राजस्थानी, गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों का तुलनात्मक अध्ययन:भाग- 4
भीष्म कुकरेती
गाँव सुंदर होते हैं । गाँव का हवा पानी साफ़ कहा जाता है । शहर रहस्यमय करता है । तकरीबन हरेक ग्रामवासी शहर देखने की इच्छा रखता ही है । एक स्त्री की भी इच्छा शहर घुमने की इच्छा होती ही है । राजस्थानी और गढ़वाली-कुमाउंनी ग्रामीण समाज में भी शहर भ्रमण की इच्छा अवश्य रहती है । लोक साहित्य रचयिता तो समाज को देखता रहता है । लोक गीत रचयिता की नजरें हर समय समाज की आकांक्षाओं , , इच्छाओं , दमित इच्छाओं , प्रेम , क्रोध , आदि पर हर समय आँखें लगाये होता है और लिक गीत रचयिता की नजरों से कोई भी इच्छा छुप नही सकती हैं ।
राजस्थानी लोकगीतों में स्त्रैण्य शहर भ्रमण इच्छा गीत
घर के काम काज से विवाहिता स्त्री के हाथों पर छाले पड़ गए हैं और वह अपने पति से शहर घुमने की इच्छा व्यक्त करती है । निम्न गीत में नारी मानसिकता का पक्ष उभर कर आया है -
म्हारे हाथड़िया रे बीच,
छाला पड़ गया म्हारे जी ।
मैं पालो कईयां काटूँगी ?
राखडी तो म्हारे बाप के सूंआई
तो जुठणारी गाड़ी आवे म्हारा मारू जी । मैं पालो कईयां काटूँगी ?
जयपुर भी दिखायियो मैंने दिल्ली भी दिखायियो,
म्हाने आगरे की सैर करायियो म्हारा महारु जी । मैं …
लाडू नही भावे , मैंने बरफी नहीं भावे,
घेवरिया रे गेरी मन में आवे म्हारा मारू जी । मैं पालो कईयां काटूँगी ?
गाडी नही बैठूं मै तो मोटर नहीं बैठूं ,
मैंने फिटफिटया की सैर करायियो । मैं पालो कईयां काटूँगी ?
(पाल = खेतों में खडी फसल या पुआल ; मारू =पति )
इस प्रचलित राजस्थानी लोक गीत में नायिका द्वारा पाल काटने से हाथों पर छाले पड़ गए हैं और वह अपने पति से जयपुर, दिल्ली , आगरा घुमने की इच्छा व्यक्त करती है साथ में घेवरिया खाने की इच्छा व्यक्त करती है । साथ में आग्रह करती है कि उसे मोटर या गाडी से भ्रमण नही करना है अपितु फिटफिटया से शहर घूमना है । इस राजस्थानी लोक गीत में स्त्री इच्छा का सामयिक वर्णन हुआ है ।
गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों स्त्रैण्य शहर भ्रमण इच्छा
गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों स्त्रैण्य शहर भ्रमण इच्छा
गढवाली -कुमाऊंनी समाज में भी कृषि कार्य स्त्रियों के हाथ में ही होता है । मंगसिर और पूष महीने ही स्त्रियों के लिए थोड़ा राहत के महीने होते हैं और इस किंचित विश्राम के समय में स्त्री अपने दिल्ली में रह रहे पति के साथ घूमना चाहती और अपना निर्णय सभी रिश्ते के सासुओं को इस प्रकार सुनाती है
कब आलो ह्यूंद मंगसिर मैना ,
हे ज्योरू ! हे ज्योरू घुमणा कु मीन दिल्ली जाण ।
प्यायी सिगरेट फींकि चिल्ला, घुमणा कु जाण मीन लाल किल्ला
हे बड्या सासू , हे कक्या सासू ! घुमणा कु मिन दिल्ली जाण ।
आलु प्याजो कु बणा इ साग आलु प्याजो कु बणाइ साग
घुमणा कु जाण मीन करोल बाग़ घुमणा कु जाण मीन करोल बाग़ ।
घुमणा कु जाण मीन करोल बाग़ घुमणा कु जाण मीन करोल बाग़ ।
हे ज्योरू ! हे ज्योरू घुमणा कु मीन दिल्ली जाण
होटल की रुटि खाण , होटल की रुटि खाण।
हे ज्योरू घुमणा कु मीन दिल्ली जाण ।
हे ज्योरू घुमणा कु मीन दिल्ली जाण ।
इस गीत में भी मंगसिर महीने में फुर्सत के दिनों चर्चा है और दिल्ली शहर का चित्र उभारा गया है साथ में होटल में खाना खाने की बात बड़े आनन्द के साथ कही गयी है ।
वास्तव में दोनों भाषाओं के इन लोक गीतों में मानवीय मनोविज्ञान का परिपूर्ण चित्रं मिलता है । किसी भी उस ग्रामीण जिसने शहर नही देखा हो उस ग्रामीण के मन में शहर के प्रति मन में जो चित्र उभरते हैं उन चित्रों और मुख्य बिम्बों को इन लोक गीतों में उभारा गया है ।
