कवित्री - सुनीता शर्मा, लखेड़ा
पलायन कि पीड़ा च त्यार हृदय मा बाँझ पड़ी छन पुन्गुड़ी गुठ्यार सरा !
अपाहिज ह्व़े गयों मि ,भी त्वे जनि,
मी नि बिसरे छौ त्वे जन !
सुप्नेय कु तान- बान मा दूर ह्व़े ग्यों बस ,
मरर्ण बाद जन शरीर कु हाल हूंद ,
तन छाई म्यारा प्राण हे देवभूमि !
तेरी भटुळि दिन रति सतौन्दी छ ,
मुल मुल कैकी हसंदी ऐ जांदी तू सुपन्यों मा,
भूखि तब भी रौन्द् छयी ,अब भी वनी छ ,
नौनियों का बचपन त घर भीतर सिमट गेई ,
उनक खेल परदेश मा खोई गैन !
यख ता मी पैल बि इखुलि छाई ,अर अब बि ,
प्रवासी हूण की सजा भुग्दी रौंदु सदनि ,
अब त वापिस आण बि चांदू पर .....,
सुप्न्युन व् हकीकत कु अंतर्द्वंद ,च लग्युं !
पलायन कु पीड़ा च तयार हृदय मा
बाँझ पड़ी छन पुन्गुड़ी गु ठ्यार सरा
बाँझ पड़ी छन पुन्गुड़ी गु ठ्यार सरा
Copyright@ Sunita Sharma
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