भीष्म कुकरेती
उत्तराखंड में आया प्राकृतिक विप्लव, विपदा इस सदी की बड़ी आपदाओं में से एक आपदा है। इस आपदा ने उत्तराखंड को कई साल पीछे छोड़ दिया है।
आपदा आती हैं और मनुष्य अपने बल बूते पर उन आपदाओं से निपटकर आगे भी आ जाता है। कच्छ के भूकम्प में तो कच्छी समाज ने कच्छ की कायापलट कर के रख दी।
इस आपदा में सबसे त्रासदी वाला , सोचनीय व विचारणीय कोण यह है कि देस और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस आपदा में केवल यही दिखा कि उत्तराखंड में स्थानीय प्रशासन नाम का कोई पहलू है ही नही . ब्रैंडिंग वेत्ताओं की माने तो ऐसा लगा उत्तराखंड भगवान भरोसे चलता है ना की स्थानीय प्रशासन से। ठीक है कि इस तरह की आपदा झेलने के लिए भूतकाल का उत्तराखंड तैयार मिलता था किंतु वर्तमान उत्तराखंड इस तरह की आपदा आने की सोच भी नही सका था। किन्तु आपदा आने के पश्चात स्थानीय प्रशासन ने जो पाँव फुलाए उसने वह पुरानी छवि धूमिल कर दी कि जनसंख्या अनुपात के मामले में उत्तराखंड सेना कर्मी , अखिल भारतीय स्तर के अधिकारी, अखिल भारतीय स्तर के प्रवंध गुरु , कला रचनाधर्मी पैदा करने के मामले में अग्रिम पंक्ति में होता है। यहाँ तक कि जनसम्पर्क के मामले में भी उत्तराखंड प्रशासन फिस्सडी साबित हुआ। कार्य होना ही नही चाहिए अपितु कार्य का होना दिखना भी चाहिए।
क्या सेना और केन्द्रीय अधिकारी बिना स्थानीय प्रशासन, स्थानीय जनमानस की सहायता के वह प्रशंसनीय कार्य कर सके होंगे ? जी नहीं! बिना स्थानीय सहायता और मार्ग निर्देशन के आपदा प्रबन्धन सम्पादन हो ही नही सकता था । किन्तु त्रासदी यह रही कि मीडिया और अन्य छवि वर्धक माध्यमों से ऐसा लग रहा है कि सेना और केन्द्रीय दल भगवान हैं और वे बिना स्थानीय प्रशासन व स्थानीय लोगों की सहायता से आपदा प्रबंधन का कार्य कुशलता से निभा रहे हैं। यह उत्तराखंड प्रशासनीय प्रबन्धन की सबसे बड़ी खामी रही कि छवि वर्धक माध्यमों ने स्थानीय प्रशाशन को गौण सिद्ध कर दिया। एक समाचार था कि पटवारी वहां सभी प्रशासकीय कार्य सम्भाल रहा है और यह समाचार इस तरह था जैसे पटवारी कोई फ़ालतू अधिकारी है। जब कि सभी पहाड़ी जानते हैं कि आज भी पटवारी तन्त्र ग्रामीण उत्तराखंड का सबसे मजबूत प्रशासकीय तन्त्र है। यदि पटवारी के कार्य को छवि वर्धन माध्यमों ने निम्न कोटि का प्रशासन गिना तो यह उत्तराखंड प्रशासकीय जनसम्पर्क विभाग की नाकामयाबी ही मानी जायेगी। होना क्या चाहिए था कि पटवारी के बारे में सभी माध्यमों को मालूम हो जाना चाहिए था कि स्थानीय प्रशासन का सूत्रधार पटवारी ही होता है और ग्रामीण परिवेश में परवारी सर्वेसर्वा है ना कि बेकार का प्रशासनिक पुर्जा ।
इंटरनेट माध्यमों में भी पहाड़ी समाज यही सूचना दे रहा है कि गाँवों में कुछ नही हो रहा है और कहीं ना कहीं प्रशासन की कमजोरी ही सामने आ रही है। जब कि सभी पहाड़ी जानते हैं कि "कख रै ग्यायि नीती,कख रै ग्यायि माणा , श्याम सिंग पटवारी ने कख सि जाणा" कहावत आज भी पहाड़ों के प्रशासन पर लागू होती है और हमे उसी दृष्टि से स्थानीय प्रशासन के कार्यों को नापना चाहिए ना कि मैदानी दृष्टि से।
