अप्रत्याशित मोह ****
कवि- नरेंद्र गौनियल
मेरे यौवन के आँगन में,
क्यों यह प्रेम भावना आई .
मद की प्याली भर-भर के,
क्यों मुझे पिलाने आई.
मै कृशकाय भला था लेकिन,
यौवन फिर भी अपना रंग लाया.
संयम की डोरी से चित चंचल,
पूर्णरूप से बाँध न पाया.
मेरे शांत-सरल चित्त पर,
क्यों यह ज्वाला धधक उठी.
कुसुमायुध का अस्त्र अहो,
क्यों यह संयम भित्ति हटी.
चिंतन सागर में डूबा मैं,
सोचा क्या त्रुटि हुई मुझसे.
भ्रमर पराग पा सकता है,
क्या सुन्दर पुष्पित उपवन से.
हाँ लेकिन मैं तो निरपराध हूँ,
त्रुटि नहीं मैं कोई कर पाया.
गंतव्य मार्ग पर निर्विकार,
निष्काम भाव से था मैं आया.
चलते-चलते उपवन में,
अति सुन्दर पुष्प परिलक्ष्य हुआ.
विस्फारित नयनों से अपलक,
कुछ मोहित सा सुधिहीन हुआ.
मन में मुस्कान उठी कुछ मृदुमय,
मन ही मन मात्र मंद मुस्काये
प्रत्युत्तर में परन्तु परस्पर,
होंठ नहीं फिर भी खुल पाये.
सहसा बोध हुआ तत्क्षण ,
किंचित शक्ति मिली संयम को.
मर्यादा फिर जाग उठी,
उद्द्यत हुआ अपने गंतव्य को..
डॉ नरेन्द्र गौनियाल....अप्रकाशित ,अपूर्ण आत्मकथा -*त्रिशंकु *के लिए रचित १९८३.
*****अनंत प्रेम****
कवि- डा. नरेंद्र गौनियाल
प्रेम और मोह
संलग्न थे
मन करता था
देखता रहूँ
छूता रहूँ
ह्रदय से लगाता रहूँ
निरंतर
फिर बोध हो गया
मोह छूट गया
प्रेम रह गया
देखूं या न देखूं
छुऊँ या न छुऊँ
आलिंगन करूं न करूं
प्रेम यथावत
आत्मज्ञान
मुक्त कर चुका
मोह पाश से
राह लूं
गंतव्य की
निर्मोह
निर्विकार
प्रेममय
यह प्रेम
ह्रदय से उपजा
आत्मा में समाहित
स्थूल से
सूक्ष्म की ओर
सूक्ष्म से सूक्ष्मतम होता हुआ
अब शेष है
प्रेम ही प्रेम
राग-द्वेष से परे
मोह रहित
अनंत प्रेम ....
डॉ नरेन्द्र गौनियाल
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