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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Thursday, August 16, 2012

क्या समालोचक को अधिकार नही है कि वह अपने साहित्य की विवेचना करे


 मै रोजाना  इन्टरनेट पर पिछले पांच छ सालों से गढ़वाली साहित्य का इतिहास व उसकी विवेचना करता आ रहा हूं. इस क्रम में मैंने गढवाली कविता, गढ़वाली लोक साहित्य. गढवाली मंत्र विधा, गढ़वाली नाटकों, गढ़वाली कहानियों, गढवाली संपादन विधा का आद्योपांत विवेचना की. जिसमे सफलता और असफलता के बारे में मै नही जानता किन्तु इन्टरनेट पर गढ़वाली विवेचनाओं से नेट पर गढ़वाली भाषा के पाठक बने , गढ़वाली भाषा और साहित्य के बारे में नेट सदस्यों में एक चेतना अवश्य  आई. नेट के बाहर भी गढ़वाली साहित्यकारों को एक सम्बल मिला कि उन्हें पहचान मिल रही है. यहाँ तक कि कुमाउनी पाठक भी गढ़वाली साहित्य के बारे में विज्ञ हुए.

साहित्य इतिहास विवेचना व समालोचना  के क्रम में अब मै कथाओं व व्यंग्य समीक्षा कर रहा हूं तो मेरे एक गढ़वाली -हिंदी साहित्यिक मित्र को कुछ अटपटा लग रहा है. उन्हें लग रहा है कि मै अपणी प्रसंसा हेतु व्यंग्य विधा की समालोचना कर रहा हूं. गद्य में व्यंग्य व कथा विधा का महत्व कम नही है अतः गढवाली में व्यंग्य कि दसा और दिशा पर कलम चलानी  पड़ रही है तो उसमे मुझे अपने द्वारा लिखे साहित्य की विवेचना भी आवश्यक हो जाती है . यही प्रतिक्रिया तब भी आई थी जब गढ़वाली के व्यंग्यकार  श्री नरेंद्र कठैत जी के  एक वाक्य पर मैंने प्रतिक्रिया जाहिर की थी . खबर सार के सम्पादक और  कठैत जी ने समझा कि मै अपने साहित्य के बारे में जादा बात कर रहा हूं . कठैत जी नही समझे कि यदि गढ़वाली व्यंग्य की बात होगी तो उसमे मेरे योगदान की भी बात होगी ही.

अब मेरे नेट के साहित्यिक सहकर्मी को मेरे द्वारा भीष्म कुकरेती के  बारे में विवेचना नही सुहा रही है यही प्रतिक्रिया श्री अबोध बहुगुणा के बारे में भी दी जाती थी कि श्री बहुगुणा  जी अपने बारे में लिखते हैं

यंहा पर प्रश्न आता है कि गढवाली सरीखी भाषा में जब साहित्यिक समालोचना व इतिहास  लेखक  स्वयं भी किसी विधा का लेखक हो तो क्या उस लेखक को अपने साहित्य के बारे में नही लिखना चाहिए?

मेरी अपने साहित्यिक मित्रों से आग्रह है कि इस बारे में मुझे मार्ग दर्शन दे कि यदि मैंने किसी विधा पर लिखा है तो क्या मुझे अधिकार नही है कि समग्र साहित्यिक इतिहास हेतु  मै अपने साहित्य की भी विवेचना करूँ ?
 
आपका भीष्म कुकरेती

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