कितनी बार
----------
मैं कब न थी प्रस्तुत,
कब नहीं मैंने किसी का साथ निभाया?
मैंने तो
ओ मेरे स्थिर प्रेम!
जिया है जीवन के सत्य को
क्षण-क्षण जीकर.
अपने जीवन के पथ की अनुभूतियों से
मैंने देखी है:
स्नेह की वह तुंग सोपान
जिसमें चढ़कर दर्शन होते हैं
स्वर्ग के,
जहाँ से कोई गिरता नहीं
ऊँचा, ऊँचा और ऊँचा उठता ही जाता है
मगर मेरे प्यार!
मैंने देखा है :
उस उदात्त सोपान से
गिरते हुए बहुतों को.
मैंने देखा है : सागर का विस्तार
अनुभूत की है :
विपुल शांति, भय और अकेलापन
यह वही सागर है
जो प्रातः काल में सूर्य का प्यार पाकर
उसके रंगों में रंग जाता है
मगर जब बाँटता है भास्कर
अपनी विशुद्ध प्रीति की रश्मियों को
तो यही महासागर
विशाल सागर
संध्या-वेला में उसे खा जाता है.
यह भूलवश की गयी गलती नहीं है
यह तो मैं देखती आ रही हूँ वर्षों से
वर्षों से यही होता आया है
कितने ही उत्साहित प्रेमी देखे हैं मैंने -
खिलते सूरज-कुसुम का
मकरंद लेते हुए
और कितने ही निरीह,
सूरज की शव-यात्रा देखते हुए.
जब-जब देखती हूँ मैं इन प्रेमियों को
तब-तब मैं सोचती हूँ -
यह सूरज का पुष्प जो खिला है,
मुरझायेगा
पुनः खिलेगा
क्या यह यूँ ही मुसकराता नहीं रह सकता?
मगर, ओ मेरे साथी !
मैं ये क्यों भूल जाती हूँ कि
तब संध्या के सौष्ठव की
अनुभूति कैसे होगी मुझे ?
तब कैसे उभरेंगे वो भाव हृदय में
जिनसे मुझे होती है
असीम सुख की अनुभूति ?
और मैं इसे बाँट लेती हूँ सबको
तुमको भी मेरे माँझी.
ओ मेरे प्रिय प्राण !
एक तुम ही तो हो
जिससे मिल सका मुझे
स्थिर प्यार
नहीं तो
कितने ही यात्री चढ़े मुझमें
न जाने कितनी, कितनी बार.
01/03/2001
***
मखमली दूब
-----------
ओ मेरे वरेण्य !
मैं अनभिज्ञ हूँ तुम्हारे रूप से
तुम्हें देखता हूँ प्रत्यक्ष
पर मैं मूढ़ समझ नहीं पाता हूँ
तुम्हारा विस्तृत रूप
देखकर भी,
देख नहीं पाता तुम्हें
सिर्फ़ अनुभूति होती है तुम्हारी.
ओ मेरे हृदय के स्पन्दन !
मैं तुम्हारा आकार समझने में सक्षम नहीं हूँ तो क्या ?
तुम्हें देखता तो हूँ ,
तुम्हें महसूस करता तो हूँ
तुम्हारी अनुभूति से सुख पाता तो हूँ.
मेरे प्रभु !
मैं परिचित हूँ तुम्हारी अथाह शक्ति से
मुझे आशीष दो कि
मैं भी उस दूब की तरह बनूँ
जो अपनी कोमल कोंपलों से
चीर देती है धरती का सीना
और काली कठोर कोलतार वाली सड़क से भी
जो जीत जाती है
और उसका सीना फाड़कर
निकल आती है ऊपर
मुसकराती हुई,
जो बार-बार दबकर भी पैरों के तले
निराश नहीं होती,
अपमानित नहीं होती,
अपना अस्तित्व खो नहीं देती
बल्कि उठा लेती है अपना शीश स्फोट से.
वह बहुत बड़ी नहीं होती
और ना ही छूना चाहती है आकाश
वह तो चिपकी रहती है
वसुन्धरा के आधार से
वह नीची है बहुत नीची
पर उसके भाव,
उसके विचार,
उसकी भावनाएं
अमित उदात्त हैं
वह खुश है अपने स्थान पर
क्योंकि वह जानती है कि
तुम ऊपर ही नहीं
नीचे भी हो
नीचे, नीचे बहुत नीचे भी हो
सर्वत्र हो.
मेरी आत्मा !
मैं जानता हूँ
उसने कभी अभिमान न किया
वह बढ़ी और बड़ी भी हुयी
मगर उसके हर कदम ने
पकड़ के रखा पृथ्वी को
उसके दुबले-पतले शरीर की
हरी-हरी लघु पत्तियों ने भी
सदा झुका रहना ही सीखा है
कोमल और नम्र रहना ही सीखा है
तभी तो,
तभी तो मेरे भगवान !
