गंगासलाण व यमकेश्वर ब्लाक की विभूतियाँ - 2
स्व. विश्वम्भर दयाल 'मुनि विश्वकर्मा' :शिल्पकार समाज उत्थान कर्ता
संकलन -भीष्म कुकरेती
स्व. विश्वम्भर दयाल का जन्म 1911 में बमोली (डबराल स्यूं , पौड़ी गढ़वाल) में श्र गट्टी लाल के यहाँ हुआ था। पांच भाई और तीन बहिनों में सबसे बड़े थे। श्री गट्टी लाल चैलुसैण के आस पास क्षेत्र के पसिद्ध मिस्त्री व काष्ठ कलाकार थे ।
स्व. विश्वम्भर दयाल की प्राम्भिक पढ़ाई लिखाई मिशनरी स्कूल चैलूसैण में हुई। चैलूसैण स्कूल पर क्रिस्चियन बनाने का अभियोग था और सामाजिक दबाब के कर्ण यह स्कुल बंद किया गया तो स्व. विश्वम्भर दयाल को लखनऊ जाना पड़ा। वहां उन्होंने कष्ट कला विषय में लखनऊ आर्ट कॉलेज में प्रवेश लिया। चात्वृति मिलने से धन की मस्या हल हुयी। आर्ट कॉलेज से पांच वर्षीय डिप्लोमा प्रथम श्रेणी में पास किया। इलाहाबाद से कारपेंटरी टीचर्स ट्रेनिंग का दो साल का डिप्लोमा पास किया।
कुछ समय महानन्द मिशन इंटर कॉलेज में शिक्षक रहे।
फिर दिल्ली में नौकरी की
इसके बाद आगरा में इंडस्ट्रियल स्कुल में अनुनिदेश्क पद पर रहे।
1942-1945 तक देहरादून में निजी व्यवसाय किया फिर 1947-1965 उत्तरप्रदेश सरकारी नौकरी की। वे पदमपुर कोटद्वार बस गये थे
1965-1975 तक ठेकेदारी की।
स्व. विश्वम्भर दयाल आर्यसमाजी बने और इस दिशा में उनका योगदान शिल्पकार समाज को सामजिक अधिकार दिलाने हेतु प्रशसनीय है। उन्होंने अपने क्षेत्र के कई लोगों को आर्य समाजी बनाया और भाभर कोटद्वार में जमीन दिलाकर बसाया। शिल्पकारो के पास मिलकियत नही होती थी और उन्होंने शिल्पकारों को जमीन मिलकियत दिलाने में सार्थक प्रयत्न किया।
इसी तरह शिल्पकार बच्चों को शिक्षा दिलाने में कई प्रयत्न किये यवाओं को वे उच्च शिक्षा लेने की प्रेरणा देते थे और आवश्कतानुसार सहायता प्रदान भी करते थे
पद्मा पुर भाभर , कोटद्वार में उन्होंने फलदार बगीचा लगाया और उस समय फलदार बगीचा बहुत से कास्तकारों के लिए प्रेरणा स्रोत्र बना।
स्व. विश्वम्भर दयाल का सपना था कि प्रत्येक शिल्पकार पढ़ा लिखा हो। फिर दो लाख की राशि से उन्होंने शिल्पकार छात्रों को छात्रवृति देने हेतु एक ट्रस्ट बनाया। यह ट्रस्ट आज भी शिल्पकार समाज हेतु कार्यरत है। स्व. विश्वम्भर दयाल के पुत्र कान्ति प्रकाश इस ट्रस्ट को सम्भालते हैं।
स्व. विश्वम्भर दयाल के शिल्पकार उत्थान कार्य हेतु लोग उन्हें 'मुनि विश्वकर्मा' के नाम से बुलाते थे।
Copyright@ Bhishma Kukreti 16/7/2013
सन्दर्भ - विनोद शिल्पकार, 2009. उत्तराखंड का उपेक्षित समाज और उसका साहित्य
