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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Thursday, July 4, 2013

पैरी पड़ने (भूस्खलन) के पश्चात खेत बनाने की लम्बी प्रक्रिया

भीष्म कुकरेती 


               (यह लेख मेरी बड़ी दादी स्व श्रीमती क्वांरा देवी कुकरेती ( मेरे पिता  जी की ताईजी ) ; ताऊ जी स्व मुरलीधर कुकरेती (मेरे पिताजी के चचेरे भाई ) एवं मेरे ताऊ जी स्व बलदेव प्रसाद कुकरेती, मेरी माता जी श्रीमती दमयंती कुकरेती को सादर समर्पित है जो मेरे खुचर्याट को सदा ही बर्दास्त करते थे और मेरे सभी उटपटांग प्रश्नों के उत्तर देते थे। पैरी पड़ने के बाद खेती लायक खेत  कैसे बनाये जाते हैं उसकी प्रक्रिया इन्ही पुरखों ने मुझे उदाहरण सहित समझाया था )
           पहाड़ों में भूस्खलन होना  या पैरी पड़ने की क्रिया तब से विद्यमान है जब मनुष्य भी यहाँ नही बसे  थे।  वैसे पिछले सौ सालों में इस साल का पैरी पड़ना /भूस्खलन व भळक (बाढ़ से भूस्खलन) सबसे अधिक विनाशकारी रहा है। यदि आप अपने गाँव के वर्तमान भूगोल पर विश्लेष्णात्मक दृष्टि डालें तो आप पायेंगे कि आपके गाँव बसने से और अब तक दसियों पैरी पड़ी हैं या भूस्खलन और भळक आपके गाँव में आये हैं। कुछ पैरी भेळ में तब्दील हुयी होंगी, बहुत सी पैरी ने धरती को गाड-गदन में बदला होगा,  कुछ पैरियों ने धरती को पूरा रगड़ में बदला  होंगा ; कुछ भूस्खलन ने ढलुवां रगड़ बनाया होगा और कुछ पैरी ने धरती को इस तरह बदला होगा कि उस पर फिर से सीढ़ी नुमा या चौड़ी (सौड़ ) खेत दुबारा बने होंगे। भूस्खलन से केवल धरती पर ही असर नही हुआ होगा अपितु गाँव के पुराने पानी   में भी बदलाव आया होगा . कई जंगल खत्म हुए होंगे। भूस्खलनो  से कई बार प्रत्येक गाँव का भूगोल बदला है और हर युग में गाँव की सामजिक व आर्थिक स्थिति को भी बदला है। भूस्खलन से यदि आपके गाँव का पानी चळ गया या नया पानी का स्रोत्र फूट  गया हो तो स्वयमेव स्थिति में बदलाव आया होगा। 

            भूस्खलन के कारण से  कई गाँवों से पलायन हुआ है, कई गाँवों में नये लोग आये है या नये नये गाँव भी बसे हैं। बहुत  बार पूरा गाँव प्राचीन जगह से नई जगह बसा है और अब पता ही नही चलता कि इससे पहले पूरा गाँव कहीं और बसा हुआ था।  

                                       भूस्खलित  जमीन को खेतों में बदलने की लम्बी प्रक्रिया 
  
 अब चूँकि हमारे पास पलायन विकल्प है तो अब भूस्खलित या पैरी पड़ी जमीन को खेती लायक खेतों में बलने की प्रक्रिया लगभग समाप्त हो गयी है। किन्तु ब्रिटिश काल भूस्खलित जमीन को खेतों में तब्दील करने की प्रक्रिया होती थी।

भूमि  स्थिरीकरण - भूस्खलित जमीन को कुछ सालों तलक खुला छोड़ा जाता है जिससे यदि भूस्खलन पूरा ना हुआ हो तो दूसरे  तीसरे बरसात में वह  पूरा हो जाय या जमीन स्थिर हो जाय।

चुनाव प्रक्रिया - भेळ बनी जमीन, भयंकर रगड़ वाली भूमि; पुराने स्मृति युक्त ज्ञान से पता लगाया जाता था कि  इस भूमि पर खेती बराबर नही होगी आदि जैसी जगहों को बिलकुल भी छुआ नही जाता था और ऐसी जमीन जंगल आदि के लिए छोड़ दी जाती थी। अधिकतर कटी जमीन की परतों से पता चल जाता था की यह जमीन खेतों के लायक है कि नही। फिर उस जमीन का चुनाव होता था जहां खेत बननी हैं।

खेती के लायक जमीन - अधिकतर जहां पुन: खेत बनाने होते थे वह  जमीन ढलुवां जमीन होती थीं। कुछ सालों  में वहां सुरै/सुल (कैक्टस) उग आते थे। उन्हें कुछ साल तलक जमने व विकसित होने दिया जाता था। सुरै के पेड़ विकसित होने से जमीन में धंसान में कमी आ जाती थी। फिर इस दौरान कई तरह के पेड़ खासकर खिन्न के पेड़ भी उग आते थे जो जमीन धंसान को रोकने के माध्यम होते थे। इससे जमीन पक्की होती जाती थी। 

सुरै/सुल्ल का कटान - फिर कुछ सालों बाद सुरै व खिन्न के पेड़ों का कटान होता था। और सुरै को सड़ने दिया जाता था। इससे से जमीन में ह्यूमस या जैविक खाद मिट्टी आ जाती थी। कुछ पेड़ों जैसे तूण,तुसर,गींठी को नही काटा जाता था। 

तिल की खेती - अब जब सुरै आदि सड़ जाय तो इस धरती में कुछ सालों तक तिल की खेती की जाती थी। तिल की खेती सरल होती है इसलिए तिल को चुना जाता है। तिल बोने से पहले कुदाल से जमीन पर केवल चीरा लगाया जाता था और तिल के बीज छिड़क दिए जाते थे। कई सालों तक तिल बोने की प्रक्रिया चलती थी। 