नहीं खायी कभी उसने मात
कभी पराजित नहीं हुई
सदा-सदा ही विजय,
उसके पाँव चूमकर कृत-कृत्य हुई है.
मैं जब भी मिला हूँ उससे
वह मिली
रोज मिली, हरी-हरी मखमली मुस्कान के साथ.
ये जो तुंग वृक्ष हैं
और इनके आधार पर यह पड़ी है
मगर मैंने देखी है इसमे
उन वृक्षों से भी अधिक ऊँचाई
क्योंकि इसके मन में कभी
उनके साथ रहकर भी
हीन भावना नहीं आयी
सच कहूँ मेरे सृजन-शील !
मैंने इसकी छवि में
देखा है तुम्हें
जिससे मुझे होती है
असीम सुखानुभूति
और मेरे मानस-पटल पर
उभर आता है बिम्ब तुम्हारा
और मैं उस छोटी-सी दूर्वा में
दर्शन कर लेता हूँ
तुम्हारे !
02/03/2001
***
शब्द तुम हो ?
------------
शब्द का व्यक्तित्व क्या है ?
अर्थ का अस्तित्व क्या है ?
निहित है वह कौन शक्ति,
सशक्त जिससे ये हुआ है ?
रक्त बहता है किसका
इसकी पतली धमनियों में ?
कौन है
यह अक्षुण्ण ?
क्या विश्व का है
प्रणेता ?
मौन का रहस्य क्या है ?
अर्थ का आभास क्या ?
आकार ही
व्यक्तित्व है तो
अर्थ का
आकार क्या है ?
स्वर्ग के दर्शन कराता
प्रभु से परिचय कराता
तन्वी भावनाएं जगाता ,
व्यक्तित्व अपना बताने को
निर्जन वन में छोड़ जाता
मौन, मौन, मौन रहकर.
कौन है यह रस सिन्धु !
जो कर देता है उत्साहित
सोचने बस, सोचने को
क्या रूप है,
यह तुम्हारा ?
आज बस,
इतना बता दो !
03/03/2001
***
पुरानी नाव
---------
मैंने अपनी
पुरानी छोटी-सी नौका
जब उतारी सागर में
तो मैंने तट से समुद्र-विस्तार देखकर सोचा -
मैं कर लूँगा इसे पार अवश्य ही
पर , मैंने केवल उतना सोचा
जितना देखा था प्रत्यक्ष
और सागर की लहरों के संग
चला गया दूर-दूर बहुत दूर तक
और चलता ही रहा, चलता ही रहा
मेरे सामने से गुजरे
कई जाहज आधुनिक सुविधाओं से युक्त
देनी चाही उन्होंने मुझे सहायता
पर मैंने नहीं ली
चलाता रहा अपनी पुरानी नाव को
जब मैंने देखा
विस्तृत सागर का वास्तविक रूप
वो हरा , काला , लाल और नीला पानी
पानी, पानी केवल पानी
मैं थक गया
और उदास आँखों से देखा
बार-बार अपनी नाव को
पुरानी नाव को
देखता ही रहा
सोचता ही रहा
और मेरी पुरानी नाव
सागर की उर्मियों के संग
जाने कहाँ खो गयी.
04/03/2001
***
हृदय की पीड़ा
------------
मेरे बन्धुओं !
तुम तर गये भव-सागर को
छोड़ के अपनी
छाप, स्मृति,
और महान् कृति.
तुमने पत्थरों को तराश कर
आकार जो दिया था
सजीव किया था
अथाह परिश्रम, लगन, कुशलता और
उदात्त भावनाओं से.
तुमने परवाह न की
अपने अमूल्य समय की,
जिन्दगी की
और एक अमर-कृति विश्व को दी
कितने श्रेष्ठ थे
तुम और तुम्हारी कृति
कितनी ऊँची थीं
तुम्हारी भावनाएं
जो तुमने कठोर पत्थर पर ली थीं उतार
हे वरेण्य आत्मा !
तुझे मेरा नमस्कार बार-बार.
जब तुम्हारे साकार पत्थरों को
पूजा गया,
संग्रहालयों में सजाया गया या
ससम्मान स्थापित किया गया
तब तुम्हें कितनी शांति की अनुभूति हुई होगी !
और आज जब तुम देख रहे हो
अपने परिश्रम, लगन, प्यार और
भावनाओं का खण्डन
तो आहत होकर अश्रु क्यों बहाते हो ?
क्यों निकाल के रख नहीं देते
कलेजा इनके सामने ?
जरा दिखाओ इन्हें भी
उसकी तड़पन.
