मदन डुकलाण की नायब गढवाळि गजल
[ गढ़वळि गजल विधा तै अग्वाडि बढ़ाणम मदन डुकलाण क काम भौत इ जादा च . मदन डुकलाण कि गजलों खासियत या च बल यूँ गजलों मा पहाड़ क सरोकार त होंदी छन दगड मा गजलूं पर गढवळी छाप पुरी तरां से रौंद. फिर गजलूं मा एक तीस हूंद , एक टीस हूंद; , रूमानियत हूंद, एक तरलता हूं, एक बौगाण (बहाव) हूंद .मदन कि हरेक गजल बंचनेर तै चौन्कांदी जरूर च अर पाठक तै घड्याणो /सोचणो मजबूर करदी . कबीर कु उलटवासी या विरोधाभास दिखणायि त ल्याओ मदन डुकलाण कि गजल बाँचो - भीष्म कुकरेती ]
मिल त वो अपणो जीवन इनी भ्वाग भैजी
बचपन रौ नांगो जवानी पसिना मा बौग भैजी I
अर जैका बान मिल यो जोगी को भेष धारो
वो भी कबि णि मीलो , छौ मेरो भाग भैजी
जै बि दै गास-गफ्फा, वी बिल्कदों कुकुर सि
आंदो च नी समज मा दुनिया को राग भैजी
चौछड़ी च हाई हाई, लुटालुटी मची च शोषण
यख न धुंवा, न खारो , कन भारी आग भैजी
अब ये मुलक का ढिबरा नि जळकदा-बिचळदा
यो रंग को सफेद फैली गे बाग़ भैजी
अब ज्वान ल्वैइ परा बी कुचः रै चरक -फरक नी
जाणा छन अबट ये, लग कैकु दाग भैजी
(साभार- हिलांस, जन.फरवरी १९८९)
सर्वाधिकार @ मदन डुकलाण , देहरादून . २०१२
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