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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Sunday, May 28, 2017

डा प्रीतम अपछ्याण के दोहे / छोटी कविताएं

Garhwali Couplets by Preetam Apachhyan 

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३३२
लुकचुप थौळ समौंण दिईं, तरपर जलेबी गास
चर्खि घुम्दि दां सौं खयां, तोड़ि ना वीं की आस
(मेले में सबकी नजरें बचाकर चुपके से निशानी दी थी, तरपर टपकती जलेबियां खाई थी. चर्खी में साथ घूमते हुए कसमें खाई थी. भुला ये सब भूल कर 'उसकी' आशाएं मत तोड़ देना
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३३३
ज्वत्यां बळ्दुं तैं पींडु ल्है, हळ्या कु रोटि गुसैंण
र् वट्टि खै जावा धै धवड़ी, खेति का द्यब्ता दैण
(जुते बैलों के लिए पींडा (चाटा ?) और हलिया के लिए गृहस्वामिनी रोटी ले आई है. कृषि के रखवाले देवता! तुम फलदायी होना. देखिए पूरी 'सार' में धाद लग रही है-रोटी खाने आ जाओ हो!!!)
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३३४
ओहो जमाना धन्य त्वे, सबी मुबाइलबाज
डाखानों मा स्वी न सै, मिसकालों कु रिवाज
(हाय रे जमाना! तुझे धन्य है. तेरे वक्त में सभी मोबाइलबाज हो गए हैं. डाकखानों में सब कुछ ठप्प है, न चिट्ठी, न पोस्टकार्ड, न तार. अब तो मिसकाल करने का नया रिवाज चल पड़ा है.)
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३३५
लै टीपी छंछ्यादि रौं, गिंवड़ि सार मी ब्याळि
यकुलांसी मौ अफी अफी, न क्वी जिठो ना स्याळि
(कल मैं गेहूं की सार में कटाई, टिपान व गुच्छियां बनाता रहा. क्या करें, अकेले परिवार में सब खुद ही करना पड़ता है. न कोई जिठो है न साली, किसे कहें कि गेहूं काटने आ जाना!)
 
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३३६
त्वा! बर्खा कन डळै गई, कटीं दैयूं तिरपाल
द्वी बलड़ी ज्वा खेतुं मा, तौंकु त रखदी ख्याल
(अरे बारिश! कटी दैयूं (खलिहान में एकत्र फसल) में तुमने तिरपाल डलवा दिए. दो चार बालें, जो खेतों में रही थी, कम से कम उनका तो खयाल रखती. ऐसे मुख्य समय में अब किसान क्या करेगा?)
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३३७
फ्योंळि सि क्वांसो तन म्वलैम, चार दिनूं का बान
रितू नि राली उमर उनी, धरती मा भगवान
(फ्योंली के फूलों सा मुलायम शरीर केवल चार दिन के लिए रहता है. जिस तरह ऋतुएं सदा नहीं रहती, उसी तरह उम्र (यौवन) भी हमेशा नहीं रहता, चार दिन ही रहता है. इस धरती पर यही ईश्वर की लीला है)
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३३८
खेति बंजीं गौं खणखणा, सूंगर बांदर मूस
उत्तराखंड मा साब बोन्ना, चला खयोंला घूस
(खेती बंजर होती जा रही है, गांव खाली बटुवे जैसे हो गए हैं. सुअरों, बंदरों व चूहों की गश्त चल रही है. इस पर भी उत्तराखंड में बड़े बड़े साहब लोग कह रहे हैं - चलो जरा 'घूस रिश्वत' खा आते हैं.)

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३३९
खड़ी कटीं दैं जखातख, ऐंसू पड़द अकाळ
औडुळ बर्खा गैरबगत, ल्हैगी न्यूती काळ
(खड़ी फसल व कटी दैं (खलिहान की बालियां) जहां की तहां रह गई है. लगता है इस बार अकाल पड़ता है. गैरवक्त की बारिश व तूफान हैं, ये किसान के काल को बुला रहे हैं)

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३४०
देखे रूढ़ि का रूप कै, इतरी उमर कटेगी
ऐंसु कु करड़ो घाम पर, जीवन ब्यूंत सुखैगि
(गर्मी के कई रूप देखते हुए इतनी उम्र बिता दी है. इस वर्ष का कड़ा घाम तो जीवन के आधार को ही सुखा दे रहा है)

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