04/03/2001
***
अभिलाषाओं का पुष्प
------------------
जाने कितनी जन्मी
कोमल काया के
कोमल अन्तरतम में
कानन कामनायें ,
जाने कितने स्वप्न संजोये
नन्ही आँखों में ,
जाने क्या-क्या पाने को
मचल उठा मन ,
जाने क्या-क्या चाह रहा था
छोटा-सा वह तन
मगर पूर्ण न हुईं
कितनी ही इच्छायें ,
कितने ही सपने ,
कितनी ही आशायें
किसी निमित्त
होकर रह गयीं दिल में दफन
उनके ऊपर रख दिये गये
भारी-भारी पत्थर
फिर कभी न उठ सकीं वे
अभिलाषाएं.
आज चाह नहीं है उनकी
गदराये यौवन को
तनिक भी ,
अब उभर आयी हैं
नयी-नयी इच्छायें
नयी अभिलाषायें
कल ये भी मुरझा जायेंगी
जब यौवन कुम्हला जायेगा
तब नयी कलियाँ आयेंगी
अभिलाषाओं की.
मगर कोई सुमन खिलकर बच पाया है ?
यह अभिलाषाओं का पुष्प भी
झड़ जायेगा सूखकर
अन्त समय में
और मिल जायेगा अपनी ही मिट्टी में
यह काया भी मिल जायेगी
मिट्टी के कण-कण में
तब मृदा का अणु-अणु
चीख-चीख के चीखेगा -
अब कहाँ गयीं सारी इच्छाएं
वो अभिलाषायें ?
क्यों , अब तो समझ गये हो मर्म
जीवन का !
09/03/2001
***
बेघर
-----
सूरज शक्तिहीन होने लगा
लाल-पीली अपनी ही आभा में
क्षितिज पर खोने लगा ;
संध्या सुंदरी शनै-शनै बढ़ने लगी
यौवन की ओर ,
होने लगा मंद पक्षियों का शोर
सब चले गये अपने-अपने घरों को
बंद हो गये सभी किवाड़
और वह ,
वह दो पाँव का जानवर
असहाय , निरीह , उपेक्षित
रिरियाता रहा देर रात तक
और सो गया
कड़ाके की ठण्ड में
घुटने मोड़कर
पिचके पेट में दबाये हुए
शीश झुकाये हुए
हाथ मोड़कर गालों को दबाये हुए
निर्मम नग्न नभ के नीचे ;
तभी फूटा एक तारा
देख दशा उसकी
फूट-फूटकर
रोता रहा वह रात भर.
10/03/2001
***
तुम्हारा इंतजार
-------------
पुष्पों की पंखुड़ियों में
ढूँढता हूँ तुम्हारा चेहरा
देखता हूँ निर्निमेष
गदराये हुए यौवन से
उड़ते हुए पराग-कण ,
टपकता हुआ मकरन्द
और देखता ही जाता हूँ
सोचता ही जाता हूँ
औचक खो जाती है मेरी दृष्टि
टहलने लगता हूँ
कल्पनाओं के कानन में
और ढूँढने लगता हूँ -
सिहरती पत्तियों में
घने अंधकार में
झरने की ऊँचाई में
और पारावार की गहराई में
तुम्हारा अदृष्ट कल्पनिक रूप.
ओ मेरे होने वाले प्यार !
जब लौट के आता हूँ
यथार्थ के धरातल पर
तो प्रफुल्ल प्रसून की मुड़ी हुई पंखुड़ियों को
तुम्हारी मुँदी हुई पलकें समझकर
चूम लेता हूँ प्यार से
और करने लगता हूँ तुम्हारा इंतजार
ओ मेरे ,
अप्रतिम , अपेक्षित , अनदेखे प्यार !
बस , तुम्हारा ही इंतजार.
11/03/2001
***
थोड़ा-सा प्यार
-------------
रिरियाता हूँ
भटकता हूँ
मैं अक्लांत
बढ़ता जाता हूँ
चाहता हूँ
सोना,
हीरा,
धन
या जेवरात
कुछ भी नहीं
हाँ, हाँ !
कुछ भी नहीं.
न चाहोगे तुम
कुछ भी देना
दोगे तो
बस उधार
यही तो ,
यही तो चाह है
दे सको तो
दे दो उधार
अपना
थोड़ा-सा
निर्मल
निश्छल
प्यार
हाँ, केवल प्यार !
सच, लौटाऊँगा तुम्हें
सौ गुना सूद के साथ
बार-बार.
