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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Monday, November 17, 2014

हरिद्वार की प्रस्तर उपकरण सभ्यता

History of Stone Age in Haridwar 

                                 हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास -भाग 2  

                                                 History of Haridwar Part -2 

                              
                                                  इतिहास विद्यार्थी : भीष्म कुकरेती
     अनुमान किया जाता है कि धरती के कुछ भागों में मानव की वह अवस्था छ लाख साल पूर्व थी जब मानव चलने -फिरने और बानी -बोली का प्रयोग सीख चुका था (पिगॉट )
 प्रस्तर उपकरण संस्कृति का आरम्भ मिश्र को माना जाता है जहां छै लाख साल पूर्व मानव ने सभ्यता के सोपान शुरू कर दिए थे । फ़्रांस व इंग्लैण्ड में यह सभ्यता साढ़े चार लाख साल पहले आई।  तब से लेकर सात हजार साल पहले तक और कुछ भागों में साढ़े तीन हजार साल पहले तक मानव प्रस्तर उपकरण संस्कृति तक ही सीमित रहा। इस लम्बे युग में जहां जहां मानव सभटा पनपी यह सभ्यता पथरों के उपकरणों का प्रयोग करती रही।  
      पाषाण युग  में मानव पत्थरों के उपकरणों से काम चलाता था और  मानव श्रेणी में आ गया था। साढ़े चार हजार साल पहले मनुष्य ने धातु उपकरण अपनाने शुरू किये। 
  पाषाण युग को इतिहासकार तीन युगों में बांटते हैं -
 १- आदि प्रस्तर उपकरण युग (Palaeolithic Age )- पचास हजार साल पहले से एक लाख साल पहले 
२- मध्य प्रस्तर उपकरण युग (Mesolithic Age )
३-उत्तर प्रस्तर उपकरण युग (Neolithic Age )

                           हरिद्वार की आदि प्रस्तर उपकरण सभ्यता    (पचास हजार साल पहले से एक लाख साल पहले  )              

  जब हिमयुग समाप्त हुआ और शुष्क युग प्रारम्भ हुआ तो भारत के मैदानी इलाका मानव जीवन के लिए उपयुक्त स्थान साबित हो  चुका था।  हरिद्वार के बहादराबाद प्रस्तर युग के कई उपकरण मिले हैं (घोष ) जिनसे पता चलता है कि पत्थर युग में सहारनपुर , भाभर , बिजनौर में प्रस्तर युग में मानव सभ्यता थी।  इसी तरह के उपकरण राजस्थान , गुजरात , नर्मदा व सहायक नदी घाटियों में भी मिले हैं।  यद्यपि धरातल की ऊपरी सतह में मिलने के कारण  यह अनुमान लगाना कठिन सा है कि  उपकरण सचमुच में किस युग के हैं।  
  इस युग में बड़े अश्व , हाथी और हिप्पोटौमस नर्मदा घाटी में विचरण करते थे। 
  उपरोक्त पशुओं के आखेट करने मनुष्य के अस्तित्व के प्रमाण बहादराबाद हरिद्वार (घोष ); शिवालिक व हिमालय  ऊँची ढालों पर , पंजाब में सोननदी के पास ,करगिल व नमक की पहाड़ियों के पास भी मिले हैं (डबराल ).  घोष ने बहदराबाद में मिले कुछ उपकरणों के चित्र भी अपनी पुस्तक में दिए हैं।
डा डबराल ने हरिद्वार की प्रस्तर संस्कृति का मिलान सोनंनदी संस्कृति (रावलपिंडी पाकिस्तान , पंजाब ) , भाखड़ा की प्रस्तर संस्कृति , हिमाचल की प्रस्तर संस्कृति से की व लिखा कि यह सभ्यता उत्तर पश्चिम पंजाब से लेकर जम्मू , सिङ्गमौर (मिर्जापुर , उ प्र  ), हिमाचल उत्तराखंड तक फैला था. 
       बहादराबाद -हरिद्वार उपकरणों में फ्लैक्स , स्क्रैपर्स , चॉपर्स , व अन्य स्थूल उपकरण , छुरिया , ताम्बे के भाले , बरछे , हारपून , मिलने से अंदाज लगाया जा सकता कि हरिद्वार में मानव वस्तियाँ प्रस्तर काल से लेकर धातु काल तक निरंतर बनी रहीं। ये उपकरण सतह से 23 फिट नीचे मिली हैं।  
                                                             हरिद्वार में  सोननदी सभ्यता में मानव प्रसार 
      यदि हरिद्वार (गंगाद्वार ) व सोननदी पंजाब (रावलपिंडी ) की संस्कृतियों  समयुगीन माना जाय तो उत्तराखंड के भाभर , बिजनौर की पाषाण युगीन सभ्यताओं की वही विशेषतायें रहीं होंगी जो सोनघाटी की सभ्यता के रहे होंगे। 
   अनुमान जाता है कि प्रस्तर युगीन मानव संभवतः दक्षिण भारत से उत्तर की ओर अग्रसर हुआ।  यह मानव दक्षिण से उत्तर पश्चिम पंजाब (पाकिस्तान ) की कम ऊँची ढलान पर बसा होगा जहां सिंधु , झेलम , हरो सोन नदियां बहती हैं। इस युग का मानव रावलपिंडी क्षेत्र से कश्मीर होकर , हिमाचल , सहारनपुर और फिर उत्तराखंड पंहुचा होगा और फिर उत्तराखंड की दक्षिणी ढलान क्षेत्र में बस गया होगा।  आखेट आदि से वह अपना जीवन निर्वाह करता चला गया होगा। 
      अनुमान किया गया है कि सोननदी सभ्यता अधिक से अधिक चार लाख पुराने व कम से कम दो लाख साल पहले रही होगी।
   ऐसा लगता है कि इस दौरान कई मानव शाखाएं समाप्त हुयी होंगी और अगण्य नई मानव शाखाये आई होंगी।
      