Copyright@ Bhishma Kukreti 20/8/2013
सन्दर्भ - लीलावती बंसल , 2007 , लोक गीत :पंजाबी , मारवाड़ी और हिंदी के त्यौहारों पर गाये जाने वाले लोक प्रिय गीत
गढवाली गीत संकलन - भीष्म कुकरेती
( राजस्थानी, गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों का तुलनात्मक अध्ययन; राजस्थानी, गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों स्त्रैण्य शहर भ्रमण इच्छा; राजस्थानी लोकगीतों में स्त्री सुलभ इच्छाएं ;गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों में स्त्री सुलभ इच्छाएं ; राजस्थानी लोकगीतों में दिल्ली भ्रमण इच्छा ; गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों में दिल्ली भ्रमण इच्छा )
राजस्थानी गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतोंमें पूर्बज पूजा लोक गीत
राजस्थानी, गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों का तुलनात्मक अध्ययन:भाग- 3
राजस्थानी लोकगीतों में पूर्बज पूजा लोक गीत
राजस्थानी लोक गीत मर्मग्य डा जगमल सिंह लिखते हैं कि लोक जीवन में मृत व्यक्तियों की पूजा की जाती है । झुंझार जी की पूजा भी इसी परंपरा में आती है । राजस्थानी लोक गीतों के दूसरे विद्वान व्याख्याकार मोहन लाल व्यास शास्त्री ने भी राह्स्थान में पूर्वजों की पूजा संम्बन्धी लोक गीतों का संकलन किया और इन लोक गीतों की व्याख्या व्याख्या भी की ।
पूर्वजों की आत्मा का पूजन लोक परम्परा में रत जगा किया जाता है और रात्रि जागरण में पूर्वजों अथवा पितरों की गीत गाये जाते हैं ।
राजस्थानी जन मानस विश्वास होता है कि पूर्वज पुन्ह उसी घर में जन्म लेते हैं । निम्न लोक गीत जो की पितृ पूजा में गाया जाता है उस लोक गीत में में पूर्वज द्वारा पुनर्जनम लेने की बात की गयी है
धरम दवारे ओ रूड़ी पीपला जी
जठे पूरवज करे विचार
xxx xx
जास्यां -जास्यां शंकर पेट
तो वांरी बहु लाड्यां की खुंखां हुलस्यां जी
यह गीत रात्रि जागरण में गाया जाता है ।
गीत का मंतव्य है कि पीपल वृक्ष के नीचे खड़े पूर्वज विचार विमर्श करते हैं कि वे शंकर जी की पत्नी के गर्भ में जाने की बात करते हैं और कहते हैं कि उनकी पत्नी की कोख में जन्म लेकर हुलसेंगे ।
पूर्वजों की पूजा हेतु राजस्थान या पौराणिक वीर पुरुषों या वीरांगनाओं के गीत भी गाये जाते हैं । इन्हें झुंझार जी गीत भी कहा जाता है (J . Kamphrst , 2008 )। पाबू जी झुंझार लोक गीतों में चौदहवीं सदी के वीर नायक पाबू जी लक्ष्मण के अवतार माने गए हैं याने कि पाबू जी लोक कथाओं में भी पुनर्जन्म का समावेश है ।
मेवाड़ में झुंझार देवता उसे कहा जाता है जिसने गाँव की रक्षा या गाँव के पशु रक्षा हेतु बलिदान दिया हो और मृत्यु को प्राप्त हुआ हो । जैसलमेर में झुंझार देव्ताअप्ने समय में समाज हेतु संघर्ष करता है और संघर्ष रत मृत्यु प्राप्त होता है । राजस्थान में झुंझार , भूमियो , भूमिपाल और क्षेत्रपाल या खेत्रपाल एक ही श्रेणी के देवता हैं याने ये सभी ग्राम रक्षक देवता है ।
पाबू जी लोक गाथा की निम्न पंक्तियाँ दर्शाती हैं कि वीर पुरषों की याद में पूर्वज पूजा सम्पन होती है जैसे गढ़वाल -कुमाऊँ में 'हंत्या घडेला - जागर' में समाज या उत्तराखंड के वीर पुरुषो को याद कर र पूजा अनुष्ठान सम्पन होता है ।
जिमदा पाला विमनाई जगजीती जुद्ध जैवमाता जगजीति
याने कि तुम दोनों (जिमदा और पाबू जी ) वीर हो , नायक हो और युद्ध जीतने में माहिर हो !