10/03/2001
***
नया सवेरा
----------
तुम पर टिका हुआ नभ
कितने खेल खेलता है
तुम्हारे साथ ;
कितने रंग बदलता है
और तुम भोले भाले
रंग जाते हो पूर्णतः
उसके रंगों में ;
तुम विशाल और उदात्त होते हुए भी
बह जाते हो ,
उसकी हल्की मुस्कान की उर्मियों के संग
जब उसका नीला वसन
रंग जाता है विविध रंगों के छींटों से
घेर लेती है लालिमा
मिलन रेखा को
और तुम्हारे अधरों से
उत्सर्जित होने लगती है आभा
विकसित होने लगता है
तुम्हारे प्यार का पुष्प
पूरव दिशा से शनै-शनै ;
और तुम्हारा गौरव इन हरे-हरे पेड़ों से
छानकर बिखेर देता है रश्मियाँ
वसुन्धरा के अंक में
और अम्बर के विस्तार में
तब तुम्हारे उर से उदित ऊर्जा
ले आती है एक नया सवेरा
कण-कण के जीवन में
और पुनः रंग जाते हो तुम
नभ के सुनहरे प्रकाश में
और तुम्हारी तुंग चोटियाँ
खिल उठती हैं एक बार फिर
स्पर्श उसका पाकर.
12/03/2001
***
अगरबत्ती
--------
अरी ओ श्यामा !
जीना मुझे भी सिखा दे
उस तक जाने का मार्ग दिखा दे
मैं जीवन भर
चलता रहा , चलता रहा
जलता रहा , जलता रहा
मगर तेरी तरह निश्छ्ल नहीं
तेरी तरह मैं नहीं चला , नहीं जला
जब तुझे जलाया गया था
किसी मंदिर में
समक्ष ईश्वर के
तो तू जली
और सुलगती रही तब तक
जब तक तू मिट न गयी
तेरी देह से निकले धुएँ की लम्बी लकीर
अवश्य ही छू गयी होगी
कृपा निधि के कर-कमलों को
मुख मण्डलों को
पग-तलों को
यह तेरी प्रसारित सुगन्ध
जो कर रही है सुवासित
एक-एक कण को
निश्चय ही करती होगी सुवासित
उसके अन्तर्मन को
अरी ओ , अगरबत्ती के अवशेष की बची हुई
राख की ढेरी
कर दे पूर्ण अभिलाषा मेरी.
15/03/2001
***
बच्चा
-----
बच्चा तो बच्चा है !
बच्चा -
मासूम, निश्छल, कोमल, अभिराम
राम,
हाँ-हाँ राम !
देखी है कभी मुख मण्डल पर पटुता ?
वाणी में कटुता ?
आँखों में छल,
और मन में मल ?
सोचा क्या,
क्या है उसकी जिजीविषा ?
ना रे, ना, ना !
वह तो बस सोचा करता है
उस कल्पक को अनुक्षण;
किसी का भी हो
कोई भी हो
कैसा भी हो
बच्चा तो बच्चा ही है ना !
पशु-पक्षी या मानव का हो
देव या फिर दानव का हो
कृति कोमल उस कल्पक की ही है
फिर क्यों दुतकारा उस पिल्ले ?
क्यों चूम लिया अपने बच्चे को ?
अन्तर ही क्या था दोनों में !
दोनों ही तो थे भगवान मेरे.
16/03/2001
***
नि:संग
------
यह जो दिन है
यह जो रात है
यह जो संध्या और
यह जो प्रभात है
क्या ये तनिक भी मेरे नहीं हैं
या मैं जरा-सा भी इनका नहीं हूँ
क्यों मैं इस महानगर में
रहता हूँ नि:संग
चार दीवारों में कैद होकर
शिथिल-से लगते हैं अंग
क्यों यह दिन, रात, संध्या, प्रभात
रहते हैं उदास-से मौन
क्यों मेरे दिन और रातें
गुजर जाती हैं बिना शब्दों के ?
मैं निस्संग मौन ,
बस देखता ही रहता हूँ
सोचता ही रहता हूँ
अनुभूत करता ही रहता हूँ
ठिठकता ही रहता हूँ
और बाँट नहीं पाता किसी से अपने विचार
आह ! यह सन्नाटा नहीं,
चाहिए मुझे अपनों का प्यार
यह एककीपन नहीं मुझे अंगीकार
क्या स्वजनों से बिछड़ने का,
होता है यही उपहार ?
हे हरि मेरे !
बता दो,
बता दो बस, एक बार.
18/03/2001
***
तुम तक कैसे आऊँ मैं
------------------
काया को अब तक जान न पाया
माया ने लूटा और लुटाया
अंतरतम को अवसादों ने घेरा
भटक रहा है
ढूँढ रहा है
किसको हे चिन्मय,
ये मन मेरा ?
कौन खड़ा है मेरे आगे
क्यों देख नहीं सकता मैं उसको
अकुलाता है कोई मेरे अन्दर
कैसे उसको मैं समझाऊँ
गीत प्रीति के कैसे गाऊँ
कैसे उसकी प्यास बुझाऊँ ?
जीवन बहता
क्यों रुका हुआ मैं
बीच भँवर में फँसा हुआ मैं
किस विधि बाहर आऊँ मैं,
बतला दो हे परमेश्वर !