खुदाई करते वक्त लेग पैड और अन्य रक्षा  उपाय - जरा कल्पना कीजिये कि मिट्टी -कंकड़ -चल्ली (बड़े गोल पत्थर) युक्त ढलुवाँ  जमीन की खुदाई के वक्त निचली टांगो व पैरो पर घंटी (छोटे कंकड़), लोड़ी (बड़े गोल पत्थर) और चल्ली (र्याड़ ) लगती ही होंगी फिर पैर और निचली टांगो के छिलने का भय सदा ही बना रहता होगा की नही? तिल बोने हेतु रौल/रगड़  की खुदाई वक्त पैरों पर कपड़े की पट्टी बंधी होती थी और निचले टांग पर केलों के तनो से बना लेग पैड (क्रिकेटर का पैड जैसा) पहना  जाता था और इस तरह हमारे पुरखे भेळ की खुदाई करते वक्त शरीर रक्षा करते थे। जब चोट लग भी जाय तो चोट के ऊपर तुरंत पेशाब कर दिया जाता था।. खुदाई वाले कच्ची हल्दी भी साथ में रखते थे और तुरंत कच्ची हल्दी पीसकर चोट पर लगाया जाता था।

  खुदाई या तो लकड़ी की लम्बी कुदाल से होती थी या लकड़ी से बने हल्के  दंदळ से होती थी। जब लोहा उपलब्ध हो तो लोहे की कूटी भी इस्तेमाल होती थी। कभी कभी तुअर (तोर /अरहर) बी बो दिया जाता था जिससे जमीन में नाइट्रोजन भी पंहुच जाय। वैसे दलहन युक्त खर पतवार उग ही आते थे तो नाइट्रोजन जमीन में पंहुचता जाता था।

रौल और खेतों के लिए पुश्ते या पगार की चिणाई - भेळ -भंगार युक्त जमीन पर कई सालों तक तिल की खेती की जाती थी। इस दौरान जमीन स्थिर भी हो जाती थी और किसानो को तिल भी मिलते जाते थे। अब जब जमीन स्थिर हो जाय तो खेत निर्माण की बारी आती थी। पहले यह निश्चित किया जाता था कि रौल किस तरफ या दोनों तरफ छोड़ा जाय। भूस्खलित भूमि के पास रौल छोड़ना याने पानी और पत्थरों को बहने के लिए जगह छोड़ना। खेत बनाते वक्त या उसके बाद कंकड़ -पत्थर रौल में ही गिराए जाते थे। सबसे पहले रौल पर दीवार चिनी  जाती थी जिससे की खेतों में पानी व कंकड़ पथर ना आ पायें।   

  पगार या पुश्ता लगाना भी सरल काम नही था। गाँव वाले सामूहिक रूप से और रिश्तेदारों को बुलाकर पगार लगाने की प्रक्रिया पूरी करते थे। भूस्खलित जमीन में पगार लगाने की क्रिया हमेशा  पहाड़ी भूमि से शुरू होती थी और फिर अंत में सबसे नीचे वाली भूमि में खेत बनाये जाते थे। खेत कितना चौड़ा हो इसका परिमापन भूमि की बनावट, भूमि में मिट्टी व भूमि में पौड़ (अंदर चट्टान ) की स्थिति को समझकर किया जाता था। फिर खेत की   चौड़ाई व लम्बाई निश्चित करने के लिए जल प्रवाह का ज्ञान होना भी आवश्यक होता था। जल प्रवाहन  को भी ध्यान में रख कर ही खेत की चौड़ाई व लम्बाई निश्चित की जाती थी। यह कार्य बड़ा जटिल कार्य होता था। आपने देखा होगा कि खेत टेढ़े -बांगे होते हैं वास्तव में इसका मुख्य कारण भूस्खलन रोकने की विधि है। 

पगार चिणाई के बाद यह ध्यान रखा जाता था कि जमीन ढलुवां ही रखी जाय जिससे बरसात में पानी खेत में ना रुके। फिर कुछ पेड़ों को काट दिया जाता था और कुछ पेड़ों को नही काटा जाता था। पेड़ वही काटे जाते थे जो आर्थिक दृष्टि से बेकार और भूस्खलन रोकने में कमजोर पेड़ हों। फिर पेड़ काटने हेतु पेड़ की छाया खेत को कितना अलाभकारी होती है का भी ख़याल रखा जाता था। रौल के किनारे रामबांस या सुरै के पेड़ भी लगाये जाते थे। 

  इस तरह बने खेतों में पहले पहल अधिकतर दलहन खासकर तुअर बोई जाती थी और कईसाल तलक ऐसे खेतों पर खेती का दबाब कम डाला जाता था।

      जब खेत बन जायं तो उन खतों से कंकड़ पत्थर हटाने की प्रक्रिया बहुत लम्बी होती थी। एक खेत बनाने व इस खेत को सही पैदावार देने  लायक बनाने में दो पीढियां खप जाती थीं 

                                     सौड़ बने खेतों की  तैयारी    

  यदि भूस्खलन से निचले  भूभाग उबड़ खाबड़ हुआ हो या अचानक सौड़ सारी (चौड़ी सारी ) पैदा हो जाय तो यंहा कुछ ही सालों में खेती लायक जमीन तयार हो जाती थी। किन्तु प्रक्रिया अनुपालन कुछ उपरोक्त हिसाब से ही होता था। नये नये खेतों में दलहन की खेती को प्राथमिकता दी जाती थी। 

Copyright@ Bhishma Kukreti 4 /7/2013

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