राजस्थानी, गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों का तुलनात्मक अध्ययन:भाग- 1
भीष्म कुकरेती
लोक गीत लोकोन्मुखी होते हैं . लोक रचनाकार जो देखता उसे फोटोकॉपी जैसे चित्रित कर देता है I हाँ रचना करते वक्त लोक धर्मी रचनाकार भौगोलिक , आर्थिक सामजिक व अपनी कल्पना और शब्द सामर्थ्य के हिसाब से रचना कर डालता है I
अंग्रेजी शासन में भारत पर कई तरह के अत्याचार व अनाचार हुए I ब्रिटिश अत्याचारों का प्रभाव भारत के सभी वर्गों पर कुछ हिसाब से तकरीबन एक सा ही रहा है I
यही कारण है कि राजस्थानी और गढ़वाली लोक गीतों में अधिक साम्यता है I
निम्न राजस्थानी गीत में अंग्रेजी राज्य की अव्यवस्था और जनविरोधी कार्य की निंदा की गयी है
देश में अंग्रेज राज आयो
देश में अंग्रेज राज आयो , काईं काईं लायो रे I
फूट नांकी भायाँ में , बेगार लायो रे
काली टोपी रे , हाँ हाँ काली टोपी रे
देश में घुत्यारो आयोरे भूरिया मुंडालो
अबु न अजमेर बच में डोडी हडकाँ नांकी रे
घोड़ी रोवे घास ने टावर रोवे दाणा ने
महलां ठुकराण्या रोवे , जामण जाया ने
इस राजस्थानी लोक गीत में ब्रिटिश राज की बहाली की भर्त्सना की गयी है की महगाई आदि व चीजों की कमी का रोना रोया गया है I घोड़े को घास नही दाणा नही मिलने की बात उठाई गयी है
ब्रिटिश राज में मंहगाई की मार
निम्न गढवाली गीत भी ब्रिटिश राज में रचा गया है और जनता की बदहाली को सामने रखता है
लोक गीत लोकोन्मुखी होते हैं . लोक रचनाकार जो देखता उसे फोटोकॉपी जैसे चित्रित कर देता है I हाँ रचना करते वक्त लोक धर्मी रचनाकार भौगोलिक , आर्थिक सामजिक व अपनी कल्पना और शब्द सामर्थ्य के हिसाब से रचना कर डालता है I
अंग्रेजी शासन में भारत पर कई तरह के अत्याचार व अनाचार हुए I ब्रिटिश अत्याचारों का प्रभाव भारत के सभी वर्गों पर कुछ हिसाब से तकरीबन एक सा ही रहा है I
यही कारण है कि राजस्थानी और गढ़वाली लोक गीतों में अधिक साम्यता है I
निम्न राजस्थानी गीत में अंग्रेजी राज्य की अव्यवस्था और जनविरोधी कार्य की निंदा की गयी है
देश में अंग्रेज राज आयो
देश में अंग्रेज राज आयो , काईं काईं लायो रे I
फूट नांकी भायाँ में , बेगार लायो रे
काली टोपी रे , हाँ हाँ काली टोपी रे
देश में घुत्यारो आयोरे भूरिया मुंडालो
अबु न अजमेर बच में डोडी हडकाँ नांकी रे
घोड़ी रोवे घास ने टावर रोवे दाणा ने
महलां ठुकराण्या रोवे , जामण जाया ने
इस राजस्थानी लोक गीत में ब्रिटिश राज की बहाली की भर्त्सना की गयी है की महगाई आदि व चीजों की कमी का रोना रोया गया है I घोड़े को घास नही दाणा नही मिलने की बात उठाई गयी है
ब्रिटिश राज में मंहगाई की मार
निम्न गढवाली गीत भी ब्रिटिश राज में रचा गया है और जनता की बदहाली को सामने रखता है
सूणा सूणा भाई बन्दों भारत को गीत जी
कना कना हाल ह्वेन कन ऐन अंग्रेजी रीत जी
हजार हजार का भैंसा ह्वेन दूध नी माणी जी
हौर चीज फंड फूका अंग्रेजी चा जरुर पीणा जी
डेरा मूं खंदेर आयूँ च खांद
सौदा खाणकू रूप्या नी कन आयो अकरी जी
इस गढ़वाली लोक गीत में गीत में भैस के दाम बढ़ गये हैं किन्तु दूध कम होता जा रहा है . और नई नई व्यसन घर कर गये हैं कि जिन्दगी जीना दूभर हो गया है
दोनों भाषाओं की गीत यथार्थ का पोर वृतांत बताने प्यूरी तरह समर्थ हैं .
दोनों भाषाओं के लोक गीत जन चेतना के लोक गीत हैं
दोनों भाषाओं के ये लोक गीत जो देखा गया , जो अनुभव किया गया उसे साफ़ साफ़ दर्शाने में समर्थ हैं I
दोनों लोक गीत दर्शाते हैं कि लोक रचनाकार को स्पस्ट कहने में कोई हिचकिचाहट बिलकुल भी नही है I
राजस्थानी और उत्त्रख्न्दी लोक गीत के रचनाकार निडर हैं और उन्हें बादशाहत का कोई भय नही है किन्तु जन मानस की चिंता सता रही है और लोक रचनाकार अन्याय व अत्याचार को मौन स्वीकार नही करता है बल्कि वः किसी भी तरह मुखर हो उठता है I
Copyright@ Bhishma Kukreti 14/8/2013
सन्दर्भ
डा जगमल सिंह , 1987 ,राजस्थानी लोक गीतों के विविध रूप , विनसर प्रकाशन , दिल्ली
डा शिवा नन्द नौटियाल , 1981 ,गढवाली लोकनृत्य -गीत , हिंदी साहित्य सम्मेलन , प्रयाग
(राजस्थानी और उत्तराखंडी के जन चेतना के लोक गीत;राजस्थानी और गढवाली-कुमाउनी जन चेतना के लोक गीत; राजस्थानी, गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों का तुलनात्मक अध्ययन:;राजस्थानी और गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध आवाज;
राजस्थानी और गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों में सामयिक चेतना; राजस्थानी और गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों में यथार्थ ; राजस्थानी और गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों में निडरता के भाव ; राजस्थानी और गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों में जनमानस चिंता भाव ; राजस्थानी और गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों में सामजिक चेतना के बोल ; राजस्थानी और गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों में स्वतन्त्रता के भाव )
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