वर कैसे तुमसे पाऊँ मैं ?
चाह है मेरी -
निर्झर बन
झर-झरकर तुम तक आ जाऊँ
केवल गीत तुम्हारे गाऊँ
देखूँ तो बस, तुमको ही पाऊँ
अब जान गया हूँ
तुमको स्वामी
पहचान गया हे अन्तर्यामी !
अब क्यों अपना
समय गवाऊँ
बतला दो कैसे
तुम तक आऊँ !
19/03/2001
***
आशीष दो माँ
------------
हे देवी !
मुझको अपना लो
चरणों का
दास बना लो
अंग तुम्हारा ही हूँ मैं
रंग तुम्हारा ही हूँ मैं
मैं तो माटी
तुम हो माँ
पुत्र तुम्हारा ही हूँ मैं
मैं तो हूँ अगियार तुम्हारी
लपटों को छू जाने दो
माँ, नीरस ही है
ये स्वर मेरा
पर, गीत तुम्हारे गाने दो
खोल दो माँ,
द्वार ज्ञान के
मुझको अन्दर आ जाने दो
प्यास ज्ञान की मिट जाने दो
मुझको बस, खो जाने दो
अपनी ममता की गोद में माँ,
जीभर के सो जाने दो
ज्ञान की नदियाँ बहती जाती हैं
पर मैं तो उ'द्'ग'म चाहूँ
राह नयी मैं क्यों न जाऊँ
गान ज्ञान के क्यों ना गाऊँ
क्यों न आज तृप्त हो जाऊँ ?
जब छू ही लिया है ये पथ माता,
तो पल-पल आगे बढ़ता जाऊँ
पल-पल प्यार मिले तुम्हारा
पल-पल आशीष तुम्हारा पाऊँ.
19/03/2001
***
मैं भी पढ़ने जाऊँगी
----------------
मम्मी मुझको भी ला दो पुस्तक,
मैं भी पढ़ने जाऊँगी.
भैया के संग जाऊँगी और,
संग भैया के ही आऊँगी.
खूब पढूँगी मन लगाकर,
शोर नहीं मचाऊँगी.
कविताएं रट-रटकर मैं,
रोज तुम्हें सुनाऊँगी.
अपने स्कूल की सारी बातें,
मैं तुमको बतलाऊँगी.
अ आ इ ई उ ऊ लिखना,
तब तुमको भी सिखलाऊँगी.
खूब पढूँगी-खूब पढूँगी,
नाम खूब कमाऊँगी.
देखना माँ एक दिन मैं भी,
देश का मान बढ़ाऊँगी.
ये सब तब ही होगा हे माँ !
जब पढ़ने मैं जाऊँगी.
इसीलिए कहती हूँ तुमसे -
मैं भी पढ़ने जाऊँगी.
20/03/2001
***
खेल-खेल में
----------
जंगल में जब आयी रेल
सबको लगा अनोखा खेल.
हँसते-गाते सब मजे लुटाते
रेलगाड़ी में झट चढ़ जाते.
सभी जानवर चढ़े रेल में
लगे उछलने खेल-खेल में.
खरगोश कहता - यह सीट है मेरी
गधा कहता - मैंने कर दी थोड़ी देरी.
कुछ बैठे, कुछ खड़े हुए थे,
कुछ आराम से पड़े हुए थे.
खुश हो करके बन्दर गाते
ख्यों-ख्यों उछल-कूद मचाते.
सूँड उठाकर ड्राइवर दादा आये
"मैं बैठूँगा कहाँ ?", जोर से चिल्लाये.
शेर ने झट कुर्सी की खाली
हाथी दादा बैठे रेलगाड़ी चला ली.
रेलगाड़ी चल पड़ी छुक-छुक गाती
सबके मन को ये हर्षाती.
खुशी से उछल-कूद मच पड़ी रेल में
सफर कट गया खेल-खेल में.
24/03/2001
***
यादें
----
दाना-पानी की खोज में
एक मैना भटकती जाती है
फिर भी तृण-तृण चुनकर वह
सुन्दर-सा घर बनाती है
पर अपने लिए नहीं
अपने एक अंश के लिए.
अण्डों से जब खिल जाते हैं
कोमल-से चीं-चीं, चूँ-चूँ करते बच्चे
तो खुद भूखी रहकर
उनको आहार खिलाती है
जीना उनको सिखलाती है
चलना उनको सिखलाती है
एक दिशा नयी दिखलाती है
अन्तर में चाहे अवषाद अमित हो
पर गीत खुशी के गाती है
बच्चों को तब अपनी
माँ बहुत भाती है.
