कवि- विजय गौड़ (पूना)
छि भै बोड़ा यन्न नि रुसान्दा,
अपणा नौन्यालू और भै-बन्दों थैं, सिन नि तर्सान्दा,
हपार देख! बोड़ी ढयाँ मा जईं धै लगाणु,
बल, उज्याड़ नि जांदा, च्या ठंडी हूणि, प्ये जा,
मानसिंग बोड़ा ऐजा!!!
माना की मैंगै भिंडी हवे ग्ये,
और कमै का वास्ता, तू प्रवासी हवे ग्ये,
नौन्याल भी हाथ नि बटाना छन,
और तू यकुलू प्वैड ग्ये,
पर बोड़ा! नाती-नतिणों की गट्टा-कुंजों की आस लगी च, दये जा.
मानसिंग बोड़ा ऐजा!!!
एक मैना बिटिन्न बोड़ी सज-धजी बैठीं च,
तेरा औण की खुशि मा, देखा कनि तणितणी हुयीं, कन्न ऐंठी च
सुच्णी च अब त बोर्डर पर लड़े वला दिन भी नि छन,
रिटैर आदिम थैं यन्नी देर किलै लग्नी च,
उठ, खड़ू हो और दिखे जा दम ख़म, अपणु प्रेम छलकै जा,
मानसिंग बोड़ा ऐजा!!!
तेरु उत्तराखंड जू अपणी हरयाली कु जणेदु छौ,
देख कनू खरडु, कनू निरस्यु दिखेणु च,
माना की त्येरा भै बंद अब मुंगरी, कखड़ी, गुदड़ी सब बिसरी ग्येनी!
पर त्येरु त अपणु धरम, अपणी मान मर्यादा च,
आ! झमाझम बरखी, कुयेड़ी लौन्कै, अपणु "डिसिप्लिन" दिखै जा,
मानसिंग बोड़ा ऐजा!!! सब्यो की तीस बुझै जा!!! तरस्यु सरेल रुझे जा!!!
श्रद्देय कुकरेती जी,
नमस्कार! आपकू आज कु लेख 'मानसून अ दगड मुखसौड़' पैड़ी मिथें भी कुछ लिखना की खज्जी हवे ग्ये, और मिन शुरू कैर द्येनी अपणा उदगार लिखणा.
आप्थैं ताता ताता उदगार कविता का माध्यम से भिज्नु छौं, आशा च आप अपणी समीक्षा भेजला...
विजय गौड़
०३-०७-२०१२
सर्वाधिकार सुरक्षित
छि भै बोड़ा यन्न नि रुसान्दा,
अपणा नौन्यालू और भै-बन्दों थैं, सिन नि तर्सान्दा,
हपार देख! बोड़ी ढयाँ मा जईं धै लगाणु,
बल, उज्याड़ नि जांदा, च्या ठंडी हूणि, प्ये जा,
मानसिंग बोड़ा ऐजा!!!
माना की मैंगै भिंडी हवे ग्ये,
और कमै का वास्ता, तू प्रवासी हवे ग्ये,
नौन्याल भी हाथ नि बटाना छन,
और तू यकुलू प्वैड ग्ये,
पर बोड़ा! नाती-नतिणों की गट्टा-कुंजों की आस लगी च, दये जा.
मानसिंग बोड़ा ऐजा!!!
एक मैना बिटिन्न बोड़ी सज-धजी बैठीं च,
तेरा औण की खुशि मा, देखा कनि तणितणी हुयीं, कन्न ऐंठी च
सुच्णी च अब त बोर्डर पर लड़े वला दिन भी नि छन,
रिटैर आदिम थैं यन्नी देर किलै लग्नी च,
उठ, खड़ू हो और दिखे जा दम ख़म, अपणु प्रेम छलकै जा,
मानसिंग बोड़ा ऐजा!!!
तेरु उत्तराखंड जू अपणी हरयाली कु जणेदु छौ,
देख कनू खरडु, कनू निरस्यु दिखेणु च,
माना की त्येरा भै बंद अब मुंगरी, कखड़ी, गुदड़ी सब बिसरी ग्येनी!
पर त्येरु त अपणु धरम, अपणी मान मर्यादा च,
आ! झमाझम बरखी, कुयेड़ी लौन्कै, अपणु "डिसिप्लिन" दिखै जा,
मानसिंग बोड़ा ऐजा!!! सब्यो की तीस बुझै जा!!! तरस्यु सरेल रुझे जा!!!
श्रद्देय कुकरेती जी,
नमस्कार! आपकू आज कु लेख 'मानसून अ दगड मुखसौड़' पैड़ी मिथें भी कुछ लिखना की खज्जी हवे ग्ये, और मिन शुरू कैर द्येनी अपणा उदगार लिखणा.
आप्थैं ताता ताता उदगार कविता का माध्यम से भिज्नु छौं, आशा च आप अपणी समीक्षा भेजला...
विजय गौड़
०३-०७-२०१२
सर्वाधिकार सुरक्षित
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आपका बहुत बहुत धन्यवाद
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