गढ़वाळी ठाठ
कथाकार - स्व सदा नन्द कुकरेती
गढ़वाळी ठाठ -१
गढ़वाळी ठाठ - २
गढ़वाळी ठाठ .
(गढवाली की प्रथम आधुनिक कहानी के कुछ भाग)
[ विशाल कीर्ति का ऑगस्ट, सितेम्बर
अक्तूबर १९१३ के अंक मेरे पास है जिसमे 'गढवाली ठाठ ' का एक भाग छपा है इस
अंक से लगता है की यह कहानी बहुत लम्बी रही होगी . इस अंक से पहले का भाग
स्व रमा प्रसाद घिल्डियाल के पास था . यंहा उस भाग को प्रकाशित किया जा रहा
है ]
----- गतांक से आगे --
गणेशु
गुन्दरु कि परसे व ळी बात सुणिक तै चुप्प ह्वेगे पर गुन्दरू का मुख पर दीन
भाव से देखदु ही रहणु च. गुदरू भी गुड़ कि डळी चाटदो ही जाणू छ. गणेशु
करयान नी रै सके यो अंत मा फिर बोली उठे . मी त्वे तनि पकोडि दय्लो तब
हाँ .
गुन्दरू बि लालच मा ऐगे . बोलण लगे अच्छा लौट .
एक
सलाह की बात ह्व़े गे. द्विये एक कुळेञठि पर बैठ्या छन. द्वियों का नाक
बिटे सिंगाणा कि धारा बगणा छन अपर द्विये मिली जुलिक गुद-पकोड़ी खाई रइन .
इतना भी भौत छ कि हम आपस मा बाँटण चुटण की बात भी तीन ही बरस
का भीतर सीखी लेंदा. जन-जन हम बड़ा होंदा तनि-तनि ह्मुमा कुछ हौर बात घुसी
जान्दन. तब हम बांटिक खाणू सर्वथा भूली जांदवां . भला होओ गुन्द्रू या
गणेशु की द्वियूँ मा ण एक पकोड़ी या गुड़ कि डळी ठगीकतै भीतर णि भागि
गये.
गुन्दरु का नाक बिटे सिंगाणा की धारि छोड़िक वे को
मुख वे की झुगुली इत्यादि सब मैली छन. गणेशु की सिर्फ सिंगाणा की धारी छ
पर हौरि चीज सब साफ़ छन. वां को कारण गुन्दरू की मा अळसटि, चळखट अर लमडेर छ.
भितर देखा दीं बोलेंद यख बाखरा रहंदा होला . म्याळ खणेक धुळपट होयुं छ.
भितर तक की क्वी चीज इथै क्वी उथें. सारा भितर तब मार भिचर -पिचर होई
रये. अपणी अपणी जगह पर क्वी चीज नी छ. भांडा कूंडा ठोकरयुं मा लमडणा रंदन.
पाणी को भांडो, कोतलो देखा दों . धूळ की क्या गद्दी जमी छ यों का भितर
को पाणी पीणो को मन नी चांदो. नाज पाणी की खतफ़ोळ. एक माणी कू निकाळन त
द्वी माणी खतेय जान्दन. घर जु कै डोम डोकळा भीख भिखलोई सणि देणा कू बोला त
हरे राम ! याँ की नाम नी , कखी दूर बिटे कुई भिखलोई आन्द देख याले त टप्प
द्वारों पर ताळी ठोकीकतै कखी चली जाणो .
गणेशु की मा स्वाळा बणोंन्द जो दाड़ी मुड़े कुरमुर
करन. स्वाळा वो जो खाणा वाळो द्वी स्वाळा मा छक ह्व़े जांद. वा इनि -कनि
चीज बणाइ जाणद, फिर इन नी कि पकौंण मा द्वी घड़ी से भी जादा अबेर होई
जाव. सब चीज चटपट उबरे ही लेवा . अर फिर साफ़ . कखिम जळयूँ भळयूँ नी. आया
गया को सौसत्कार करनो गणेशु मा अपणो परम सौभाग्य समझद. भीख भिखलोई का
वास्ता कानू अच्छो प्रबंध छ .कर्युं रहंद . छै सात हांडी रसोईघर मा धरीं
रंदान . आटो, चौंळ, दाळ, लोण, मसालों जो कुछ चीज सांझ सुबेरा का स्वाळा
पकौंण कु औंद , वख मदे एक एक चुटकी यूँ हाँडियूँ मा धरि दिया जांद.
