( उत्तराखंड के भोज्य पदार्थ , गढ़वाल के भोज्य पदार्थ , कुमाऊं के भोज्य पदार्थ, उधम सिंह नगर कुमाऊं केभोज्य पदार्थ, पिथौरा गढ़ कुमाऊं के भोज्य पदार्थ, द्वारहाट कुमाऊं के भोज्य पदार्थ,बागेश्वर कुमाऊं के भोज्य पदार्थ, चम्पावत कुमाऊं के भोज्य पदार्थ, अल्मोड़ा कुमाऊं के भोज्य पदार्थ, नैनीताल कुमाऊं के भोज्य पदार्थ, पौड़ी गढ़वाल के भोज्य पदार्थ, चमोली गढ़वाल के भोज्य पदार्थ, रुद्रप्रयाग गढ़वाल के भोज्य पदार्थ, टिहरी गढ़वाल के भोज्य पदार्थ, उत्तरकाशी गढ़वाल के भोज्य पदार्थ, देहरादून गढ़वाल के भोज्य पदार्थ, लैंसडाउन गढ़वाल के भोज्य पदार्थ लेख माला )
डा. बलबीर सिंह रावत
कंडली, ( Urtica dioica), बिच्छू घास , सिस्नु , सोई , एक तिरिस्क्रित पौधा, जिसकी ज़िंदा रहने की शक्ति और जिद अति शक्तिशाली है.क्योंकि यह अपने में कई पौष्टिक तत्वों को जमा करने में सक्षम है, हर उस ठंडी आबोहवा में पैदा हो जाता है जहाँ थोडा बहुत नमी हमेशा रहती है. उत्तराखंड में इसकी बहुलता है, और इसे मनुष्य भी खाते हैं, दुधारू पशुओं को भी इसके मुलायन तनों को गहथ झंगोरा, कौणी , मकई , गेहूं, जौ मंडुवे के आटे के साथ पका कर पींडा बना कर देते है।
कन्डालि में जस्ता, ताम्बा सिलिका, सेलेनियम , लौह , केल्सियम, पोटेसियम, बोरोन, फोस्फोरस खनिज, विटामिन ए , बी १ , बी २ , बी ३ , बी ५ , सी ,और के, होते हैं , तथा ओमेगा ३ और ६ के साथ साथ कई अन्य पौष्टिक तत्व भी होते हैं .इसकी फोरमिक ऐसिड से युक्त, अत्यंत पीड़ा दायक , आसानी से चुभने वाले ,सुईदार रोओं से भरी पत्तियों और डंठलों की स्वसुरक्षा अस्त्र के और इसकी हर जगह उग पाने की खूबी के कारण, इसकी खेती नहीं की जाती।
धबड़ी ठेट पर्वतीय शब्द है, जिसका अर्थ होता है किसी भी हरी सब्जी में आलण डाल कर, भात के साथ , दाल के स्थान पर, खाया जाने वाला भोज्य पदार्थ . हर हरी सब्जी का अपना अलग स्वाद होता है तो, धबड़ी के लिए पालक, पहाड़ी पालक, राई और मेथी तो उगाऎ जाने वाली सब्जिया है, स्वतः उगने वालियों में से कंडली सबसे चहेती है. प्राय: इसकी धबड़ी जाड़ों में ही बनती है, क्योंकि तब इसकी नईं कोंपलें बड़ी मुलायम और आसानी से पकने वाली होती है. चूंकि इसके रोयें चुभते ही तेजी से जलन पैदा करते हैं, तो इसे तोड़ने के लिए चिमटे और चाकू का, तथा हाथ में मोटे कपड़े का आवरण या दस्ताने का होना जरूरी होता है . केवल शीर्ष की मुलायम नईं कोंपलें ही लेनी चाहियें .एक बार के लिए जितना भात पकाया जता है उसी के हिसाब से कंडली की मात्रा ली जाती है , चार जनो के लिए ३५० ग्राम ताजी कंडली काफी रहती है इसे खूब धो लेना चाहिए, क्योंकि जहां से तोडी गयी है वहाँ की धूल और अन्य गन्दगी के कण इस पर जमा हो सकते हैं .