पर, पर निकलने पर जब बच्चे
सब छोड़-छाड़ उड़ जाते हैं
आकाश की अन्नत ऊँचाई में
तो वह माँ अनन्त आकाश में
अपने त्याग का प्रतिफल
ढूँढ़ती रह जाती है
और अम्बर को ताकती उसकी निर्निमेष आँखें
एक व्यथित कथा कह जाती हैं
और उसके पास
बस कुछ यादें
यादें ही रह पाती हैं.
25/08/2001
***
कुछ पल मेरे अपने होते
--------------------
जीवन के पारावार में
कुछ बूँदें मेरी हो जाएँ
तो मैं पलकें गिरा के अपनी
बस, तुमको ही पढ़ता जाऊँ
सोच-सोचकर तुमको ही मैं,
प्यार लूटाऊँ, शांति मैं पाऊँ
नि:शब्द, एकांत वातावरण में
समाकर तुम्हारे आवरण में
जीभर के आँखों से अपनी
जल के बिन्दु गिराता जाऊँ,
जल के बिन्दु गिराता जाऊँ.
जीवन की अविराम घड़ी में,
कुछ पल मेरे अपने हो जाते
तो मैं भी शांति के कुछ बीज,
वंध्या जीवन में बो जाता
आँसू मुझमें, मैं तुममे खो जाता
बस, क्षण तनिक-सा ये रो जाता
तो पार तुम्हारे पारावार !
मैं हो जाता,
मैं हो जाता.
बस, केवल हम तीनों होते
आँसू मेरे टप-टप रोते
दिल के अवसादों को धोते
तन-मन में बस तुम ही होते
पास मेरे -
जीवन की वसुन्धरा के
काश कहीं कुछ टुकड़े होते,
काश कहीं कुछ टुकड़े होते.
22/10/2001
***
एक ही धरातल
-------------
पट जाती हमारे बीच की खाई
यदि, मिल जाता निश्चित् आवरण
तुम्हारे जैसा वातावरण.
ढल जाती मैं भी उसी साँचे में
जिसमें तुम ढले हो.
भिन्नता तनिक न रहती हममें
यदि मैं भी पल, बढ़ जाती
उसी समाज में
जिसमें तुम पले हो.
तुम कैसे ये निर्णय कर लेते हो कि,
तुम हर क्षेत्र में आगे हो मुझसे ?
किस घमण्ड में तुम निकल जाते हो
मेरे सामने से
सीना फैलाकर,
तुच्छ दृष्टिपात कर,
नाक, भौंह सिकोड़कर
और गर्व से सिर उठाकर ?
क्या यह आधुनिकता ही दर्पण है
सभ्य समाज का !
क्या सारा समय ही है तुम्हारा
आज का ?
मेरा तनिक भी नहीं !
तुम ये क्यों सोचते हो -
प्रत्यक्ष तुम्हारे मैं लघु बन जाऊँगी
या, मन में अपने हीन भावना लाऊँगी
मैं तो प्रत्यक्ष प्रभु के सौ-सौ बार
बस, सादा जीवन ही चाहूँगी.
यदि तुम्हें भी मिला होता ये वातावरण
तो क्या पहने होते ये आवरण ?
मेरे दोस्त !
तुम इस शाश्वत सत्य को
क्यों भूल जाते हो कि,
हम निर्भर हैं प्रकृति पर
और हमें ढलना ही पड़ता है
या हम ढल जाते हैं
उसी वातवरण में.
अतः मैं नहीं मानती
अपने मध्य की असमानता को
लघु-गुरु का प्रतीक.
तो मैं क्यों तुमसे बड़ी बनूँ
या तुम मुझसे बड़े ?
भूलो मत !
हम हैं,
एक ही धरातल पर खड़े.
20/11/2001
***
पंक और पंकज
-------------
अरे ओ अरविन्द !
क्यों छाती फैलाकर इठलाता है ?
उठ क्या गया कीचड़ से कि ,
शाश्वत सत्य को झुठलाता है !
अरे ! पंक में ही तू पला बढ़ा
और आज आधार बनाकर ,
उसी में है खड़ा
अरे ओ ! अगर आज वो न होता तो,
सड़ता तू भी पड़ा-पड़ा
चल बे जा
आज बनता है बड़ा !
चूसकर ही रक्त उसका
रक्त-सा रक्तिम बना
अरे ओ ! कोमल कमल !
तू क्या जाने स्वेद क्या है
क्या कभी उसमे सना ?
गर्व कैसा, क्या है तेरे पास अपने ?
लूट के जिया और
उधार लेकर जी रहा
मुफ्त में किरणों की मेरी अमृत धारा पी रहा
बड़ा इठलाता है दिवस में ओ नासमझ !
है दम जरा तो निशा में भी इठलाकर दिखा
भूल मत उस पंक की सौरभ ने ही
अस्तित्व तेरा है लिखा.