गणेशु की मा : यो वर्ष रोज को त्यौहार . थोड़ी जरा
भुड़ी पकोड़ी चएंदी छन. द्वी पकोड़ी अर द्वी स्वाळा गुन्दरू कि मा क हाथ मा
भी धरनी छ.
लेवा दिदि द्वी भूडा चाखदाई.
गुन्दरू की मा: गिच्ची आँखा मटकाई केक हाथ पसारिक तें ' द
भग्यानी ? तिन त करि दिने कन्ने वे लोळा गयां मयां कोल्या मु मेरी भी छई
बोल्दी नाळेक तिलु देई . पर रांड होई वैकी त वक्त पर क्वी चीज कभी नी
देंदो . एक कमोळा पर द्वि माणी तेल इन्ने क्बारि वार त्योहार कु तै मेरि
भि चहे बचै पर क्या करे। बोल्दो, एक दिन साग भुटण कू निकाळनू छयो कि लस्स
छूटे कमोळि हाथ परन और चकनाचूर . भूलि ज़रा रयुं छ त अबारे काम चलाणुक
देई आल दुं ' गणेशु की मा , दिदि जी देखदो जु रयुं होलो त . र्रू तार
करीकतै निकळी गये. ल्या दिदि जी इतने छ रयुं . पुरो होवो नि होवो यांकी
देव जाण
[ यह भाग श्री रमा प्रसाद जी के संग्रह का है. रमा प्रसाद जी के सुपुत्र
श्री अनिल घिल्डियाल ने श्री अनिल डबराल को दिया. यह कथा भाग श्री अनिल
डबराल की पुस्तक 'गढ़वाली गद्य परमपरा ;इतिहास से वर्तमान ' के ४३२-४३३
पृष्ठों में प्रकाशित है. ]
कथा का शेष भाग जो मेरे पास है वह आगे क्रमश: ......
( यह कथा
भाग विशाल कीर्ति के भाग -१, अगस्त , सितम्बर, अक्टूबर १९१३ की संख्या
स-८-९ में ४६ पृष्ठ से शुरू हो पृष्ठ ५० तक है और उसकी प्रतिलिपि मेरे पास
है . असली प्रति इस सदी के महान चित्रकार श्री बी. मोहन नेगी जी पौड़ी के
पास है . मैंने यह प्रति ठाणे में कौथिक के समय देखी थी. मै श्री नेगी जी
को कोटि कोटि धनयवाद )
( गतसंख्या से अगाडी )
कैकी पकोड़ी , कैकी सकोड़ी, वोर वख दांत ही टूटी गै
छ्या . विचारी कि दाल दुदलि करीन इ छयी. बस बिना तेल वा दाल छास्स तव्वा
मा उनने दमे अर वी पकोड़ा बणि गैने . घडेक तक गुन्दरू का बाबू की जाग मा
बैठीं रये. (वैको बाबु हळ जोत लेणकु जायुं छयो. ) कि विचारी सणि जाग्दो ऊंग
लगणि बैठी गे. कैको झगड़ा न रगडा अपणा तुपुक खांदा ही उब्बो, आनंद ते
फसोरिक तै सगे. गुन्दरू भी गुड़ कि ड़ळी लस्कौन्द- लस्कौन्द पहिले ही से
गई छई . झगड़ा मीत्यो .
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गणेशु कौनका भितर स्वाल़ा पकोडौं
की खूब खदर बदर मचीं छ. एक तरफ मिट्ठो भात (खुश्का ) भी उड़णु छ. खनारा
भी खूब जुड्या छन. लोखुं की खूब घपल-चौदस मचीं क्स्ह्ह. खनारों की एक पंगत
(पंक्ति) उठणी दुसरी बैठणीछ. अभी हौरी कतना बैठदान -उठदान कुछ मालुम नी.