स्व. विश्वम्भर दयाल 'मुनि विश्वकर्मा' :शिल्पकार समाज उत्थान कर्ता
संकलन -भीष्म कुकरेती
स्व. विश्वम्भर दयाल का जन्म 1911 में बमोली (डबराल स्यूं , पौड़ी गढ़वाल) में श्र गट्टी लाल के यहाँ हुआ था। पांच भाई और तीन बहिनों में सबसे बड़े थे। श्री गट्टी लाल चैलुसैण के आस पास क्षेत्र के पसिद्ध मिस्त्री व काष्ठ कलाकार थे ।
स्व. विश्वम्भर दयाल की प्राम्भिक पढ़ाई लिखाई मिशनरी स्कूल चैलूसैण में हुई। चैलूसैण स्कूल पर क्रिस्चियन बनाने का अभियोग था और सामाजिक दबाब के कर्ण यह स्कुल बंद किया गया तो स्व. विश्वम्भर दयाल को लखनऊ जाना पड़ा। वहां उन्होंने कष्ट कला विषय में लखनऊ आर्ट कॉलेज में प्रवेश लिया। चात्वृति मिलने से धन की मस्या हल हुयी। आर्ट कॉलेज से पांच वर्षीय डिप्लोमा प्रथम श्रेणी में पास किया। इलाहाबाद से कारपेंटरी टीचर्स ट्रेनिंग का दो साल का डिप्लोमा पास किया।
कुछ समय महानन्द मिशन इंटर कॉलेज में शिक्षक रहे।
फिर दिल्ली में नौकरी की
इसके बाद आगरा में इंडस्ट्रियल स्कुल में अनुनिदेश्क पद पर रहे।
1942-1945 तक देहरादून में निजी व्यवसाय किया फिर 1947-1965 उत्तरप्रदेश सरकारी नौकरी की। वे पदमपुर कोटद्वार बस गये थे
1965-1975 तक ठेकेदारी की।
स्व. विश्वम्भर दयाल आर्यसमाजी बने और इस दिशा में उनका योगदान शिल्पकार समाज को सामजिक अधिकार दिलाने हेतु प्रशसनीय है। उन्होंने अपने क्षेत्र के कई लोगों को आर्य समाजी बनाया और भाभर कोटद्वार में जमीन दिलाकर बसाया। शिल्पकारो के पास मिलकियत नही होती थी और उन्होंने शिल्पकारों को जमीन मिलकियत दिलाने में सार्थक प्रयत्न किया।
इसी तरह शिल्पकार बच्चों को शिक्षा दिलाने में कई प्रयत्न किये यवाओं को वे उच्च शिक्षा लेने की प्रेरणा देते थे और आवश्कतानुसार सहायता प्रदान भी करते थे
पद्मा पुर भाभर , कोटद्वार में उन्होंने फलदार बगीचा लगाया और उस समय फलदार बगीचा बहुत से कास्तकारों के लिए प्रेरणा स्रोत्र बना।
स्व. विश्वम्भर दयाल का सपना था कि प्रत्येक शिल्पकार पढ़ा लिखा हो। फिर दो लाख की राशि से उन्होंने शिल्पकार छात्रों को छात्रवृति देने हेतु एक ट्रस्ट बनाया। यह ट्रस्ट आज भी शिल्पकार समाज हेतु कार्यरत है। स्व. विश्वम्भर दयाल के पुत्र कान्ति प्रकाश इस ट्रस्ट को सम्भालते हैं।
स्व. विश्वम्भर दयाल के शिल्पकार उत्थान कार्य हेतु लोग उन्हें 'मुनि विश्वकर्मा' के नाम से बुलाते थे।
Copyright@ Bhishma Kukreti 16/7/2013
सन्दर्भ - विनोद शिल्पकार, 2009. उत्तराखंड का उपेक्षित समाज और उसका साहित्य
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आपका बहुत बहुत धन्यवाद
Thanks for your comments