09/12/2001
***
प्यासी अँखियाँ
-------------
प्यासे हिम-श्रृंग,
प्यासी नदियाँ,
प्यासे निर्झर,
प्यासी बावलियाँ,
प्यासा सागर,
प्यासी गागर,
प्यासा सूरज,
प्यासी किरणें,
प्यासे बादल,
प्यासी वर्षा,
प्यासा चाँद,
प्यासे तारे,
प्यासे-प्यासे
लगते सारे,
प्यासा अम्बर,
प्यासी धरती,
प्यासी अँखियाँ;
फिर कैसे बरसीं !
29/08/2002
***
साँझ
----
एक उदास
अति उदास
रोयी-सी
खोयी-सी
थकी-सी
पकी-सी
सहमी-सी
टूटी-सी
रूठी-सी
प्यासी-सी
बासी-सी
सन्नाटे-सी
ज्वार-भाटे-सी
अमावस-सी
सूखी धमनी
पिचकी नस-सी,
कितनी नीरस,
कितनी नीरव,
कितनी निश्चल,
कितनी निर्जन,
कितनी निर्धन
है ये साँझ.
05/09/2002
***
उपहार
------
पल-पल पलता
प्यार तुम्हीं को ,
खुशियों का
संसार तुम्हीं को ,
सुंदर सपनों का
सार तुम्हीं को ,
और बाँहों का
हार तुम्हीं को.
जीवन का दृढ
आधार तुम्हीं को,
प्यार मेरे ओ !
प्यार तुम्हीं को,
धड़कन का
उपहार तुम्हीं को,
और भला क्या
दूँ उपहार ,
साँसों का
संसार तुम्हीं को.
15/11/2006
***
एकाकीपन
---------
कभी-कभी हम
कितने अकेले हो जाते हैं;
कभी-कभी स्वप्न सारे
न जाने क्यों सो जाते हैं;
काँटों से प्यार नहीं,
फिर भी काँटे बो जाते हैं;
एकाकीपन की दुनिया में
जाने कैसे खो जाते हैं ?
कभी-कभी स्वयं से ही
बातें करके रो जाते हैं ;
सच !
कभी-कभी हम भीड़ में भी
कितने अकेले हो जाते हैं.
16/09/2007
***
नयी सुबह
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जले हुये पहाड़ों में
जाग उठा एक जीवन
नव-जीवन की अभिलाषा में
निहार रहा स्वजनों को
और अपने आधार को
इस आशा से कि
कल फिर से
एक नयी सुबह
अवश्य आयेगी.
23/05/2016
***
रिश्ते-नाते
-------------
कितने विस्तृत होते थे
वो रिश्ते-नाते,
जितना विस्तार
उतना ही
ठोस आधार,
जितना कठिन जीवन
उतने ही सरल लोग,
ढूँढ ही लेते थे
सभी में
मानवता का रिश्ता;
कितना प्रेम-भाव,
कितना अपनापन,
और कितनी सहजता
होती थी
हमारे पूर्वजों में
परायों के प्रति भी;
अब
जीवन सरल हो गया है
वस्तुतः
रिश्ते सिमट गये हैं.
04/06/2016
***
जीवन
--------
जीवन जीते-जीते
जीवन बीत गया ,
जी न सके
जीवन को
जीवन-सा,
जीवन रीत गया;
जीवन-जीने की चाह में,
जीते-जीते
जाने कब
जीवन बीत गया.
08/06/2016
***
एक टुकड़ा समय का
------------------------
समय सिमट गया
या
व्यस्तता बढ़ गयी ?
कौन-सी धातु की
बेड़ियाँ
जकड़ गयीं ?
मशीनों के युग में
मशीन
बन गये,
माया के जंजाल में
रिश्ते
पिघल गये,
कीमती बहुत हो गया
इन दिनों समय,
काश !
अपने लिए भी
खरीद सकते,
एक टुकड़ा
समय का !
12/06/2016
***
अब मैं बड़ी हो गयी हूँ
--------------------------
अब !
अच्छा नहीं लगता मुझे
अपने भाई-बहिनों से
लड़ना-झगड़ना,
अपने माता-पिता से
बिना बात के
रूठ जाना,
अपने दादा-दादी से
किसी चीज़ के लिए
जिद करना,
अपने नाना-नानी से
शिकायतें करना,
वस्तुतः !
मैं बहुत खुश होती थी
अपनों से जीतकर;
अब !
अच्छा नहीं लगता
अपनों को हराना,
क्योंकि अब ये 'बेटी'
बड़ी हो गयी है.
12/06/2016
***
छोटी सी गुड़िया
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सड़क किनारे पैदल पथ पर
आने-जाने वालों से
वह करती आग्रह
"अंकल भुट्टा ले लो"
लोग सुनते,
देखते
और फिर आगे बढ़ जाते,
पर वह हताश नहीं होती
पुनः प्रयत्न करती
अपनी मीठी बोली में
बहुत ही सहजता से;
उसके कोमल मन में धैर्य था,
प्यारी अँखियों में आश थी,
मासूम चेहरे में आत्मविश्वास था
उसको विश्वास था
कोई-न-कोई अवश्य खरीदेगा
उसके पापा से भुट्टा
वास्तव में वह
छोटी सी गुड़िया
बहुत बड़ी थी.