कारी-बारी लोग देण दाण मा जुटयां छन. खनारा बाजि बक्तमु कारीबार्युं सणि
बड़ा ही तंग करी देंदान . एक कोणा बिटे एक बोलद, " भाई ! दाल , दाळ ."
तवारि हैंका कोणा बिटे हैंका बोलद , भुज्जे भुज्जी" हैंको हौरी ही नारा
गोरा दिखौन्द . एक- बोल्द- आलो भगळी . का, हाँ- दग्ण्यो की बात छन -तू
जाणी. दुसरो बोलद- आलो घना का , अपणो देंदारो अंध्यारी कोणी -जरा रैतो त
दे. तीसरो बोलद - हाँ बै हाँ , देखलो त्वे . तवारि एक तरफ फैलू जी भी
अन्धेरा कोणा तव जपकी जुपकी लगौणू छ . चळक- बळक , खसर -बसर एमु खोब औंदन.
यो, गौं मा महाचोर छ. यो निगाह को भी टेणो छ. ये कि वाच भी लटपटी छ. लोकहु
को बोल छ कि ये टेणा मेंणा कभी भला नि होंदा. अर सची , यो टेणो भी जाज
-काज मा चोरी कौरिक फुकान मचौन्द . एको काम ही इ छ. रात गौं मा लोकहु की
बुसड़े उजाडिक तै भी छुट्टी करद . इबारे स्वाळि पकोड्यू की ही राशि मा
बैठ्यु छ. सुर एक सुर द्वी इन्नी कौरिक तै येन अपणी चोरकीसि डट्ट बणाइ
दिने.चोरकीसि पर एकी आग लगली. इवारे कि दफै त लिंगल दा की नजर पडिगे. पर
यो भी इनने ही चोर छ. अर खांदो छ चार पथा को ! लिंगल न पूछे क्या छ ल़ो
फैळू होणू . फैळू आंखा टेणा करिक तै बोल्द- औडक्या क्याट -अड टेड़ो क्याट
होनू ? लिंगळ डा इतना मा चुप्प ह्व़े गे. करण वख्मु तवारी मूसा पधान जी
ऐगैने . इतना ही होयो. एक कन्डो स्वाळा पकोडौ गौं तव भी बांटेइ गये.
किलै नि हो - नत्थू सणि चौकुलो दिये कि कुछ ठट्टा. चार स्वाळे अर द्वी
पकोड़ी हमारा हाथ भी लगिने.
अहा ! गृहस्थाश्रम होव त इन्ने
ही हो जख सरो घर भरपूर छ. सदा चार घड़ी चौसठ पहर आनंद ही आनन्द देखण मा
आन्द . अच्छी ही अच्छी बात सुणन मा औंदन. अपणा पल्ला थोड़ा भौत काळा अल्षर
भी छन. सुबुद्धि छ -सुविचार छ. संध्या-छ -पूजा पाठ छ. ज्ञान छ -ध्यान छ.
दान छ - पुन्य छ. जथै देखा संतोष और शान्ति ही बिराजमान छन. त बोला वख
लक्ष्मी बुलौणकु न्यूतो (निमंत्रण पत्र) सि क्या भेजणो पडद.
भैयुं ! और दीदि भुल्युं ! यदि तुम अच्छा
गृहस्थ होण कि इच्छा रख्दाई त सत्संग और सत्कर्म करा. क्या करणाये वे
गृहस्थ को जख दिन रात 'तेरी' 'मेरी' को ही किकलाट मच्युं रहंद. रोज मर्रा
दंत बजाई होणि रहंद. दंत कख छै भली. जख दीन खाई -खाणि नी रात सेई - सीणि
नी. एक बोल्द 'तिन खाये' हैंको बोलद 'तिन खाये'. अंत मा देखा त कैन भी नी
खायो. सभी हाथ झादिक तै चली गैने अर जाला. नाहक को जळवाडो. नाहक की ठीस
रीस सखी मरोड़ . इना जना कना गृहस्थाश्रम ते त अपनों चुप ही भलो. अलग हो
भलो. फ़कीर ही होणो भलो. पर फ़कीर कना? एक त तुमारो मतलब उना फकीरू ते होलो
जो गृहस्थुं ते भी मीलू अगाड़ी छन. गृहस्थुं का साल द्वी साल मा एक बच्चा
होए त यून्का खासा चार गणि लेवा. मार घिघ्याघ्याळी . शिव ! शिव ! फकीर होण
ते मतलब इन फ़कीर ते नी. छि: छी: इना फकीरू का नौ त ओ: वी उड़ ताले 'जु'
अर कुंदन 'त्ता' . देश को आधा नाश त यूँ फकीरू नै कारे. खैर , इना फकीरू
बातू की चर्चा फिर कभी रहेली.