राजस्थान में भी पूर्वज पूजा का एक उदेश्य पूर्वजों की भटकती आत्माओं या अतृप्त आत्माओं को परम स्थान हेतु अनुष्ठान किये जाते हैं और वे अनुष्ठान लोक गीत शैली में होते हैं ।
गढ़वाली -कुमाऊनी लोक गीतों में पूर्वज पूजा
गढ़वाल -कुमाऊँ में पुव्जों का पूजन एक विशेष धार्मिक , अनुष्ठान और आयोजन होता है जिसे हंत्या घड्यळ कहते हैं। हंत्या घड़ेला अनुष्ठान पूर्वज की भटकती आत्मा की शान्ति या अतृप्त आत्मा को यथोचित संतोष हेतु होता है । घडेला में जो लोक गीत गाये जाते हैं उन्हें जागर कहते हैं । घडेला का अर्थ है देवता को नचाना । जागरी डमरू और थाली बजाने के साथ जागर (धार्मिक लोक गीत ) गाते हैं और एक या कई मनुषों के शरीर पर मृतक की आत्मा घुस आती है और वह (पश्वा ) नाचता है
इन जागरों में जागर किसी ख़ास पौराणिक व्यक्ति जैसे अभिमन्यु मरण जैसी लोक गाथाओं के गायन , संगीत व नृत्य होते हैं होता है ।
मृत पूर्वजों की आत्मा शान्ति हेतु लोक गीत रणभुत भी होते हैं जैसे कि राजस्थानी मे पाबू गीत पूजा होती है । रणभुत लोक गीतों में क्षेत्रीय वीर पुरषों का गान होता है जैसे जीतू बगड्वाल जागर या रणरौत अथवा कैंतुरा जागर आदि ।
रवाईं में हंत्या जागर -भाग
मामी तेरी छुटी पड़ी चाखोल्युं की टोल।
तेरो होलो केसों मामी इजा को पराण।
तेरो होलो केसों मामी इजा को पराण।
त्वेको आयो पड़ी मामी काल सी ओ बाण।
काल सी छिपदो मामी रीट दो सी ओ बाण।
सोची होलो मामी तै हरस देखऊं।
यख मं बैठी रो तेरो बांको माणिस।
के कालन डालि मामी जोड़ी मां बिछाऊँ।
भैर भीतर मामी देखी ज तू अ क्वैक।
देखी भाळी जाई मामी आपड़ो बागीचा।
इस लोक गीत में एक औरत की अकाल मृत्यु हुयी है और उस मृतक आत्मा की शांति हेतु घड़ेला रखा जाता है । जागरी मृतक के बारे में हृदय विदारक गाथा इस प्रकार सुनाता है -
हे प्रिय (मामी -प्रिय सूचक शब्द ) ! पक्षियों का झुण्ड अब तेरे से छूट गया है । हे प्रिय ! तेरा माँ का ममत्व युक्त प्राण कैसा होगा । तेरे लिए वह काल बाण कैसे आया । यह काल छिपकर और घूम घूम कर कैसे आया होगा । यह काल तुझे ढूंढता रहा । तूने सोचा होगा मै अपने परिवार में सबका हर्ष देखूंगी । यहाँ तेरा सुन्दर पति बैठा है । किस काल ने तेरी जोड़ी में बिछोह डाला । हे प्रिय ! तू बाहर भीतर सुदर तरह से सब जगह देख जा और भाव से अपने बगीचे (परिवार ) को देख जा ।
इस तरह हम पाते हैं कि राजस्थानी , गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों में पूर्वजों की पूजा के कई प्रकार के गीत हैं। कुछ गीत पौराणिक हैं , कुछ गीत लोक इतिहास पर आधारित है,कुछ गीत स्थानीय वीरों-नायक -नायिकाओं जो देव तुल्य हो गये हैं या लोक देव बन गए हैं पर आधारित है और कुछ गीत अत्यंत स्थानीय होते हैं। अतृप्त परियों आदि के गीत भी पूर्वज गीतों में आ जाते हैं ।
Copyright@ Bhishma Kukreti 19/8/2013
सन्दर्भ
डा जगमल सिंह , 1987 ,राजस्थानी लोक गीतों के विविध रूप , विनसर प्रकाशन , दिल्ली
