चकड़ैत ::: भीष्म कुकरेती
पाराशर जी, जयाड़ा जी !
हे गढ़वळि साहित्यकारों !
सम्नैन , तुमारी देळी भरीं रैन, लोखरौ-दबल (तिजोरी) भर्यां रैन, तंदुरस्ती खूब भली रावो , घरवाळी, नौन्याळ अर नाती नतण्या सुखी रैन !
परासर जी ! तुमन अपणि कविता चौकसी या जगवाळ क बार मा लिखी बल जन की बल अख्बरून मा लंगूर लिख्युं थौ त तुमन गुणीs जगा लंगूर लेखी दे--- कविता मा ।
ये म्यार भूभरड़ो ! भोळ जु अखबार रैबार /खबर मा ल्याख्ल बल "चातक पाणी पी रही थी" , अर कविता मा लिख्ल्या बल अस्वाळस्यूं मा चातक पाणी पीणी छे तो आप त चोळीs जान ल़े लेल्या भै। इनि तुम त पैथर तैं पैथर करी देल्या अर बाद तैं आगे करी देल्या भै !
पौणु तैं तुम मेहमान बणे देला त गढवाळी साहित्य मा मेहमान गद्दी मा बैठ्याँ राला अर हमर अपणा पौण बिचारा घराती जन घरात्युं चिलम भरणा राला . ब्याळि इ अस्वाल्स्युं बटिन रैबार ऐ गे बल अब गूणी सरा अड़गें (क्षेत्र) मा घ्याळ लगाणा छन बल उ तैं लंगूर इ बोले जावू, जु ऊं खुणी गूणी बवालल याइ तैं जयारा जी क पर्वतजन खतम करी द्याला ।
इनि जब यज्ञोपवित जन्द्यौ ल़ीण की जगा लेलु त जन्द्यो त फांस इ खै देलो . . कूल नहर मा बदली जालि त कुज्याण भि कुज्याण गढवाळी साहित्य मा नहरूं मा जल ही जल होलू अर हमारी कूल निर्जला क बरत धरण बिसे जालि . जब हमर कुड़ मकान बणो जला त सैत च इ मकान बगैर छत का इ होला । जब हम लिख्वार अर तुम सरीका साहित्यकार गढवाळी साहित्य मा दुल्हन तै सजैल्या अर डोली मा बैठैल्या त ब्योली बिचारि ड्वाला मा इ रंडे जालि ।
जब गढवाली का प्रबुद्ध साहित्यकार चारपाई मा बैठण लगी जैल्या त गढवाळ अर गढवाळी का खटला सिर्फ मुर्दों ल्हिजाणा काम आला अर फिर मड़घट मा मुडै गढवाळी खटलों तैं मुर्दा दगड चिता मा जळै द्याला। खटला कु स्वाहा ह्व़े जालो अर चारपाई साहित्यौ मकान मा आनन्द से राली ।
जब गढवाली का बुद्धिजीवी साहित्यकार गाय तैं दुहने लग जाला त दुधाळ गौड़ी बि बैल गौड़ी इ ह्व़े जालि । जब गढवाळी साहित्य औ खेतों मा बैल अर बछडे हल और पाटा चलाल त गढवाळी क बल्द अर बौड़ बुचडखाना जोग ही होला की ना अर हौळ , ज्यू , नाड़ , निसडु सब जळ जाला
जब गढ़वाली साहित्यकार उत्तरप्रदेश या उत्तराखंड सरकार का बुल्युं मानिक घोड़ाखाळ तैं घोड़ाखाल , रीठाखाळ तैं रीठाखाल अर छाळु पाणि तैं छालु पानी लिखण मिसे जाल तो साहित्यिक कूड़ कु छालु ?
ठीक च गढवळि साहित्य कु भंडार भरण चयेंद पर कौश्यला जन पुराणा शब्दों जगा कैकेयी जन नया श्ब्दुं तैं महत्ता दीण ठीक च ?
मरखुड्या बल्द तैं तुम बिजनौर जोग करिक मरखना बैल से गढ़वळि साहित्यिक सारी बाण लग जैल्या तो पहाड़ी बल्दुं नसल ही निबट जाली , कबि स्वाच च तुमन साहित्यकारों ?
तड़क्वणि तैं तुम मूसलाधार बर्षा बतैक गढ़वळि साहित्य मा गढ़वळि शब्दुं को सूखा किलै पैदा करणा छंवां भै ?
भौत साल पैल जब हमर हथ खुट मुड़दा छा तो हम बुल्दा छ घुंग्यस्यों (घुंग्यासि से बण्युं शब्द ) पर हमर साहित्यकारोंन जब से अपण कपाळ पर हिंदी की बिंदी क्या लगाई हम घुंग्यासु , घुंग्यासो , घुंग्यासि शब्द या घुंजकूड़, घुंजबैठण , घुंजेण शब्दों से परेज इ नि करणा छंवां बल्कण मा हमन इ शब्द आर्कियोलॉजी म्यूजियम मा धौर देन।
अब हमर गढ़वळि साहित्यकार मधुमखियों का समूह से प्रेम करदन अर म्यारुं घाण से बितकदन अर वांपर कुतर्क कि हम गढ़वळि शब्द भंडार भरणा छंवां।
अब गढ़वळि कवितौं मा बाघ गरजता है अर पता नि कै जंगळ मा बाग़ घिमकणि मार्दू धौं !
अजकाल साहित्य मा गिताड़ गजेन्द्र राणा उत्तेजित करदो पैल बादी इन गीतूं से चचकौंद छौ।
पैल अनपढो पर चरक -फरक रौंदी छे किंतु अब गढ़वाली साहित्यकार चतुराई दिखाँदन
गढ़वळि शब्द भण्डार भरणो यु अर्थ त नी च कि पुराणा शब्दों क़त्ल कारो, ऊँ तैं बिसर जावो अर ऊँक जगा नया शब्द लाओ ? Copyright@ Bhishma Kukreti 2011
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