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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Sunday, August 16, 2015

तरुड़ व तैडु की खेती में मुनाफा ही मुनाफ़ा है

Dioscorea glabra and Dioscorea belophylla )

                                                                                  - डॉ.  बलबीर सिंह रावत  

शिव रात्रि के ब्रत  के अवसर पर , व्रत खोलने का अनिवार्य घटक तरुड़ या तैडु , जिसे वनस्पति शाश्त्री डायोस्कोरिया बेलोफिल्ला के नाम से पहिचानते हैं,  हिमालयी क्षेत्र की बनीय उपज है।  किसी जमाने में ब्रत से एक दिन पहिले, जंगल में जा कर इसे खोद कर हर घर लाता था , क्यों की इसकी प्राकृतिक अवस्था में उत्पति काफी अधिक थी।  इसी अति शोषण से, जंगली जानवरों की बढ़ती संख्या  द्वारा उसको बेरहमी से, हर मौसम में खोद कर खा जाने से, अब यह प्रायः लुप्त कैटेगरी में शामिल कर दिया गया है। 
भारत में इस प्रजािति का सबसे अधिक उपलब्ध जो कंद है उसे जिमीकन्द के नाम से जाना जाता है।  इस कंद की ९ प्रजातियां जंगली रूप में पायी जाती हैं, केवल एक की खेती होती है।  
एक अनुमान के अनुसार भारत में इस प्रजाति के कंद की टोटल मांग ९०० टन प्रति वर्ष है, इसके मांग दिल्ली,  अमृतसर और कोलकाता के बाजारों में अधिक है और इसकी सबसे अधिक आपूर्ति हिमांचल प्रदेश से होती है।  उत्तराखंड में भी शिवरात्रि के अवसर पर इसे हर पर्वतीय परिवार बाजार से खरीद कर लता है, जहाँ यह जंगलों से लाया जाता है। खोद कर लाने वालों को, गुणवत्ता के हिसाब से, श्रष्ठ किस्म के लिए मुश्किल से २० रु किलो का भाव मिलता है और बेचा ७० से ८० रु प्रति किलो जाता है। तरुड़ और अन्य मिलती प्रजातियों में अधिकांस भाग कार्बोहाइड्रेट का होता है, इसमें विटामिन बी होता है. इस का उपयोग तरीदार सब्जी बनाने म, नूडल बनाने में ,  पकोड़े, सूप बनाने में , तल या भूम कर खाने में होता है।  इसके उपयोग से पेट का अल्सर, सूजन, बदहजमी, और उदर शूल में  लाभ बतया गया है।  विशेष कर थकावट ,चिता, मन की अशांति, डिप्रेसन और तनाव में यह लाभदायक माना गया  है।  इस से कुछ हॉर्मोन भी बनाये जाते है जो प्रजनन से संबन्धित होते हैं। 

कहने के तात्पर्य यह है की इसकी बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए तरुड़ की खेती एक लाभदायक व्यवसाय बन सकती है। चूंकि इसकी खेती से प्रति हेक्टेयर १० से १५ टन , यानि प्रति नाली एक से डेढ़ क्विन्टल तैडू पैदा हो जाता है तो अगर बाजार में भाव १० रु किलो भी मिले तो प्रति नाली १०००से १५०० रुपये की आय हो सकती है।  

तैडू और अन्य कंदों ( गीन्ठी को छोड़ कर ) को उगाने की विधि :-

इसमें बीज नहीं बनते तो इसे  लगाने की पौध को शाकीय पद्धति से उगाया जाता है।  जो बेलें उग रही हैं, उंम्र जब शाखाएं निकल कर बड़ी हो जाती हैं तो इन शाखाओं के कम से कम तीन नोड वाले टुकड़े, तेज चाक़ू या कैंची से काट कर ले लेते हैं।  ध्यान रखा जाता है कि निचली और ऊपर के नोड से  एक से आधा इंच के डंठल रहें. इन शाखाओं को  तसलों में पानी में डूबा कर रखा जाता है।  इन शाखो को रोपाई के लिए , धान की भूसी का या किसी भी अनाज के सख्त सूखे तने को जला कर बिना राख बने काले कोयले  के चूरे में कुछ उर्वरक डाल कर पेंदे में छेद किये प्लास्टिक के बड़े गिलासौं मे लगाया जाता है।  प्रति गिलास  में तीन टुकड़े लगा सकते हैं।  २ से ४ साप्ताह में इन नोडों से कलियाँ फूटने लगती हैं।  खेतो में लगाने के लिए इन नयी बेलों से ४-५ महीनों में कंद निकलते हैं, प्राय हर बेल से ३ कंद मिलते हैं जो १०० से ३०० ग्राम वजन के होते हैं। 