डा शिवा नन्द नौटियाल , 1981 ,गढवाली लोकनृत्य -गीत , हिंदी साहित्य सम्मेलन , प्रयाग
मोहन लाल व्यास 'शास्त्री ' (सम्पादन ) राजस्थानी लोक गीत
डा जगदीश नौडियाल उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर
राजस्थानी और गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों में नारी पीड़ा
राजस्थानी, गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों का तुलनात्मक अध्ययन:भाग- 2
भीष्म कुकरेती
भारत में तकरीबन सभी समाज में स्त्रियों को विशेष भौतिक और मानसिक कष्ट सहने पड़ते हैं । मानव जनित सामजिक कष्ट कहीं अधिक दुखदाई होते हैं ।
लोक गीत या लोक साहित्य रचयिता की आँखें सभी कुछ देखता है और उन घटनाओं को अनुभव करता है फिर वः यथार्थ चित्रित कर डालता है और अपने अनुभवों को लोक गीतों या लोक कथनों में ढाल देता है ।
राजस्थानी और
राजस्थानी और गढ़वाली-कुमाउंनी लोक गीतों में बहुओं की विभिन्न पीडाएं ह्रदय विदारक ढंग से चित्रित गया है ।
राजस्थानी लोक गीत में बहू भेदभाव पीड़ा
राजस्थानी लोक गीत में बहू भेदभाव पीड़ा
और सहेलिया माँ झूलण जाय, खेलण जाय ।
म्हने मण रो माँ पीसणो ।
पीसत -पीसत दुख्याँ मां मोर ।
पीवत दुखिया माँ पैरवा । ।
औरों ने दिया माँ बुल्का च्यार
म्हने बटल्यो मां एकलो
औरों ने मां घप्सां घप्सां खांड
म्हने घप्सों मां लूण रो
औरों माँ पली पली घी
मने मोरियों मां तेल रो
औरों ने मां बाटकिया बाटकिया खीर ,
म्हने बाटकी मां राब की
(गीत संकलन - श्रीमती रानी लक्ष्मी कुमारी 'चूड़ावत ' राजस्थानी लोक गीत )
उपरोक्त राजस्थानी लोक गीत में एक लडकी अपनी माँ से अपने ससुराल में उस के साथ किये गये भेदभाव, दुराव छुपाव और अन्य कष्टों की कहानी बताती है कि
हे मां ! अन्य सहेलियां तो झूलने जाती हैं , खेलने जाती हैं किन्तु मुझे मन भर अनाज पीसने और मन भर आता रोटी पकाने दिया जाता है । अनाज पीसते पीसते मेरा मोर (पृष्ठ भाग ) दर्द करने लगा है । रोटी पकाते पकाते मेरी अंगुलियाँ दर्द करने लगी हैं । हे मां ! ससुराल में औरों को चार चार फुल्के दिए जाते हैं जबकि मुझे छोटा फुल्का दिया जाता है । दूसरों को भर भर कर शक्कर दिया जाता है तो मुझे केवल नमक । औरों को कटोरी भर कर घी दिया जाता है तो मुझे बूंद भर तेल । औरों को कटोरे भर भर कर खीर दी जाती है और मुझे केवल कटोरी में दलिया दिया जाता है ।
गढवाली -कुमाउंनी लोक गीतों में बहू पीड़ा
गढ़वाली और कुमाउंनी लोक गीतों में भी नारी खाशकर बहू पीड़ा को दर्शाने वाले दर्जनों गीत हैं और कई क्षेत्रीय गीतों का संकलन अभी बाकी है ।
निम्न गढ़वाली लोक गीत में नारी पीड़ा के कई पक्ष दर्शाए गए हैं ।
केकु बाबाजीन मिडिल पढायो
केकु बाबाजीन मिडिल पढायो
केकु बाबाजीन राठ बिवायो
केकु बाबाजीन राठ बिवायो
बाबाजीन देनी सैंडल बूट
भागन बोली झंगोरा कूट ।
बाबाजीन दे छई मखमली साड़ी
सासू नी देंदी पेट भर बाड़ी ।
जौं बैण्योंन साड़ी रौल्यों क पाणी
वा बैणि ह्वे गए राजों क राणी ।
जौं बैण्योंन काटे रौल्यों को घास
जौं बैण्योंन काटे रौल्यों को घास