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"
नत्थू द्यू बाळन को समय ह्वैगे , दिया बाळ . गणेशु कख छ, तै सणि भि यखम
बिठाळ . वै गुन्दरू सणि भि धाई (ध =ऐ ) लगौ. आवा, सब यखमु बैठा. आखर
बोला." इतना बोलीक नत्थू या गणेशु को बाबू संध्या -पूजा तै निपटीक छाजा मा
बैठिगे . नत्थू न दियो उओ बाळिक सब तर्जेकार कर्याले । अपना छोटा भुला
गणेशु तै ल्हैगे .गुन्दरू सणि बुलाणु गयो. पर, उ देखेव त अगास (आकाश)
टूरो करिकतै नांगा मेंळा मा सेयुं छ . " गुन्दरू ! गुन्दरू! कख छै बाच.
हाथन झकौळन लगे छयो कि मार भुण भुण भुण मखों क भिमणाट . नत्थू न समजे या
क्या बला आये. घडेक ये तमाशा देखिक छिछ्की रैगे . उबारी इनु समझेय बोलेंद
कखी म्वारो को जळोटो खाली ह्व़े होलो. जबारी गुन्दरू सेण पड़ी टो वैको
गिच्चो गुड़न लाप्तायुं छयो. याँ टे वैका गिच्चा पर दोणु माखा चिपट्याँ
छ्या. ओ लोळा माखा झामट पड़न पर भी नि उड्या. ऊँ समजे इन भर्युं घर (गुन्दरू
गिच्च) हम सणि दैव ही छप्पर फाड़ीकतै देगी. होय न .नत्थू वै सणि फिर झकोळन
लग्यो. पर हे राम ! हजार कळा करिने -गुन्दरू खड़ो नि करिसक्यो उल्टी गाळी
जि देण लग्ये . ' ऐं बे चुचला (ससुरा) ,हमचनी ( हमसणि ) चेनिडे (सेणि
दे) " इत्यादि. वहां भितर , चुल्खान्दा उब्बो गुन्दरू कि मा भी पड़ी क्या,
सेंइ छ पर ड़ बकी मजो (दैव की भजो) कुछ खबर ही नी कि भित्रतब को यो अर
क्या होणु छ. या ह्व़े लक्ष्मी -गृह लक्ष्मी . नत्थू सणि वक्हम बिटे लाचार
उठणो ही सूझ. चल्दो ही छयो कि इतनामा वखमु प्याच करिकतैं वैका खुट्टा मूडे
ज्या पतडेई होव. लगे खुट्टा का छटा पर लसलसी . देख्दो क्या छ कि माखा अर
गुड़ कि रबड़ी बणि छे. ! भूलों! या वो गुड़ की डळी छ तुमन कभी गुन्दरू का
हाथ पर देखी होलो. जै डळीन गणेशु भी ललचाई छयो अर तुम भी तरसे ह्वेल्या.
वा डळी माखौं न इनी भरी छई कि बोलेंद रीठा दाणि रही होली. वीं डळी का ही
दगडे यूँ मखों को भी कबडचूर होए. नत्थू भी छी: छी: छीही करिकतैं भैर भागे .
वैन वख जो कुछ होई छयो, सारी कथा अपणा बाबुमु सुणाइ . दैणी तरफ नत्थू बै
तरफ गणेशु थालमाल करिकतैं बैठी गैने अर बीच मा ऊंको बाबू . बोल बेटा नत्थू -
अबे हाथ जोड़ --
" सरस्वति सरस्वति तू जाग जैणी , चढ़े हस्त लटकावे बेणी .
