विमर्श ::: भीष्म कुकरेती
भारत इथगा बड़ो देस च त जन बड़ो परिवार मा क्वी ना क्वी स्वील हूणि रौंदी ऊनि चुनावुं मौसम हर द्वी तीन मैना मा आणु ही रौंद। इनमा हरेक दफैं पत्रकार या राजनीतिक , सामाजिक विश्लेषक अपण मंतव्य दीणा रौंदन पर कुनगस या च, आश्चर्य या च या सुंताल इन लगद कि अधिकाँश क्या सबी पत्रकारुं भविष्यवाणी सही नि आंदि। अधिकतर भविष्यवाणी गलत ही साबित हूणी छन।
पत्रकारुं या विश्लेषकुं भविष्यवाणी हर बार गलत साबित हूणों मतबल च कि भौत कुछ गलत हूणु च। पत्रकार कै बि देशम अहम भूमिका निभंदन अर यदि पत्रकारुं पर ही प्रश्नचिन्ह लगण मिसे जावन त फिर क्या बुले जै सक्यांद ?
हरेक चित्वळ भारतीय पत्रकारुं नाक पर डाट किलै लग्युं च , पत्रकारुं आँख पर मोतियाबिंद किलै पड़्यूं च , पत्रकारुं गणत किलै असफल हूणु च जन सवालुं जबाब खुजण मा लग्युं च।
मी बि यु खुज्याणु छौं कि भारतीय पत्रकार किलै भारतीयों मन नि पढ़ सकणा छन , किलै पत्रकार असलियत सूंघ नि सकणा छन , किलै पत्रकार देखि नि सकणा छन कि हुनु क्या च ?
म्यार दिखण से कुछ ख़ास कारण छन कि पत्रकार असलियत पछ्याणनम नाकामयाब हूणा छन।
सबसे बड़ो कारण च कि अदा से ज्यादा अखबार अर मीडिया पर रांजीतिज्ञों कब्जा च। बकै अदा पर संपादक आदि कै ना कै राजनीतिक पार्टी या राजनीतिक विचारधारा का प्रति प्रतिबद्ध छन। मुंबई छोड़िक बकै महाराष्ट्र मा सकाळ अर लोकमत द्वी मुख्य अखबार छन जु सरा महाराष्ट्र मा पढ़े जांदन। शरद पंवार परिवार सकाळ कु मालिक च त कॉंग्रेसी दर्डा परिवार लोकमत कु मालिक च। टीवी मीडिया का हाल तो सबि जाणदन।
तो इन मा पत्रकार वी दिखदन जु वूंक मालक या संपादक चांदन। आखरी छोर पर काम करण वाळ पत्रकार यदि असलियत समिण लाण बि चाँद तो भी मालिक अर संपादक पाठकों तैं वी द्याला जु वूंको स्वार्थ पूर्ति कारल !
ओपिनियन ना ओपिनियन मेकर अब संपादक या विश्लेषक बण्या छन। विश्लेषकुं , सम्पाद्कुं अर पत्रकारुं काम च कि लोगुं भावना या ओपिनियन दिखावन किन्तु अजकाल विश्लेषकुं , संपादकुं , पत्रकारुं मध्य अपण स्वार्थ पूर्ति का वास्ता लोगुं ओपिनियन सुणणो जगा अपर ओपिनियन थपेड़नो छौंपा दौड़ि , प्रतियोगिता हूणी रौंदी तो इनमा सबि भविष्यवाणी करण मा फिस्सड्डी साबित हूणा छन।
वैकल्पिक मीडिया अर ग्लोबलाइजेसन का प्रभाव से अब हर पांच सालम लोगुं इंस्पाइरेसनल थिंकिंग मा भयंकर बदलाव आणु च। किन्तु पत्रकार अबि बि विश्लेषण करणो पारम्परिक आधार पर विश्लेषण करणा रौंदन। पिछला चार पांच सालुं मा आइडेंटिटी याने पछ्याणक भावना की जगा इंस्पाइरेसनल भवना अधिक बलवती हूणि च। आइडेंटिटी की जगा इन्सपायरेसन तैं मार्केटिंग या विज्ञापन करता तो पछ्याण गेन किंतु हमर पत्रकार अबि बि समाज मा आइडेंटिटी आधार पर चुनावी या सामाजिक बदलाव भविष्यवाणी करणा रौंदन। बदलदो समय पर विश्लेषणों टूल-उपकरण , आधार बि बदलेण चयेंदन।
म्यार पिछ्ला तीस साल से म्यार मीडिया दगड़ विज्ञापनकर्ता का रूप मा संबंध राइ अर मीन द्याख कि पिछ्ला दस पंदरा सालुं से अखबार या टीवी चुनावुं बगत भौतसा अलग ढंग से पैसा कमांदन। पेड़ न्यूज या विज्ञापन देकि जनसंपर्कीय समाचार प्राप्त करण आज बहुत बलवती ह्वे गे। चुनावुं बगत पत्रकारों तैं पैसा लाणो टारगेट दिए जांद अर इन मा जन भावना , ओपिनियन का क्वी मूल्य ही नि रै जांद।
फिर अचकाल बड़ा बड़ा पत्रकार , संपादक , विश्लेषक राजयसभा सदस्य या हौर सभाओं का सदस्य बणनो बान राजनीतिक विश्लेषण करण मा व्यस्त छन तो इनमा आज पत्रकारों नाक पर डाट , आँख पर गिल्लू माटो लेप , कन्दुडों पर बुज्या लग्यां छन अर यूंकि भविष्यवाणीन गलत हूणि च।
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