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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Thursday, June 8, 2017

स्वीणा - (पलायन की मार झेलते उत्तराखंड पर एम् मार्मिक गढ़वाली कविता )

(पलायन की मार झेलते  उत्तराखंड पर एम् मार्मिक गढ़वाली कविता )
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रचना - आसीस सुन्द्रियाल 
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मिन स्वीणा मा देखि ब्याली रात
पर भयाराडी कनि बक्कीबात
मि स्वीणा मा द्याखुणु छौं
कि मि घड़ेक कु मोरी गयों
अर पुंगडी डोखरी घर बार
अर ऐंसु कु हि बणायू / लेण्टरवलो मकान शानदार
सब यखी छोड़ी गयों
मिन त या देह त्यागे अर सट मारी फाल चलीगयों
पर गौं मा रयां द्वी बुड्यों का गाल लैगिगयों
अब बिचरा कै कु ज्वडीन हाथ / अर कै दगड करीं बात
किलैकि वूंकी अपड़ी उमर त देणी नी छै साथ
खैर
जन तन करीक / बाल- ब्यठुला भेजिक बामण बुले
त अब मुकदान कु बाछी ना मिले
आँतुरी कु बिचरा पदानु का छानी गैनी
अंध्यर मा आँखा त देखा नी
अर छानी छोड़ी बाछी/ बोड बाँधिके ल्हेनी
द्यख्दे द्यखदी दवफरा ह्वेगी तड़तड़ी
अर बुड्यों कि त ऐग्ये घटघड़ि
किलैकि
गौं मा ज्वान जवान त रायूँ नी छौ क्वी
चार चैणा कांध लगाणु अर वो त छया सिर्फ द्वी
त अब
मज़बूरी मा त्वरित/ तत्काल व्यवस्था करेगे
अर कुड़ी पर पिलच्या द्वी पुरब्या अर पुंगडी मा मिस्यान द्वी डुट्याल तैं ल्हेंगे
चौक मा ऐकि चर्या मोल भाव कना/ बुड्यों तै देखिक करकुरु कै ब्वना
कि खडयाना है तो खड्यांगे , फूकना है तो फूकेंगे
पर कान खोल के सुन लेना, ध्याड़ी पुरे दिन कि लेगें
बस
इतगा सुणी कै बुड्यों न त कुछ नी बोले
पर भुयां मा धरीं लाश झट उठिगे
अर मेरी आख्यू कि निन्द खट टूटीग्ये
©आशीष सुंदरियाल

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