                                                 सोननदी सभ्यता के उपकरण 
          हरिद्वार , भाभर व बिजनौर में अवश्य ही सोननदी सभ्यता थी।  हिमालय की इन निचली जगहों /पहाड़ियों के सोननदी सभ्यता के मानव के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है।
           हरिद्वार (उत्तराखंड ) का प्रस्तर युगीन मानव क्वार्टजाइट शिलाओं से अथवा नदी तट पर प्राप्त गोल (ल्वाड़ ) पथरों से अपने उपकरण बनाता था।  इन उपकरणों को फ्लैक कहा जाता है।  . इस प्रकार के फ्लैक्स  बनाने के लिए शिला को तब तक तोड़ा जाता था जब तक वांछित आकार  का उपकरण न बन जाय। इसी तरह चॉपर्स बनाने का भी अनुशंधान हुआ। चॉपर्स कठोर शिलाओं से बनाये जाते थे। 
     धीरे धीरे मानव ने काटने छीलने हेतु स्क्रैपर्स उपकरण बनाना भी सीख लिया।  बहादराबाद हरिद्वार में प्राप्त  स्क्रैपर्स सोननदी के स्क्रैपर्स से मेल खाते हैं। 
              स्क्रैपर्स के बाद गंडासे जैसे उपकरण बनाये गए होंगे जो मांश , कंद मूल  काटने के काम आते रहे होंगे।  गंगाद्वार (हरिद्वार ) में प्राप्त गंडासे की अगली ओर की  पतली धार पर आरी जैसे दांत भी बने हैं (डा डबराल ) जिसका उपयोग बोटी काटने के लिए किया जाता रहा होगा । पश्च भाग मोटा व गोल था जिसे हथोड़े के समान भी प्रयोग किया जाता रहा होगा। 
     गंगाद्वार (हरिद्वार ) में प्राप्त पाषाण गंडासे की लम्बाई पांच छह इंच है जिससे अनुमान लगता है की हरिद्वार के मानव ने हथियार पर बेंट लगाने की कला भी सीख ली थी।  
            सोनघाटी व हरिद्वार से मिले पाषाण उपकरण प्राचीनतम , भद्दे व बेडोल तरह के थे।  
   हरिद्वार के मानव के लिए उपरकन बनाने के लिए पाषाण , जंतु हड्डी व काष्ठ सुलभ था। हरिद्वार में काष्ट अथवा हड्डी के उपकरण ना मिलने का कारण है कि वे लम्बी अवधि में नष्ट हो गए होंगे।  

 



Copyright@ Bhishma Kukreti  Mumbai, India 14/11/2014 
History of Haridwar to be continued in  हरिद्वार का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास -भाग 3      
 
(The History of Garhwal, Kumaon, Haridwar write up is aimed for general readers) 
                   संदर्भ 
१- डा शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास भाग - 2 
२- पिगॉट - प्री हिस्टोरिक इंडिया पृष्ठ - २२
३- अमलनंदा  घोष , ऐन इनसाइक्लोपीडिया ऑफ इण्डिएन आर्कियोलॉजी ,पृष्ठ -37 -38 

   
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