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Monday, November 17, 2014

हरिद्वार क्षेत्र में उत्तर -प्रस्तर उपकरण युग

History Perspective , Haridwar , Uttarakhand in Neolithic Age
                                       हरिद्वार क्षेत्र में उत्तर -प्रस्तर उपकरण युग 
                                    हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास -भाग 5  

                                                      History of Haridwar Part -5 

                              
                                                  इतिहास विद्यार्थी : भीष्म कुकरेती
  उत्तर प्रस्तर उपकरण युग 15 000 -2 000 BC के करीब माना जाता है। 
इस युग की कुछ विशेष विशेषतायें निम्न हैं -
१- पशु पालन  प्रारम्भ 
२- कृषि की शुरुवाती युग 
३-चिकने , चमकीले व पोलिस किये प्रस्तर उपकरण 
४- भांड उपकरणों की शुरुवात 
      उत्तर अफ्रिका और दक्षिण एशिया में तापमान वृद्धि से वर्षा कम होनी लगी और मानव नदी घाटी की ओर पलायन करने लगा। पानी की कमी से मानव के लिए जंगलों में भोजन की कमी होने लगी तो उसे कृषि  पशुपालन जैसे कर्म की ओर अग्रसर होना पड़ा। 
 अब प्रस्तर उपकरणों में कला , व सुविधाएँ विकसित होने लगे।  उपकरण चिकने , चमकीले, हल्के , सुविधाजनक , कलायुक्त होने लगे. पत्थर के औजारों में कुल्हाड़ी , छेनी , हथौड़े , गंडासे , खुरपा , कुदाल आदि विकसित हो गए। 
                                 पशुपालन का प्रारम्भ 

 विद्वानो का मानना है कि मनुष्य ने उपयोगी व पालतू होने लायक पशुओं -पक्षियों  कर ली थी. विद्वानो की धारणा  है कि पशु पालन की शुरुवात नील घाटी , सिंधु घाटी में ना होकर मध्यवर्ती पहाड़ियों हुआ था (कून -रेसेज ऑफ यूरोप 79 )। अबीसीनिया , यमन , अनातोलिया , ईरान अफ़ग़ानिस्तान , जम्मू कश्मीर से लेकर पश्चमी नेपाल तक उत्तर प्रस्तर उपकरण संस्कृतिसमुचित विकास हुआ। 
          डा डबराल का कथन है कि   हिमालय , शिवालिक की कम ऊँची पहाड़ियों , हरिद्वार -बिजनौर के आस पास की पहाड़ियों आज भी जंगली बिल्लियाँ , वनैले भेड़ -बकरी , जंगली कुत्ते मिलने से सिद्ध होता है कि हरिद्वार -बिजनौर के आस पास के क्षेत्रों , हिमालय में उत्तर प्रस्तर संस्कृति  प्रसारित हुयी होगी।  जगंली जानवरों के फोजिल्स भी सिद्ध करते है की मध्य हिमालय , शिवालिक पर्वत श्रेणी में उत्तर प्रस्तर उपकरण संस्कृति थी।  सहारनपुर क्षेत्र में हड़पा /सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष भी यही बताते हैं कि हरिद्वार जिले में भी उत्तर प्रस्तर सभ्यता थी।  आदि मानव शिवालिक श्रेणी में विचरित करता था। सी पी वर्मा द्वारा पत्तियों के फोजिल्स खोज से भी अंदाज लगता है कि हरिद्वार क्षेत्र में उत्तर -प्रस्तर उपकरण संस्कृति फलती फूलती थी (Journal of Paleont Soc India 1968 , )
 
  अग्नि उपयोग भी मनुष्य ने इसी युग में सीखा और कृषि भी इसी युग में शुरू हई।
  आग से जगल जलाकर  वर्षा व बाढ़ से स्वतः उतपन उर्बरक जमीन में भोज्य पदार्थों के बीजों को बिखेरकर कृषि की जाने लगी जो हरिद्वार क्षेत्र में भी अवश्य अपनायी होगी। 

                       रिद्वार क्षेत्र में भी उत्तर प्रस्तर उपकरण   सभ्यता में नारी का परिश्रम 
उत्तर प्रस्तर उपकरण सस्ंकृति में भी नारी का कार्य आज जैसे ही परिश्रमपूर्ण था।  नारी झोपडी में आग सुरक्षित रखती थी।  नारी मृतिका /मिट्टी या काष्ठ पात्र बनाती थी। शायद नारी ने ही मृतिका पात्र का आविष्कार किया होगा।  नारी काष्ट , हड्डियों अथवा पत्थर के औजारों से फल तोड़ती थीं , कंद मूल फल उखाड़ती थी। पुरुष आखेट , पशुओं का डोमेस्टिकेसन , पशुओं की शत्रुओं से रक्षा करता था।  मातृपूरक समाज की नींव भी इसी युग में पड़ी होगी। नारी परक संस्कृति से  हरिद्वार क्षेत्र भी अछूता ना रहा होगा।  देव पूजा का प्रचलन होने से नारी ही पूजा पाठ करती रही होंगी। 
                                          वनस्पति व जंतु
कंद मूल फलों , साक सब्जियों  प्याज , बथुआ , ,  कचालू ,अरबी , खीरा , चंचिड़ा , नासपाती , अंगूर , अंजीर , केला , दाड़िम , खुबानी , आरु , बनैले रूप में हिमालय की ढालों पर कश्मीर से उत्तराखंड से लेकर नेपाल तक आज भी मिलते हैं.  गेंहू , जौ व दालों की कृषि भी विकसित हो चुकी थी। 
पालतू पशुओं को सुरक्षित रखने के लिए टोकरियाँ , रस्सी आदि का भी  विकास हुआ।  धनुष बाण का अविष्कार , परिष्कृतिकरण भी हुआ।  पशुओं की खालों से तन भी ढका जाता था। कालांतर में उन के कपड़े भी बनने लगे।  जो भी पशु इस युग में पालतू किये गए उसके बाद कोई नया पशु आज तक मनुष्य पालतू न बना सका। 
                                            बस्तियां और युद्ध 
आग , कृषि व पशुचारण  से नदी घाटियों में बस्तियां बस्ने लगीं।  नहरों के विकास ने सहकारिता की नींव भी डाली। 
किन्तु साथ में समृद्धि , व्यापार व नारी हेतु युद्ध अधिक होने लगे। कलह आम संस्कृति होने लगी। 
समृद्ध व् अकिंचन की शुरुवात भी इसी युग में पड़ी।  दास वृति मनुष्य विक्री भी इसी युग की देंन है।  
पलायन जोरो से हुआ और एक वंश के  दूसरी जाति  के साथ रक्त मिश्रण आम बात हो गयी।  
       
  उत्तराखंड के हरिद्वार ,  भाभर भूभाग व बिजनौर का इस युग पर अन्वेषण कम ही हुआ अतः कहना कठिन है कि उत्तर प्रस्तर उपकरण युग में इन स्थानो पर किस  नृशाखा के बंशज हरिद्वार , देहरादून , भाभर , बिजनौर क्षेत्र में विचरण करते थे और उनके धार्मिक , सामाजिक  संस्कृति क्या थी ।  

Copyright@ Bhishma Kukreti  Mumbai, India 17/11/2014 

History of Haridwar to be continued in  हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास -भाग 6       

(The History of Garhwal, Kumaon, Haridwar write up is aimed for general readers) 
                   संदर्भ 
१- डा शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास भाग - 2 
२- पिगॉट - प्री हिस्टोरिक इंडिया पृष्ठ - २२
३- नेविल , 1909 सहारनपुर गजेटियर 

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