इन बीज-कंदों को किसी सूखी जगह में भंडारित किया जाता है।  खेतों में लगाने के लिए बरसात शुरू होने से पहिले खेत तैयार हो जाने चाहियें, मिटी भुरभुरी हो, अच्छे खूब 
 सडाई हुयी गोबर की खाद या कम्पोस्ट और फॉस्फोरस तथा पोटाश के उर्वरक डालने चाहियें। लगाने के लिए २ फ़ीट ऊंची मेंढ , एक से दूसरी के बीच २ फ़ीट के फासले पर , एक बीज कंद से दूसरे की दूरी  १४-१५ इंच फासला रखते हुए मिट्टी में ८-९ इंच गहरे रखना ठीक रहता है। बेलों के लिए ६- ७ फ़ीट ऊंचे डंडे  ( ठांग्रियों ) का प्रावधान आवश्यक होता है।  ४ - ५ महीनों में जब बेलें सूखने लगती हैं तो यह सूचक है की कंद निकालने के लिए तैयार है।

कंदों को निकालना और बाजार के लिए तैयार करना : 

पूरी कोशिश होनी चाहिए कि  कन्द साबुत निकलें और उनमे किसी प्रकार की खोंच न आने पाय।  बाजार के लिये उनका आकार के हिसाब से वर्गीकरण करके क्रेटों में पैक करके तैयार किया जाना चाहिए. जो छोटे कंद हैं वे अगली फसल के लिए बीज की तरह उपयोग में लाये जा सकते हैं। अगर आपका उत्पादन कम है और लक्ष्य केवल स्थानीय बाजार ही है तो कंदो को रोज की जरूरत के हिसाब से निकाल कर बेचना उचित है, अगर उत्पादन बड़ी मात्रा में होता है तो कंदों को निकाल कर सूखी जगह म भंडारित किया जाना चाहिये। भंडार ग्रह को चूहा प्रूफ बनाने के लिए, पक्के फर्श और दीवारों को तथा खिड़कियों दरवाजों को मजबूत बारीक लोहे की आधा इंच या कम की जाली से सुरक्षित करना होता है. भंडार ग्रह हवादार, सूखा और साफ़ होना आवश्यक है।  भण्डारण पांच या छह महीनो से अधिक के लिए नहीं होना चाहिए। 

तरुड़ की तरीदार सब्जी :
सामग्री : साफ़ किया एक आकार में कटा तरुड़ ५०० ग्राम , ४ चम्मच सरसों का तेल , एक छोटा चम्मच जक्ख्या या दो बड़े चम्मच राई /सरसों के बीज, एक बड़ा प्याज बारीक़ कटा एक बड़ा चम्मच धनिया-जीरा-हल्दी पावडर, एक पाँव के लगभग कण्डाली, हरी ताजा, बारीक़ कटी हुई , ७५ ग्राम कच्चा नारियल कद्दूकस किया हुवा (या डेढ़ पाँव भांग के बीज से बनाया गया दूध ), एक छोटा चम्मच  पिसी हुयी काली मिर्च , दो बड़े चम्मच बड़े नीम्बू ( पहाड़ी नीम्बू ) का रस।  
विधि : तेल को कढ़ाई में खूब गरम होने पर जक्ख्या डालिये, जब पूरा तड़क जाय ( जक्ख्या का पूरा तड़कना आवश्यक है, वरना मसूढ़ों में चुभता है ) तब उसमे प्याज डालिये, सुनहरा होने पर मसाला पावडर और कटे हुए तैडु एक साथ डालिये।  आंच सिम पर कर दीजिये। जब हलके बादामी रंग में भुन जांय ( इसी भूंनने  पर निर्भर होता है की तैडु की कौंकली समाप्त हो जाय और रंग आकर्षक रहे ) तब उसमे कटी कण्डाली डालिये। आवश्यक हो तो थोड़ा सा पानी डालिये, धान दीजिये।  जब कण्डाली गहरे हरे रंग की हो जाय तो कद्दूकस किया नारियल/ भंग बीज का दूध डालिये, पिसी हुयी काली मिर्च डालिये। आवश्यकतानुसार पानी डालिये , ढांक कर ८-१० मिनट पकने दीजिये। जब तैडु खूब पक जाय तो नीचे उतार  कर नमक, नीम्बू का रस और  बारीक़ कटा हरा धनिया डाल कर आधा घंटा अखरने ( सीजंड होने ) रख दीजिये। सीजंड होने के बाद बासमती चावल के भात के साथ या गरम गरम पूरियों के साथ के साथ परोसिये।  ( उंगलिया चाटना गारंटीड )                          
                                                                                 --    डॉ. बलबीर सिंह रावत  

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