तेरे चुटडे लग द्वी चार . बिद्या मागा उब्बे बार
खेती न करूँ . खणज न जाऊं, बिद्या के घर बैठे खाऊं .
आई , माई जोगेश्वरी , बिद्या दे तू परमेश्वरी ."
बोल बे गणेश , तू भी बोल --
" बदरी बिशाल भेजदे रसाल ,
बद्दल से रोटी , दरिया से दाळ
खावें तेरे बाल गोपाल .'
गणेश न भी अपणी तोतली बाणी ते इतना ही बोले सकी छयो कि इतनामा, ---
गणेशु की मा - गणेशु आवा खाणकू . भयूँ ! गणेशु की
माको सोर की चर्चा , तुमारी सुणी ही रखे.क्या अच्छो स्वादिष्ट भोजन होलो ,
यांकी चर्चा ठीक नी समझेदी. सब खाई पेइक निश्चिन्त होया. थोड़ी देरमा सब
सैणो पडया.
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धार मा रतब्योण्या ऐगे/ कुर्बुर ह्वाई
रात खुलन लगिगे. भौंरा भुण भुण करन बैठिगैने. पंछी बोलन लगिगैने . हळिया
हळमू चलिगैने . अहा १ सुबेर्लेक तै हळियों की बोली " आ; आ: डी डी डी , चल
भरे चल भारे इत्यादि -२." कनी प्यारी लगी रये. खुणमुण खुणमुण बल्दू की
घांडी भी मन मा कुछ और ही भाव उत्पन करी रये. सन् सन् सन् ठंडी बयार चलि
रये. कुटनारा पिसनारा सब उठी गैने . इथै उथै सर्वत्र कलकलाट मचि गे.
अब गणेशु या नत्थू का बाबु कि भी नींद टूट पडै. नत्थू, हे नत्थू रे ! खड़ो
उठ बाबा रात खुली गे. ओ सूण दौ पंछि भगवान् नाम को गान करण लगिगैन . हमसणि
भी करनी चएंद. बोल बेटा टु भी मेरा दगड बोल-
'पवन मंद सुगंध शीतल हेम मन्दिर शोभितम .
श्री निकट गंगा बहत निर्मल श्रीबद्रीनाथ जी विश्वम्भरम
शेष सुमिरन करत निशिदिन धरत ध्यान महेश्वरम .
श्रीवेद ब्रह्मा करत स्तुति श्रीबद्रीनाथ जी विश्वम्भरम .
शक्ति गौरी गणेश शरद नारद मुनि उच्चारणम
योगध्यानि अपार लीला श्रीबद्रीनाथ जी विश्वम्भरम .
इंद्र चन्द्र कुबेर धुनिकर दीप प्रकाशितम
सिद्ध मुन्जन करत करत जय जय श्रीबद्रीनाथ जी विश्वम्भरम .
यक्ष किन्नर करत कौतुक ज्ञान गन्धर्व प्रकाशितम
श्रीलक्ष्मी कमला चवर डोलें श्रीबद्रीनाथ जी विश्वम्भरम .
कैलास में एक्देव निरंजनम शैल शिखर महेश्वरम
श्री राजा युधिष्ठिर करत स्तुति श्रीबद्रीनाथ जी विश्वम्भरम .
श्रीबद्रीनाथ जी के पंचरत्न पढ्त पाप विनाशानं
कोठी तीरथ भयउ पुण्ये प्राप्यते फल दायकं ।। ७। ।।
( प्रथम परिच्छेद परिछ्चेद समाप्त )
भीष्म कुकरेती का नोट- इस अख़बार को पढने से पता चलता है कि 'गढवाली ठाठ ' या तो बहुत लम्बी कहानी है या उपन्यास के समान है.
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सर्वाधिकार- श्री शकला नन्द कुकरेती (श्री सदानंद जी के पोते ) -ग्राम ग्वील, मल्ला ढांगू , पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड , भारत.
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आपका बहुत बहुत धन्यवाद
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