डा. बलबीर सिंह रावत
गेंदे का मूल स्थान मेक्सिको,मध्य और दक्षिण अमेरिका है , लकिन यह भारत के हर क्षेत्र में आसानी से उगाया जाता है. इसके फूलों का सब से अधिक उपयोग पूजा में मालाएं बनाने में होता है। चूंकि इसके फूल प्रायः हर मौसम में उपलब्ध रहते हैं तो इस की खेती करना कितनी लाभदायक हो सकती है यह इस बात पर निर्भर करता है की आसपास में इसकी कितनी मांग है , यानी मंदिर कितने हैं, पूजा के लिए कितने लोग वहां आते है और किन किन त्योहारों और उत्सवों में आते हैं। चार धाम यात्रा मार्गों और शहरों के आस पास के किसान इसकी व्यावसायिक खेती से अच्छा लाभ कमा सकते हैं। गेंदा फूल के दो मुख्य वर्ग हैं, एक अफ्रीकन और दूसरा फ्रेंच। अफ्रीकन फूल बड़े आकार के होते हैं और फ्रेंच कुछ छोटे। दोनों में ही नींंबुई पीला , सुनहरा पीला और नारंगी रंग के फूल अधिक पसंद किये जाते हैं।
गेंदे की खेती के लिए दोमट गहरी मिट्टी वाले खेत सर्वोत्तम होते है, मिट्टी में न तो अम्लीयता हो न ही क्षारिता, पी एच ६.५ और ७.५ के बीच का होना सही है। जल निकासी भी उचित होनी चाहिए। जलवायु सुहावनी १५ से और ३० डिग्री से. का तापमान और हल्की नमी वाली हवा सर्वोत्तम होती है। ३५ डिग्री तापमान पर पौधे मुरझाने लगते है। गेंदा हर मौसम में उगाया जा सकता है , लेकिन हर मौसम के लिए अलग अलग जातियां होती है। पहिले पौध तैयार की जाती है , फिर रोपण किया जाता है। पौध उगाने के लिए ६ X १.२ मीटर क्यारियाँ जमीन से कुछ ऊंंची रखनी चाहियें उसमे ३० किलो अच्छे सड़े गोबर की खाद तथा आधा किलो १५ १५ १५ उर्वरक डाल कर अच्छी तरह मिला देना चाहिए। क्यारियों को कृमि नाशक कप्तान द्रव्य,२ ग्राम प्रति लीटर पानी के घोले से और मिट्टी को फफूंदी मुक्त बनाने के लिए २% फोर्मलीन के घोल से तर करके छोड़ देना चाहिए। इस से चींटियाँ बीज को ले जाने नहीं आएंगी। जब मिट्टी में बत्तर आ जाय तो ६ -८ सेंटी मीटर की कतारों में, बुआई २ सेंटी मीटर गहरे में करनी चाहिये । बोये बीज को गोबर की खाद या पत्तियों की खाद से ढंक देना चाहिए।
गर्मियों की फसल के लिए पौध बोने का समय जनवरी से लेकर फ़रवरी तक का होता है, रोपण फ़रवरी से लेकर मार्च तक किया जाता है , यानी एक महीने की पौध रोपण के लिए उचित रहती, बरसात की फसल के लिए पौध की बुवाई मई जून में, और जाड़ों की फसल के लिए मध्य सितम्बर से मध्य अक्टूबर तक। की जानी चाहिए। बरसात के मौसम के गेंदे के लिए अफ्रीकन जाइंट टॉप येलो , जाफरी और लड्डू गेंदा प्रजातिया और जाड़ो के लिए पूसा नारंगी, पूसा बसंती , अफ्रीकन जाइंट डबल येलो और टाइगर ( पीला और लाल ) प्रजातियां उचित रहती हैं। बीज की मात्रा गर्मी और बरसात की फसलों के लिए २००-३०० ग्राम और जाड़ों की फसल के लिए १५० से २०० ग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से बोनी चाहिए। एक माह की हो जाने पर पौध का रोपण करना चाहिए।
