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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Sunday, August 16, 2015

हमखुणै बस छोड़ि गेनि, एक सोळि भैजी (हरीश जुयाल की कविता )

भैजी 
-------रचना -- हरीश जुयाल---
छैंदि बरखम तिसळि रैगे गौळि भैजी ।
अब पराण अपुडु़ ह्वैगे चोळि भैजी ।।
रयांसू का प्याट बण गिन लोग कीडा़ ।
हमल जब भी चूंड एक फोळि भैजी ।।
डाळि रीती कैरि गैनी गूणी बांदर ।
हमखुणै बस छोड़ि गेनि, एक सोळि भैजी ।।
पर्या पतळी का पक्यां माछौँ नि द्याखा ।
खूंडो बाडी़ पट्ट घूळो गोळि भैजी ।।
मन कु मैल सच्चै कु पाणिल ब्वगै द्यावा ।
अब धर्यूंच क्याजि गंगा -धौळि भैजी ।।

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