15/06/2016
***
मेरे जन्मदाता
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अपने हिस्से की
सर्दियों की गुनगुनी धूप
और गर्मियों की शीतल छाया
तुमने ही तो दी है मुझे !
डगमगाते हैं पाँव मेरे जब कभी
बनकर सहारा
साथ तुम ही तो खड़े हो जाते हो,
विपत्तियों का वक्त जब आता है शूल बनकर,
हाथ आ जाता है तुम्हारा,
सिर पर ढाल बनकर;
प्रायः याद नहीं रहती हैं
बचपन की यादें सभी,
कैसे गिनाऊँ उस प्यार को
उन अंगुलियों में
जिनको थामकर तुमने
चलना सिखाया था कभी;
ओ ! मेरे जन्मदाता,
तुम ही तो हो
हिम्मत मेरी
तुम ही तो हो
मेरा सहारा.
19/06/2016
***
पहाड़
-------
मत बदलो मेरा स्वरूप
अपने अनुसार,
आखिर कब तक मैं
चोटें सह पाऊँगा ?
मैं पहाड़
बहुत कोमल हूँ ,
एक दिन
टूटी माला के दानों-सा
बिखर जाऊँगा.
21/06/2016
***
समय
--------
मैं समय !
रहता हूँ हर समय
साथ सबके,
रखता हूँ पैनी नज़र
सबकी गतिविधियों पर;
मिटा दो
बुरी भावना का ख़याल
मन में जो आया है;
मैं समय हूँ !
मेरे आगे
कब, कौन, कहाँ टिक पाया है ?
02/07/2016
***
दरकते पहाड़
----------------
फटते बादल
उफ़नती नदियाँ
दरकते पहाड़
सिसकती अँखियाँ
प्रकृति का तांडव
आखिर कब तक ?
कुछ तो होगा समाधान ?
कोई तो
कुछ बतलाओ !
03/07/2016
***
निर्णय
---------
कई बार हम चाहते हैं
उन्मुक्त जीवन जीना,
जीना चाहते हैं जीवन
सिर्फ़ और सिर्फ़
अपने अनुसार
स्वाभिमान से,
शान से;
कई बार हम
नहीं ले पाते
अपने ही निर्णय
अपने-आप,
कई बार हम
कितने असहाय हो जाते हैं !
06/07/2016
***
मुखौटे
--------
दुनिया
यदि रंगमंच है !
हम
यदि कलाकार हैं
तो इन मुखौटों के पीछे
कोई-न-कोई
प्रतिभा छिपी हुई है.
08/07/2016
***
बचपन
---------
कई वर्ष बीत गये
बचपन बिताये हुए,
वो खुशियाँ
जो बचपन में
यूँ ही
मिल जाया करती थीं मुफ्त,
अब मिलती नहीं
जमना हो गया
कीमत चुकाये हुए,
अजीब आ गया है
नया दौर
बच्चों से दूर
बचपन के साये हुए,
धूमिल हो गये हैं
धूल-मिट्टी के खेल-खिलौने,
वर्षों हो गये हैं
माँ को लोरी गुनगुनाये हुए.
09/07/2016
***
परिवर्तन
--------
कभी-कभी हम -
कितने बदल जाते हैं !
खेलने लगते हैं -
अंगारों से,
मार लेते हैं -
अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी,
बन जाते हैं -
अपनों के ही दुश्मन,
कभी-कभी
कितना बदल जाता है
चुपके से समय !
14/07/2016
***
बचपन बचकाना
--------------
क्षण-क्षण में रोना,
क्षण-क्षण में हँसना;
एक पल में रूठना,
एक पल में मान जाना;
उसी पल लड़ाई,
उसी पल गले लग जाना;
कभी छुपाना,
कभी सर्वस्व लुटा जाना;
चेहरे पर मुखौटे लगाकर डराना;
सबके बन जाना,
सबको अपना बनाना;
कितना सच्चा था
वो बचपन बचकाना !
28/08/2016
***
कितने बड़े
---------
आज नहीं है पहुँच
हर किसी की उन तक;
आम दिलों से
अब फासले हो गये हैं;
अँगुली पकड़ना छोड़ दिया,
जबसे अपने पैरों पे खड़े हो गये हैं;
पृथ्वी पर नहीं पाँव,
आकाश में खड़े हो गये हैं;
माँ-पिता के छोटे बच्चे
कितने बड़े हो गये हैं !
06/09/2016
***
Copyright © सतीश रावत for all poems.
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