डा . बलबीर सिंह रावत (देहरादून )
देश के विकास के साथ साथ व्यक्तियों की आर्थिक स्थिति भी सुधरती है तो आराम दायक वस्तुओं की मांग भी बढ़ती है। ऊनी वस्त्र , और वह भी मुलायम, गुदुगुदा देने वाली ऊन के बने, अधिक मांग में होते हैं। यह भी एक तथ्य है कि जब मनुष्य ने अपना अंग ढांकना शुरू किया तो पत्तों के बाद ऊनी वस्त्र से ही ढांकना शुरू क्या था। शुरू की उन, जैसी मिली वैसी ही , उसी प्राकृतिक रंग में प्रयोग में लाई जाती थी, जैसी वह उन देने वाले जानवरों में मिलती थी . धीरे धीरे मनुष्य ने पहिचाना कि भेड़ से ही सबसे अच्छी उन मिलती है, ऊंचाई वाले ठंडे इलाकों में बकरियों से भी बहुत ही मुलायम उन मिलती है. मनुष्य ने यह भी सीखा कि पालतू जानवरों के नियंत्रित और निर्धारित प्रजनन से ऐसी नश्लें पैदा की जा सकती हैं जिन से मनचाही गुणवता का,बढा कर,उत्पादन लिया जा सकता है. उसने रेशों के प्राकृतिक रंगों को मिटाने, और मन चाहे रंगों में रंगनेकी प्रणालियाँ ढूंढ निकालीं ,कतायी बुनाई के परिष्कृत तरीके और मशीनें बना कर वस्त्र उद्योग को ऐसी ऊँचाइयों पर पहुंचा दिया है जिसके उत्पाद महंगे होते हुए भी , अपनी उपयोगिताओं के कारण , हमेशा मांग में रहते हैं. वास्तव में बिना ऊनी कपड़ों के तो आधुनिक जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। सारे अच्छे सूट, जिनको पहिनना एक पहिचान बन गयी है उन से ही बने होते हैं.
इसी उन को पैदा करने लिए भेड़ पालन किया जाता है। एक ज़माना था जब गौचर में मेला लगता था और उसमे स्थानीय और तिब्बती व्यापारी तरह तरह ऊनी सामान लाते थे और देश भर के व्यापारी इन्हें खरीदने इस मेले में पहुँचते थे , पैदल , तब मोटर सड़कें नहीं थीं . उत्तराखंड के उत्पाद भी होते थे, स्थानीय भेड़ पालकों के घरों में बने हुए। देश की आजादी के बाद, स्थानीय भेड़ों की नस्ल सुधरने के लिए भी और उन्नत किस्म की भेड़ों की संख्या बढाने के लिए भी, विदेशों से मरीनो नस्ल की भेड़ों को आयात किया गया, इनकी लोकप्रियता बढी, भेड़ पालकों ने उत्साह दिखाया . काफी समय बाद, तिब्बत से महीन उन वाली हजारों बकरियों को ले कर कई तिब्बती उत्तराखंड में आये , इन दुर्लभ बकरियों की प्रजाति को बढाने के लिए सरकार ने जिमा उठाया. साथ साथ अंगोरा खरगोशों की रेशम सी मुलायम उन ने भी उन उद्द्योग को आकर्षित किया। इस प्रकार कच्ची उन के उत्पादन के लिए उत्तराखंड के पास तीन जानवर नस्लें उपलब्ध हुईं।
लेकिन ऊन उत्पादन का व्यवसाय उस गति से नहीं फ़ैल पाया कि भेड़, खरगोश और बकरी पालकों तथा जानवरों की संख्या तेजी से बढ़ पाती। इसका मुख्य कारण रहा कि कच्ची उन को उन्नत वस्त्रों, धागों में परिवर्तित करने की एक भी आधुनिक तकनीक वाली इकाई कहीं भी इस प्रदेश में आज तक भी नहीं लगी है. सारा उद्द्योग हस्त करघा और कुटर उद्द्योग के हवाले कर दिया गया, और इस लघु उद्द्योग क्षेत्र के लिए कोइ ऐसी नयी तकनीकी, नया हुनर, नहीं लाया गया जो अन्य जगहों में मशीनों से बने ऊनी उपभोक्ता उत्पादों की गुणवता और मूल्यों की बराबरी कर सकते। इसका यह प्रतिफल मिला भेड़ पालन इतना लाभ न दे पाया जितना उसकी संभावनाओं में था। और यह प्राचीन उद्द्योग प्राचीन ही रहने दिया गया।
किसी भी कृषि/पशुपालन के काम को अगर व्यवसायिक स्तर पर पहुंचाना है तो तीन महत्वपूर्ण काम एक साथ करने जरूरी होते हैं, यह हैं : १. उत्पादन और उत्पादकता को निरंतर बढाते रहने का वातावरण, २. उपलब्ध कच्चे माल का इतना आकर्षक मूल्य जो उत्पादकों को प्रोत्साहित करता रहे , और ३. बढ़ती आपूर्ति की खपत के लिए आधुनिक तकनीकी से लैस, ऐसा उद्द्योग जो श्रेष्ट बाजारों में गुणवता और मूल्य के क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा जीत सके. जो कच्चे माल की बढ़ती आवक के साथ साथ अपनी क्षमता को भी बढाता रहे.
उन के सन्दर्भ में ऐसी पहल कौन करेगा? क्या अकेला भेड़ पालने वाला गडरिया ?, मुनाफे के उद्देश्य वाला निजी क्षेत्र का उद्द्योग पति?, खादी और ग्रामीण उद्द्योग बोर्ड , जिसके साधारण सी गुणवता वाले उत्पाद केवल गांधी जयंत्री के अवसर पर भारी रियायत दे कर बिक पाते हैं? या एक ऐसी सम्वेदनशील सरकार, जो इस महत्वपूर्ण व्यवसाय को वास्तव में आधुनिक और उन उत्पादक हितैषी बना कर उत्तराखंड को दुनिया की उने वस्त्र उद्द्योग के नक़्शे में लाने की इच्छुक हो? पहल तो सरकार को ही करनी पड़ेगी लेकिन भेडपालकों को साथ लेकर.
सब से पहिले, पारंपरिक भेड़ पालन क्षेत्रों के भेडपालकों को सन्गठित करके, उनको अच्छी नस्ल की भेड़ों से प्रजनन सुविधा दे कर, चरागाहों को पुनर्जीवित करके, उन्नत नस्ल के भेड़ों, उन वाले बकरियों और अंगोरा खरगोशों के बृहद स्तर पर पालने को प्रोत्साहित करने के सारे उपाय सघन रूप से उपलब्ध किये जांय ताकि प्रति गाँव से इतनी अच्छी किस्म की उन मिल सके जिस से एक मध्य आकार की आधुनिक ऊनी कपड़ा मिल लाभ कमाते हुए चल सके. यह मिल अगर उन उत्पादकों की सहकारी समिति की, खादी और ग्रामोद्योग बोर्ड की या फिर भेड़ पालकों को भी शेयर धारक बना कर बनी हो तो उन उत्पादन हमेशा लाभ दायक व्यवसाय बन सकता है.
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