भीष्म कुकरेती
मै जब से इंटरनेट माध्यम से जुड़ा मुझे लग गया था कि कुमाउनी -गढ़वाली भाषाओं के लिए एक Eden Garden खुल गया है।
गढ़वाली भाषा साहित्य की मुख्य निम्न समस्या रहीं हैं -
१- गढ़वाली -कुमाउनियों द्वारा अपनी भाषा में पढ़ाई ना होने से लिखित गढ़वाली - कुमाउनी साहित्य पढ़ने में दिक्कत और यह दिक्क्त तभी सुलझ सकती थी जब बार बार , हर बार कुमाउनी -गढ़वालियों को कुमाउनी -गढ़वाली पढ़ने को मिले
२- कुमाउनी -गढ़वाली हर तरह से बिखरे हैं अतः अखबारों , पत्र -पत्रिकाओं -पुस्तकों के लिए वितरण एक दुस्साहसी समस्या थी।
इंटरनेट ने यह समस्या दूर कर दिया। इंटरनेट माध्यम के पाठक एक तरह से इलीट पाठक हैं अतः साहित्य सटीक जगह चला जाता है।
मै जब फेसबुक माध्यम से जुड़ा तो मैंने टेलीफोन /SMS द्वारा , लेखों द्वारा अपने साहित्यकार मित्रों को सूचित किया कि आप लोग किताब छापने याने इतिहास में स्थान दर्ज कराने में विश्वास करते हो किन्तु सरल माध्यम को नही अपना रहे हो। आज भी इंटरनेट माध्यम में गढ़वाली साहित्यकारों में वे साहित्यकार अपना साहित्य पोस्ट करते हैं जो पारम्परिक माध्यम (पत्र -पत्रिकाओं -पुस्तकों ) में नही दीखते जैसे जयाड़ा जी , पराशर गौड़ जी , बालकृष्ण ध्यानी जी , बलबीर राणा जी , अनूप रावत जी , विजय जेठुरी जी , गीतेश नेगी जी और कभी कभार श्रीमती उमा भट्ट जी।
मैं कुमाउनी कवि श्री खयाली राम जी का उदाहरण देना चाहूंगा -
श्री जोशी सुबह सुबह एक सुंदर कुमाउनी कविता बहुत से फेसबुक ग्रुप में पोस्ट करते हैं।
मै कई महीनो से उनकी कविता पढ़ता रहता हूँ और धीरे धीरे मै कुमाउनी समझने लगा हूँ।
मेरा कहने का तातपर्य है कि यदि कुमाउनी -गढ़वाली साहित्यकार इंटरनेट या फेसबुक में भाषाई साहित्य पोस्ट करते रहेंगे तो हमें रोज नए नए पाठक मिलेंगे और पाठकों को कुमाउनी -गढ़वाली पढ़ने का ढब पड़ता जाएगा
मै फिर से पारम्परिक माध्यम के गढ़वाली -कुमाउनी साहित्यकारों से अनुरोध करता हूँ कि अपने पुराने साहित्य को नए रचित साहित्य को इंटरनेट व फेसबुक में अवश्य पोस्ट कीजिये और जो हमारी समस्या थी उसे दूर कीजियेगा।
मै जब से इंटरनेट माध्यम से जुड़ा मुझे लग गया था कि कुमाउनी -गढ़वाली भाषाओं के लिए एक Eden Garden खुल गया है।
गढ़वाली भाषा साहित्य की मुख्य निम्न समस्या रहीं हैं -
१- गढ़वाली -कुमाउनियों द्वारा अपनी भाषा में पढ़ाई ना होने से लिखित गढ़वाली - कुमाउनी साहित्य पढ़ने में दिक्कत और यह दिक्क्त तभी सुलझ सकती थी जब बार बार , हर बार कुमाउनी -गढ़वालियों को कुमाउनी -गढ़वाली पढ़ने को मिले
२- कुमाउनी -गढ़वाली हर तरह से बिखरे हैं अतः अखबारों , पत्र -पत्रिकाओं -पुस्तकों के लिए वितरण एक दुस्साहसी समस्या थी।
इंटरनेट ने यह समस्या दूर कर दिया। इंटरनेट माध्यम के पाठक एक तरह से इलीट पाठक हैं अतः साहित्य सटीक जगह चला जाता है।
मै जब फेसबुक माध्यम से जुड़ा तो मैंने टेलीफोन /SMS द्वारा , लेखों द्वारा अपने साहित्यकार मित्रों को सूचित किया कि आप लोग किताब छापने याने इतिहास में स्थान दर्ज कराने में विश्वास करते हो किन्तु सरल माध्यम को नही अपना रहे हो। आज भी इंटरनेट माध्यम में गढ़वाली साहित्यकारों में वे साहित्यकार अपना साहित्य पोस्ट करते हैं जो पारम्परिक माध्यम (पत्र -पत्रिकाओं -पुस्तकों ) में नही दीखते जैसे जयाड़ा जी , पराशर गौड़ जी , बालकृष्ण ध्यानी जी , बलबीर राणा जी , अनूप रावत जी , विजय जेठुरी जी , गीतेश नेगी जी और कभी कभार श्रीमती उमा भट्ट जी।
मैं कुमाउनी कवि श्री खयाली राम जी का उदाहरण देना चाहूंगा -
श्री जोशी सुबह सुबह एक सुंदर कुमाउनी कविता बहुत से फेसबुक ग्रुप में पोस्ट करते हैं।
मै कई महीनो से उनकी कविता पढ़ता रहता हूँ और धीरे धीरे मै कुमाउनी समझने लगा हूँ।
मेरा कहने का तातपर्य है कि यदि कुमाउनी -गढ़वाली साहित्यकार इंटरनेट या फेसबुक में भाषाई साहित्य पोस्ट करते रहेंगे तो हमें रोज नए नए पाठक मिलेंगे और पाठकों को कुमाउनी -गढ़वाली पढ़ने का ढब पड़ता जाएगा
मै फिर से पारम्परिक माध्यम के गढ़वाली -कुमाउनी साहित्यकारों से अनुरोध करता हूँ कि अपने पुराने साहित्य को नए रचित साहित्य को इंटरनेट व फेसबुक में अवश्य पोस्ट कीजिये और जो हमारी समस्या थी उसे दूर कीजियेगा।
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