आलण के लिए प्रयोग में लाई जाए वाली वस्तुएं नाना प्रकार की होती हैं , जैसे गेहूँ/जौ का आटा, बेसन, गहथ भिगोये हुए झंगोरा, कौणी , चावलों को पीस कर बनाया गया द्रव्य इत्यादि. इनका अलग अलग सब्जियों के साथ का जोड़ा होता है. कन्डली के लिए आटा ही उपयुक्त होता है, इसके स्थान पर बेसन भी लिया जा सकता है। .इन वस्तुओं की मात्रा, तैयार धबड़ी के ऐच्छिक गाढे पन पर निर्भर करता है , बहुत पतली या गाढी ठीक नहीं होती। घोल को पहिले से तैयार करके रखना ठीक रह्ता है। कढाई में सरसों का तेल गरम करके, कटे प्याज को गुलाबी भून के आंच हल्की कर देनी चाहिए। फिर हींग और मसाले और तुरंत कंडली डाल कर और नमक मिर्च मिला कर , थोड़ा चला कर ढँक कर पकने रखते है. १० मिनट बाद, आलण के घोल को डाल कर चलाते रहते हैं ताकि आलण ठीक से मिल जाय. अब इसे चलाते रहना चाहिए जब तक पक न जाय . बस स्वादिष्ट और पौष्टिक धबड़ी तैयार है.
कंडाळि के अन्य भोज्य प्रयोग
सूखी पत्तियों से कपिलु या धपडि:कंडाळी की पतियों और डंठल को सुखाकर रख दिया जाता है और फिर आवश्यकता अनुसार गहथ आदि के फाणु बनाने के काम आता है।
पेस्टो: कंडाळी की पत्तियों को मसाले , नमक , तेल, मूंगफली , चिलगोजा में मिलाकर पीस कर पेस्ट बनाया जाता और किसी भी अन्य खाद्य पदार्थ के साथ मिलाकर भोज्य बनाया जा सकता है।
सूप:कंडाळी की पत्तियों को पानी में उबाला जाता है फिर छाने पानी में घी , नमक , काली मिर्च व थोड़ा सा आटा डालकर ग्राम करने से सूप भी बनाया जाता है।
ठंडा पेय: कंडाळी की पत्तियों को चीनी की चासनी में मिलाकर छोड़ देते हैं जिससे चीनी में छोड़ देते हैं, फिरकंडाळी की पत्तियों को बाहर निकाल देते हैं। नीम्बू आदि मिलाकर पानी के साथ ठंडा पेय स्वादिष्ट और पौष्टिक होता है।
बियर : कंही कंही कंडाळी की पत्तियों की सहायता से बियर भी बनती है।
कंडाळी का औषधि उपयोग
कंडाळी का विभिन्न देशों में औषधीय उपयोग भी होता है . गढ़वाल कुमाऊं में शरीर के किसी भाग में सुन्नता हटाने के लिए शरीर पर कंडाळी स्पर्श से कंडाळी का उपयोग होता है। भूत भगाने के लिए भी कंडाळी स्पर्श किया जाता है। हैजा आदि की बिमारी ना हो इसके लिए सिंघाड पर कंडाळी /कांड भी बांधा जाता था .
जर्मनी में गठिया के रोग उपचार में कंडाळी उपयोग होती है।
यूरोप में कुछ लोग इसे कई अन्य औषधियों में प्रयोग करते थे.
कई देशों में , कहा जाता है कि कंडाळी को जेब में रखने से बिजली गिरनी का भय नही रहता है। इसी तरह कई लोक मान्त्रिक औषधिया कंडाळी से प्रयोग होती हैं
रेशा उपयोग
यूरोप में कंडाळी के द्न्थल से रेशा निकाला जाता है। जर्मनी में एक कम्पनी कंडाळी के रेशों का व्यापार भी करती है।
कंडाळी की जड़ों से पीला रंग भी निर्मित होता है। पत्तियों से पीला और हरा मिश्रित रंग भी बनता था
पीतल युग में कंडाळी रेशा उपयोग प्रचलित था .