अब पुनर्वास और पुननिर्माण का समय है तो उत्तराखंड प्रशासन , नेतृत्व, समाज के सभी अंगों से हम सभी यही आशा करते हैं कि पुनर्वास और पुननिर्माण कार्य सभी को दिखे और ये सभी कार्य उत्तराखंड के फिस्सडी प्रशासकीय छवि में सुधार करे।
उत्तराखंड पर्यटन के बगैर विकास नही कर सकता है। फिर विकास के अन्य कार्यों के लिए निवेश की अधिक आवश्यकता पड़ेगी। ऐसे में यदि उत्तराखंड प्रशासन विज्ञापनों को छवि वर्धन का माध्यम समझे तो समझो कि भविष्य में उत्तराखंड पर्यटन के मामले में और भी पीछे हो जाएगा। उत्तराखंड की सकारात्मक छवि ही पर्यटन और विकास कार्यों हेतु निवेश जुटा पायेगा।
पुनर्वास और निर्माण कार्य हों और साथ में ये सकारात्मक कार्य होते लोगों को भी दिखे तो ही उत्तराखंड ब्रैंडिंग को लाभ पंहुच पायेगा। पुनर्वास और निर्माण कार्य के बारे में जनसम्पर्क विधि द्वारा सभी भागीदारों को जानकारी मिलनी चाहिए। और यह जानकारी अवश्य ही उत्तराखंड छवि वर्धक होनी चाहिए। उत्तराखंड के प्रशासन को जानना चाहिए कि छवि निर्धारण में - प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रमाण; मिथ्या ज्ञान, विकल्प , अवचेतन मन , उप अवचेतन मन, स्मृति, वस्तु शून्य ज्ञान, लोगो के द्वारा भ्रम या सही ज्ञान फैलाना आदि छवि निर्धारण और छवि सुधार में कारगर सिद्ध होते हैं।
Copyright@ Bhishma Kukreti 5 /7/2013
उत्तराखंड में आया प्राकृतिक विप्लव, विपदा इस सदी की बड़ी आपदाओं में से एक आपदा है। इस आपदा ने उत्तराखंड को कई साल पीछे छोड़ दिया है।
आपदा आती हैं और मनुष्य अपने बल बूते पर उन आपदाओं से निपटकर आगे भी आ जाता है। कच्छ के भूकम्प में तो कच्छी समाज ने कच्छ की कायापलट कर के रख दी।
इस आपदा में सबसे त्रासदी वाला , सोचनीय व विचारणीय कोण यह है कि देस और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस आपदा में केवल यही दिखा कि उत्तराखंड में स्थानीय प्रशासन नाम का कोई पहलू है ही नही . ब्रैंडिंग वेत्ताओं की माने तो ऐसा लगा उत्तराखंड भगवान भरोसे चलता है ना की स्थानीय प्रशासन से। ठीक है कि इस तरह की आपदा झेलने के लिए भूतकाल का उत्तराखंड तैयार मिलता था किंतु वर्तमान उत्तराखंड इस तरह की आपदा आने की सोच भी नही सका था। किन्तु आपदा आने के पश्चात स्थानीय प्रशासन ने जो पाँव फुलाए उसने वह पुरानी छवि धूमिल कर दी कि जनसंख्या अनुपात के मामले में उत्तराखंड सेना कर्मी , अखिल भारतीय स्तर के अधिकारी, अखिल भारतीय स्तर के प्रवंध गुरु , कला रचनाधर्मी पैदा करने के मामले में अग्रिम पंक्ति में होता है। यहाँ तक कि जनसम्पर्क के मामले में भी उत्तराखंड प्रशासन फिस्सडी साबित हुआ। कार्य होना ही नही चाहिए अपितु कार्य का होना दिखना भी चाहिए।
