि विज्ञान केन्द्र हैं। इन कन्द्रों के आदेशित उद्द्येश्य निम्न है :-
१. स्थाननीय भूमि उपयोग प्रणालियों के अनुरूप फसलें उगा कर उन्नत टेक्नॉलोजिया विकसित करना ,
२. प्रसार कार्मिकों को विकसित हो चुकी नयी कृषि सम्बन्धी टेक्नॉलॉगिए के कौसाः और हुनर का प्रशिक्षण देना
,
३. ग्रामीण युवाओं के लिए अल्प कालेन और दीर्घ कालीन विभिन्न वोकेशनों में 'काम करो और करते हुए सीखो ' की तर्ज पर प्रशिक्षण देना ,
४. बिभिन्न कृषि व्यवसायों में " प्रथम पंक्ति ' की तकनीकियों के प्रदर्शन करके उनकी खूबियां दिखाना, आंकड़े और सूचनाएं एकत्रित करना और उनके विश्लेषणों का उपयोग
अगले कदमों को परिष्कृत करने में करना।
इन कृषि विज्ञान केन्द्रों का संचालन गोबिंद बल्लभ पंत कृषि विश्व विद्यालय ( ११ ) और विवेकानंद कृषि अनुसंधान संस्थान (२ ) के जिम्मे है। उद्द्येश नं.२ में प्रसार कर्मियों
का जिक्र है। कौन हैं ये प्रसार कर्मी ? ये नेहरू जी के ज़माने के सामुदायिक विकास खण्डों के एडीओ और ग्राम सेवक थे ,जिन्हे कालांतर में लील लिया गया और उनके स्थानों
में आये गैर सरकारी संस्थाएं ,NGOs, कृषकों के संगठन, पंचायत राज के जनसंघठन , अर्ध प्रसार कार्मिक, कृषि व्यवसायी ,निवश आपूर्तिकर्ता ,कार्पोरेट सेक्टर के
संबंधितलोग। इन सब को आत्मा कैफेटेरिया २०१० का नाम दिया गया और इन्हें कृषि टेक्नॉलॉजी प्रबन्ध एजेंसी, आत्मा, के संचालन में रक्खा गया।
आज उत्तराखंड में २४ स्थानों में ५३२ गैरसरकारी संगठन, NGOs , पंजीकृत हैं, इन में से कितने ग्रामीण विकास और कृषि क्षेत्र में सक्रिय हैं , अलग से लिस्ट नहीं है। लेकिन वे
अगर सक्रिय भी हैं तो " खद्योत सम " यंह वंह ही टिम टिमा रहे होंगे ' अब समय आ गया है की गरीब क्रान्ति संगठन गांवों में " ग्रामीण विकास गैर सरकारी संगठन NGO
ग्राम …… .... " के नाम से पंजीकृत करवा के उन्हें आत्मा और कृषि विज्ञान केन्दों से जोड़े और व्यावसायिक खेती की क्रांति उत्तराखंड में ला दे।
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