कंडाळी और भाषाओं , साहित्य में अलंकार
कंडाळी का भाषा को अलंकृत करने में भी उपयोग होता है। गढवाली में कहते हैं , ज्यू बुल्याणु च त्वै तैं कंडाळीन झपोड़ि द्यूं। या तै तैं कंडाळीन चूटो
प्राचीन यूनानी व रोमन साहित्य में कंडाळी के मुहावरे मिलते हैं। शेक्सपियर के कई नाटकों में कंडाळी संम्बन्धित मुहावरे प्रयोग हुए हैं। जर्मनी में और हंगरी भाषा में कई मुहावरे कंडाळी समन्धित हैं
स्कॉट लैंड आदि जगहों में कंडाळी सम्बन्धित लोक गीत पाए जाते हैं
स्कैंडीवियायि लोक साहित्य में कंडाळी सम्बन्धी लोक कथाये मिलती हैं
अत: कहा जा सकता है कि कंडाळी पौधा मनुष्य का सच्चा मित्र है
BSrawat . .,सूखी पत्तियों से कपिलु या धपडि:कंडाळी की पतियों और डंठल को सुखाकर रख दिया जाता है और फिर आवश्यकता अनुसार गहथ आदि के फाणु बनाने के काम आता है।
पेस्टो: कंडाळी की पत्तियों को मसाले , नमक , तेल, मूंगफली , चिलगोजा में मिलाकर पीस कर पेस्ट बनाया जाता और किसी भी अन्य खाद्य पदार्थ के साथ मिलाकर भोज्य बनाया जा सकता है।
सूप:कंडाळी की पत्तियों को पानी में उबाला जाता है फिर छाने पानी में घी , नमक , काली मिर्च व थोड़ा सा आटा डालकर ग्राम करने से सूप भी बनाया जाता है।
ठंडा पेय: कंडाळी की पत्तियों को चीनी की चासनी में मिलाकर छोड़ देते हैं जिससे चीनी में छोड़ देते हैं, फिरकंडाळी की पत्तियों को बाहर निकाल देते हैं। नीम्बू आदि मिलाकर पानी के साथ ठंडा पेय स्वादिष्ट और पौष्टिक होता है।
बियर : कंही कंही कंडाळी की पत्तियों की सहायता से बियर भी बनती है।
कंडाळी का विभिन्न देशों में औषधीय उपयोग भी होता है . गढ़वाल कुमाऊं में शरीर के किसी भाग में सुन्नता हटाने के लिए शरीर पर कंडाळी स्पर्श से कंडाळी का उपयोग होता है। भूत भगाने के लिए भी कंडाळी स्पर्श किया जाता है। हैजा आदि की बिमारी ना हो इसके लिए सिंघाड पर कंडाळी /कांड भी बांधा जाता था .
जर्मनी में गठिया के रोग उपचार में कंडाळी उपयोग होती है।
यूरोप में कुछ लोग इसे कई अन्य औषधियों में प्रयोग करते थे.
कई देशों में , कहा जाता है कि कंडाळी को जेब में रखने से बिजली गिरनी का भय नही रहता है। इसी तरह कई लोक मान्त्रिक औषधिया कंडाळी से प्रयोग होती हैं
रेशा उपयोग
यूरोप में कंडाळी के द्न्थल से रेशा निकाला जाता है। जर्मनी में एक कम्पनी कंडाळी के रेशों का व्यापार भी करती है।
कंडाळी की जड़ों से पीला रंग भी निर्मित होता है। पत्तियों से पीला और हरा मिश्रित रंग भी बनता था
पीतल युग में कंडाळी रेशा उपयोग प्रचलित था .
कंडाळी का भाषा को अलंकृत करने में भी उपयोग होता है। गढवाली में कहते हैं , ज्यू बुल्याणु च त्वै तैं कंडाळीन झपोड़ि द्यूं। या तै तैं कंडाळीन चूटो
प्राचीन यूनानी व रोमन साहित्य में कंडाळी के मुहावरे मिलते हैं। शेक्सपियर के कई नाटकों में कंडाळी संम्बन्धित मुहावरे प्रयोग हुए हैं। जर्मनी में और हंगरी भाषा में कई मुहावरे कंडाळी समन्धित हैं
स्कॉट लैंड आदि जगहों में कंडाळी सम्बन्धित लोक गीत पाए जाते हैं
स्कैंडीवियायि लोक साहित्य में कंडाळी सम्बन्धी लोक कथाये मिलती हैं
अत: कहा जा सकता है कि कंडाळी पौधा मनुष्य का सच्चा मित्र है
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