क्या सेना और केन्द्रीय अधिकारी बिना स्थानीय प्रशासन, स्थानीय जनमानस की सहायता के वह प्रशंसनीय कार्य कर सके होंगे ? जी नहीं! बिना स्थानीय सहायता और मार्ग निर्देशन के आपदा प्रबन्धन सम्पादन हो ही नही सकता था । किन्तु त्रासदी यह रही कि मीडिया और अन्य छवि वर्धक माध्यमों से ऐसा लग रहा है कि सेना और केन्द्रीय दल भगवान हैं और वे बिना स्थानीय प्रशासन व स्थानीय लोगों की सहायता से आपदा प्रबंधन का कार्य कुशलता से निभा रहे हैं। यह उत्तराखंड प्रशासनीय प्रबन्धन की सबसे बड़ी खामी रही कि छवि वर्धक माध्यमों ने स्थानीय प्रशाशन को गौण सिद्ध कर दिया। एक समाचार था कि पटवारी वहां सभी प्रशासकीय कार्य सम्भाल रहा है और यह समाचार इस तरह था जैसे पटवारी कोई फ़ालतू अधिकारी है। जब कि सभी पहाड़ी जानते हैं कि आज भी पटवारी तन्त्र ग्रामीण उत्तराखंड का सबसे मजबूत प्रशासकीय तन्त्र है। यदि पटवारी के कार्य को छवि वर्धन माध्यमों ने निम्न कोटि का प्रशासन गिना तो यह उत्तराखंड प्रशासकीय जनसम्पर्क विभाग की नाकामयाबी ही मानी जायेगी। होना क्या चाहिए था कि पटवारी के बारे में सभी माध्यमों को मालूम हो जाना चाहिए था कि स्थानीय प्रशासन का सूत्रधार पटवारी ही होता है और ग्रामीण परिवेश में परवारी सर्वेसर्वा है ना कि बेकार का प्रशासनिक पुर्जा ।
इंटरनेट माध्यमों में भी पहाड़ी समाज यही सूचना दे रहा है कि गाँवों में कुछ नही हो रहा है और कहीं ना कहीं प्रशासन की कमजोरी ही सामने आ रही है। जब कि सभी पहाड़ी जानते हैं कि "कख रै ग्यायि नीती,कख रै ग्यायि माणा , श्याम सिंग पटवारी ने कख सि जाणा" कहावत आज भी पहाड़ों के प्रशासन पर लागू होती है और हमे उसी दृष्टि से स्थानीय प्रशासन के कार्यों को नापना चाहिए ना कि मैदानी दृष्टि से।
अब पुनर्वास और पुननिर्माण का समय है तो उत्तराखंड प्रशासन , नेतृत्व, समाज के सभी अंगों से हम सभी यही आशा करते हैं कि पुनर्वास और पुननिर्माण कार्य सभी को दिखे और ये सभी कार्य उत्तराखंड के फिस्सडी प्रशासकीय छवि में सुधार करे।
उत्तराखंड पर्यटन के बगैर विकास नही कर सकता है। फिर विकास के अन्य कार्यों के लिए निवेश की अधिक आवश्यकता पड़ेगी। ऐसे में यदि उत्तराखंड प्रशासन विज्ञापनों को छवि वर्धन का माध्यम समझे तो समझो कि भविष्य में उत्तराखंड पर्यटन के मामले में और भी पीछे हो जाएगा। उत्तराखंड की सकारात्मक छवि ही पर्यटन और विकास कार्यों हेतु निवेश जुटा पायेगा।
पुनर्वास और निर्माण कार्य हों और साथ में ये सकारात्मक कार्य होते लोगों को भी दिखे तो ही उत्तराखंड ब्रैंडिंग को लाभ पंहुच पायेगा। पुनर्वास और निर्माण कार्य के बारे में जनसम्पर्क विधि द्वारा सभी भागीदारों को जानकारी मिलनी चाहिए। और यह जानकारी अवश्य ही उत्तराखंड छवि वर्धक होनी चाहिए। उत्तराखंड के प्रशासन को जानना चाहिए कि छवि निर्धारण में - प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रमाण; मिथ्या ज्ञान, विकल्प , अवचेतन मन , उप अवचेतन मन, स्मृति, वस्तु शून्य ज्ञान, लोगो के द्वारा भ्रम या सही ज्ञान फैलाना आदि छवि निर्धारण और छवि सुधार में कारगर सिद्ध होते हैं।
Copyright@ Bhishma Kukreti 5 /7/2013
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