(व्यंग्य - कला , विज्ञानौ , भावनाऊँ मिऴवाक : ( भाग -8 )
भीष्म कुकरेती
अमृता भारती 'प्रसंगतः ' माँ लिखणी च बल साहित्यकार असल मा उपदेष्टा हूंद। शास्त्रकार अर साहित्यकार मा भेद च विधि का , शैली का , स्टाइल का। साहित्य मा उपदेश शब्दगत नि हून्दन अपितु हृदयगत्वा हून्दन। साहित्य माँ कान्ता सम्मित उपदेश हूंद याने स्त्रियुं मधुर संवाद जन।
इनि सुधार , उपदेश व्यंग्य मा आवश्यक शर्त च। बगैर उपदेश का व्यंग्य नि ह्वे सकद। व्यंग्य मा हास्य मिश्रित करीक उपदेश दिए जांद। यदि व्यंग्य मा हौंस नि हो तो व्यंग्य km अपितु वु नीतिवचन बण जालु। व्यंग्य हौंस अर उपदेशक सामंजस्य च। हौंस अर उपदेश का मध्य एक फाइन बैलेंस हूंद व्यंग्य मा। व्यंग्य दुधारी खुंकरि तरां च। सुरेशकांत लिखद बल एक तरफ व्यंग्य हास्य से संभ्रमित करद त दुसर तरफ उपदेश से संभ्रमित करद। व्यंग्य का मुख्य उद्येस्य दुराचार , पापाचार, बदकरनामा हटाण हूंद, सुधार करण हूंद , एक सुखमय , सभ्य समाज की रचना पर ध्यान हूंद, पर दगड मा हंसी का गोलगप्पा बि दगड़म हूंद । उपदेशक बि सत्य की खोज मा रौंद अर व्यंग्यकार बि। दुयुंक आधार सत्य ही हूंद किन्तु दुयुंक शैली मा भारी हूंद।
उपदेशक कठिनायुं पर चिंतन करदो और आध्यात्म का साथ सुधार लाणो बान लोगुं तै अड़ान्द च तो व्यंग्यकार व्यवस्था पर चोट करदो और व्यवस्थाक समर्थन करदो जखमा सुधार स्वयं मा निहित हो। सुरेशकांत का बुलण सै च बल व्यंग्य मा फोटजनिक यथातथ्यता हूंदी पर उपदेश मा एक व्यापकता हूंदी। व्यंग्य मा भाषा अलंकृत या बक्रोक्ति , क्रोध दिलाऊ हूंदी जब कि उपदेश की भशा सपाट , विस्तृत व व्यापकता हूंदी ।
उपदेश सीधा सरल , अर सपाट हूंद तो व्यंग्य मा वैदग्ध्य , वक्रोक्ति अर भगार द्वारा टारगेट पत चोट करे जांदी। उपदेश मा नैतिक बोध जगाये जांद तो व्यंग्य माँ नैतिकता का साथ सुधार आवश्यक तत्व हूंद। व्यंग्य मा हास्य जरूरी खुराक हूंद तो उपदेश गुरु गंभीर हूंदन।
व्यंग्य मा कथगा , कन , कै तरां को हास्य हूण चयेंद यु व्यंग्यकार की लेखनी , रचनधर्मिता , वैचारिक सामर्थ्य पर निर्भर करदो। व्यंग्य मा हौंस नि हो तो वु आलोचना का नजिक पौंछ जांद अर भौत अधिक या असबंद्ध हौंस हो तो प्रभावहीन व्यंग्य बण सकद। इलै उपदेश अर हौंस का सामंजस्य व्यंग्य मा आवश्यक च। हाँ यु बि जरूरी नी च कि व्यंग्य मा हास्य ह्वाइ। बगैर हास्य का बि व्यंग्य रचे सक्यांद।
30/ 8/2015 Copyright @ Bhishma Kukreti
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