वा भूली गै राजों का पास ।
मै छंऊ बाबा राजों का लेख
तब मी पाए सौंजड्या बैख ।
दगड्या भग्यानो की जोड़ी सौंज्यड़ी
मेरी किस्मत मा बुड्या कोढ़ी ।
मेरी किस्मत मा बुड्या कोढ़ी ।
बांठा पुंगड़ा लड़बड़ी तोर
नी जैन बुड्या संगरादी पोर ।
बाबाजीन दे छई सोना की कांघी
सासू ना राखी छै मैना राखी ।
(गीत संकलन : डा कुसुम नौटियाल , गढ़वाली नारी : एक लोकगीतात्मक पहचान)
इस लोक गीत में दिखाया गया है कि एक आठवीं पास (जिस युग में लडकियाँ स्कूल भी नही जाती थीं )लडकी की शादी उसके पिताजी ने लोभ में एक बुद्धे के साथ कर दी । फिर वह लडकी कह रही है कि पिताजी ने भेंट में सैंडल दी हैं किन्तु उसके भाग्य में झंगोरा कूटना लिखा है । द्यपि उसने आठ पास किया है किन्तु उसकी शादी अविकसित देस में हुआ है । उसके पिता जी ने मखमली साडी दी किन्तु उसकी सास उसे पेट भर बाड़ी भी नही देती है ।
पिताजी ने भेंट में सैंडल दी हैं किन्तु उसके भाग्य में झंगोरा कुटना लिखा है । जो बहिन दूर नदी से पानी लाती थी उसे राजा दुल्हा मिला । जो बहिन घास लाती थी वह राजमहल में वास करती है । मेरे हाथ में राजयोग लिखा था तो मुझे बुड्ढा पति मिला । मेरी सहेलियों को जवान पति मिले तो मुझे कोढ़ी जैसा पति । मई चाहती हूँ यह बुड्ढा मर ही जाय । पिताजी ने मुझे सोने की कंघी दी किन्तु मेरी सास ने मुझे छह माह तक नंगा ही रखा
इस तरह हम पाते हैं की राजस्थानी व गढवाली भाषाओं के लोक गीतों में स्त्री पीड़ा या नारी के साथ दुराव -भेदभाव एक समान दर्शाए गए हैं । ऐआ लगता है कि नारी पीड़ा सभी जगह एक जैसी ही है ।
दोनों लोक गीतों में करुण रस उभर कर आया है । दोनों ही भाषाओं के लोक गीत स्त्री विमर्श पर ह्रदय विदारक चित्र उभारने में सफल हैं ।राजस्थानी और गढ़वाली के लोक गीत नारी व्यथा चित्रित करने में यथार्थ को सामने लाते हैं और ये लोक गीत अपने युग का आयना सिद्ध होते हैं ।
Copyright@ Bhishma Kukreti 16 /8/2013
सन्दर्भ
डा जगमल सिंह , 1987 ,राजस्थानी लोक गीतों के विविध रूप , विनसर प्रकाशन , दिल्ली
डा शिवा नन्द नौटियाल , 1981 ,गढवाली लोकनृत्य -गीत , हिंदी साहित्य सम्मेलन , प्रयाग
डा नन्द किशोर हटवाल , 2009 उत्तराखंड हिमालय के चांचड़ी गीत एवं नृत्य ,विनसर पब क. देहरादून
(राजस्थानी लोक गीतों में स्त्री पहचान ; गढ़वाली -कुमाऊंनी लोक गीतों में स्त्री पहचान ; राजस्थानी लोक गीतों में बहू पीड़ा ; गढ़वाली -कुमाऊंनी लोक गीतों में बहू पीड़ा ;राजस्थानी लोक गीतों में करुण रस ; गढ़वाली -कुमाऊंनी लोक गीतों में करुण रस ;राजस्थानी लोक गीतों में स्त्री दुःख ; गढ़वाली -कुमाऊंनी लोक गीतों में स्त्री दुःख ; राजस्थानी लोक गीतों में नारी पीड़ा ; गढ़वाली -कुमाऊंनी लोक गीतों में नारी पीड़ा ; राजस्थानी लोक गीतों में स्त्रियों के साथ दुराव ; गढ़वाली -कुमाऊंनी लोक गीतों में स्त्रियों के साथ दुराव ; राजस्थानी लोक गीतों में स्त्रियों के साथ भेदभाव ; गढ़वाली -कुमाऊंनी लोक गीतों में स्त्रियों के साथ भेदभाव ;राजस्थानी लोक गीतों में नारी वेदना ; गढ़वाली -कुमाऊंनी लोक गीतों में नारी बेदना ;राजस्थानी लोक गीतों में नारी कष्ट ; गढ़वाली -कुमाऊंनी लोक गीतों में नारी कष्ट ;राजस्थानी लोक गीतों में नारी विषयक हृदय विदारक चित्र ; गढ़वाली -कुमाऊंनी लोक गीतों में नारी विषयक ह्रदय विदारक चित्र - राजस्थानी, गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों का तुलनात्मक अध्ययन श्रृखला भाग 3 में जारी … )
राजस्थानी, गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों का तुलनात्मक अध्ययन:भाग- 1
देश में अंग्रेज राज आयो
ब्रिटिश राज में मंहगाई की मार
सूणा सूणा भाई बन्दों भारत को गीत जी
कना कना हाल ह्वेन कन ऐन अंग्रेजी रीत जी
हजार हजार का भैंसा ह्वेन दूध नी माणी जी
हौर चीज फंड फूका अंग्रेजी चा जरुर पीणा जी
डेरा मूं खंदेर आयूँ च खांद
सौदा खाणकू रूप्या नी कन आयो अकरी जी
इस गढ़वाली लोक गीत में गीत में भैस के दाम बढ़ गये हैं किन्तु दूध कम होता जा रहा है . और नई नई व्यसन घर कर गये हैं कि जिन्दगी जीना दूभर हो गया है
दोनों भाषाओं की गीत यथार्थ का पोर वृतांत बताने प्यूरी तरह समर्थ हैं .
दोनों भाषाओं के लोक गीत जन चेतना के लोक गीत हैं
दोनों भाषाओं के ये लोक गीत जो देखा गया , जो अनुभव किया गया उसे साफ़ साफ़ दर्शाने में समर्थ हैं I
दोनों लोक गीत दर्शाते हैं कि लोक रचनाकार को स्पस्ट कहने में कोई हिचकिचाहट बिलकुल भी नही है I
राजस्थानी और उत्त्रख्न्दी लोक गीत के रचनाकार निडर हैं और उन्हें बादशाहत का कोई भय नही है किन्तु जन मानस की चिंता सता रही है और लोक रचनाकार अन्याय व अत्याचार को मौन स्वीकार नही करता है बल्कि वः किसी भी तरह मुखर हो उठता है I
Copyright@ Bhishma Kukreti 14/8/2013
सन्दर्भ
डा जगमल सिंह , 1987 ,राजस्थानी लोक गीतों के विविध रूप , विनसर प्रकाशन , दिल्ली
डा शिवा नन्द नौटियाल , 1981 ,गढवाली लोकनृत्य -गीत , हिंदी साहित्य सम्मेलन , प्रयाग
(राजस्थानी और उत्तराखंडी के जन चेतना के लोक गीत;राजस्थानी और गढवाली-कुमाउनी जन चेतना के लोक गीत; राजस्थानी, गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों का तुलनात्मक अध्ययन:;राजस्थानी और गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध आवाज;
राजस्थानी और गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों में सामयिक चेतना; राजस्थानी और गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों में यथार्थ ; राजस्थानी और गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों में निडरता के भाव ; राजस्थानी और गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों में जनमानस चिंता भाव ; राजस्थानी और गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों में सामजिक चेतना के बोल ; राजस्थानी और गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों में स्वतन्त्रता के भाव )
Regards
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