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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Sunday, May 28, 2017

"गढ़वाली बिरह गजल"

स्वील घाम,,,
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by-देवेश आदमी

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आज फ़िर यु ब्यखुनि कु   स्वील घाम रुवांसु कै गे मेरु पराण,,,
झणि कनख्वे छबलाट कैकि ये गे फिर सयुं  स्वील घाम कु पितळण्य मुखड़ी,,,

कुछ पराण मेरु रुवांसु च जरा सि ब्यखुनि कु यकुलांस चा,,,
सुनपट ह्वै गे गॉँव का ख्वाला जैगुणा म्यार डिंडोली म लुक्का छुरी छन ख्यणा,,,

उद्द्गार छन जिकुड़ी म लगी आस कभि बौडी आला तेँ मुलुक बैठ,,,
राजि रख्याँ बूण घार उच्यणु गड़ी देवी कु न्यूतु करूल नृसिंघ कु,,,

लाटा त्वे बिगर नव्ला कु पंदौल सि ह्वै य बर्षोंणय आँखि मेरी,,,
खुटयों का कांडा त सब दयख्ला पर जिकुड़ी का छाला त्वे दिखादु,,,

झणि किलै आज नखुर लगणु त्वे बिगर या चुल भितर भभरई आग,,,
टोखिण सि लगणु ज्वान छोरों की य बांसुरी कि सुलगणि,,,

जओठ म दयू जलोनु म मेरु गैति आज झर किलै कनी चा,,,
पलतीर टवाला उठि गेन खबेसों क कैकु अई होल आज तार,,,

चलि गे स्वील घाम अब त चखुला भि अपुड़ा घोल म निंदले गे होला,,,
पर बिचरु मेरु हिलांस सि पराण अगास कखि डब्केनु किलै चा,,,
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कुंगली ह्वै गे जिकुड़ी.....!!
देवेश आदमी

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