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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Monday, July 2, 2012

अन्तुरी मा त पहाड़ ही ऐला

कवि- नरेंद्र गौनियाल
 
[पहाड़ो के गीत; पहाड़ो की कविताएँ, गढ़वाल के गीत; गढ़वाली गीत;
गढ़वाली कविताये; उत्तराखंडी  भाषा में गीत, उत्तराखंड की कविताएँ ]

हैरी-भैरी छै पुंगड़ी जु कैइ दिन,
जख्या-दुबलू वख आज जम्युं चा.
जौंकि तिबारी मा लगदी छै कछ्डी,
हिन्सोली-किन्गोड़ी वख आज लगीं चा.
बुढया-बुढड़ी अर छवटा  नौनि-नौना,
इकुला-दुकला ही गौं मा रैगेनी.
बुढया बल्द अर ढांगी गौड़ी,
कूड़ी-छनुड़ी बि रीति ह्वैगेनी.

पुंगड़ी-पटली ह्वैगेनी बांजी,
सेरी-घेरी बि रुखड़ी ह्वैगेनी.
सगोड़ा-पतोड़ों मा जमदो कंडेया,
छूटा-पूटा निकज्जू ह्वैगेनी.

उन्द चली गैनी क्वी द्वार ढेकी
कैन ब्वे-बाब रखीं जग्वाल.
ढुन्गु फर्कैकी क्वी चली गैनी,
छट छोडि कि अपणो पहाड़.

गाड-गद्न्युं कु सुक्की गे पाणि,
डांडी-कांठी बि नांगी ह्वैगेनी.
पाणि मोला कु गौं मा ऐगेनी,
पंदेरा-नवल्यूं अग्यार नि रैनी.

दूध -घ्यू का सुकी गईं जळडा,
दारू गौं-गौं मा मिलण लगीं.
दूधि छोडि की पीणा छन नौना,
मूल़ा की कच्बोळी  का दगड़ी

सड़क-इस्कूल खुली की जगों मा
सभ्यता कु विस्तार ही हूंदा .
इन्नू फूटी गे ख्वारो हमारो
सभ्यता सर्र हरचण लगीं चा.

मेरा प्रवासी भै-बन्दों सूणा,
चाहे छा तुम दुन्या कैबि कूणा.
तुम ख़ुशी से कमावा अर खावा
कब्बि -कब्बि तुम पहाड़ बि आवा.

अपणि ब्वेई त अपणि ही हूंद,
अपणि भूमि बि अपणि ही हूंद.
रिंगदा-रिंगदा कखि-कखी बि जैला
अन्तुरी मा त पहाड़ ही ऐला...
      डॉ नरेन्द्र गौनियाल ...सर्वाधिकार सुरक्षित.

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