खेत की जुताई ठीक से होने चाहिए. प्रति एकड़ ८० -१०० क्विंटल गोबर की खाद, ११५ किलो नाइट्रोजन २४ किलो P२ O५ और २४ किलो K२O उर्वरक डाल कर अच्छी तरह मिला देने चाहियें। रोपण कतारों में, अफ्रीकन नस्ल के लिए ४५ सेंटीमीटर की दूरी पर और फ़्रेंच नस्ल के लिए ३० सेमी दूरी पर करना उचित रहता है। रोपण के तुरंत बाद सिंचाई और फिर हर ७ - ८ दिनों में। गर्मी में कुछ जल्दी और जाड़ों में कुछ देरी से। रोपण के ३०- ३५ दिनों बाद पौधौं की पिंचिंग से , यानी शीर्ष की कली को तोड़ देने से, अधिक कल्ले फूटते हैं तो फूल अधिक लगते हैं. पिंचिंग के तुरंत बाद और फिर महीने महीने के अंतराल में नाइट्रोजन वाले उर्ववृक सिंचाई के साथ डालना चाहिए, इस से पौधे स्वस्थ रहते हैं और अधिक फूल देते हैं।
गेंदे के पौधों को बीमाररियों से बचाने के लिए समुचित उपाय समय पर कर लेने चाहियें। पौधों की जड़ों तनो और कोंपलों को काटने वाले कीड़े, पतियों का कोंपलों का रस चूसने वाले जंतुभरी नुक्सान पहुंचा सकते हैं , इनके रोक थाम के लिए कृमि नाशक घोल , जैसे कुणालफॉस ०.०५ % ,, डाइकोफोस ०.१ % या केलथें घोल २ एमएल प्रति लीटर पानी में, छिड़कने से ये कृमि नष्ट हो जाते हैं। कीटों के अलावा फफूंदी भी पौधों के तनों, जड़ो, पत्तियों और फूलों को नुक्सान पहुंचा सकती हैं. फफूंदी उपचार के लिए कई प्रकार के फफूंदी नाशक रासायन मिलते हैं, किसी एक का उपयोग करके इस रोग से भी छुटकारा पाना सही रहता है।
रोपण के ढाई महीने में फूल तुड़ाई के लिये तैयार होने लगते हैं. तुड़ाई से पहिले सिंचाई कर देने से तोड़ने के उपरान्त फूल अधिक समय तक ताजा रहते है। फूलों को थोड़े लम्बे डंठल समेत तोड़ना चाहिए। पहिली तुड़ाई के बाद २ से २ १/२ महीनो तक पौधों में फूल लगते रहते हैं। स्थानीय या कुछ दूरी के बाजार के फूल बांस की टोकरियों में या जूट के बोरो में भरे जा सकते हैं , लम्बी दूरी के लिए पैकिंग और अधिक अच्छी और इतनी मजबूत होनी चाहिए की लदान और ढुलाई के दबाव से फूल बचे रहें।
गेंदे के उपज काफी अच्छी होती है। अफ्रीकन नस्ल की उपज औसतन ४,५०० किलो प्रति एकड़, और फ़्रन्च नस्ले की ३५०० किलो के लगभग होती है। बाजार की दैनिक और सामायिक मांग के अनुरूप खेतों का साइज तय करना चाहिए ताकि साल भर , घटती बढ़ती मांग की आपूर्ति ठीक से होती रहे। इसके लिए बुवाई, तुड़ाई का सालाना चक्र बना लेना चाहिए। गेंदे की खेती का लाभ , इसके फूलों की कीमत पर निर्भर करता है, अगर उत्पादक सीधे फटका विक्रेता को ही अपनी उपज बेच सकता है तो लाभ अधिक होगा ,जीते अधिक बिचौलिये होंगे उतना ही लाभ की मात्र घटती जाएगी।
पूजा, माला , सजावट के अलावा गेंदे के फूलों से आयर्वेद और होमेओपेथी की दवाएं भी बनती है, इसकी पंखुड़ियों से मुर्गीयो के दाने में मिलाने का चूर्ण भी बनता है , जिस से अण्डों में पीलापन बढ़ता है। गेंदे के बीज बेचने का व्यवसाय भी लाभ दायक व्यवसाय हो सकता है , इसके लिए नस्लों की शुद्धता और बीमारी रहित उपज लेने की व्यवस्था का प्रमाणीकरण करवाना अच्छा रहता है।
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