Villages, Houses , Household Appliances of Kulind Janpad in context Ancient History Haridwar, Ancient History Bijnor, Ancient History Saharanpur
हरिद्वार, बिजनौर , सहारनपुर इतिहास संदर्भ में कुलिंद जनपद के गाँव , घर. घरेलू उपकरण आदि
Ancient History of Haridwar, Ancient History Bijnor, Ancient History Saharanpur Part --90
हरिद्वार, बिजनौर , सहारनपुर इतिहास -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग - 90
इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती
गाँव
घर
घरेलू उपकरण
** संदर्भ - ---
वैदिक इंडेक्स
डा शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड इतिहास - भाग -२
राहुल -ऋग्वेदिक आर्य
मजूमदार , पुसलकर , वैदिक एज
Copyright@ Bhishma Kukreti Mumbai, India 30 /3/2015
History of Haridwar, Bijnor, Saharanpur to be continued Part --
हरिद्वार, बिजनौर , सहारनपुर का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास to be continued -भाग -
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Ancient History of Haridwar, Ancient History Bijnor, Ancient History Saharanpur Part --90
हरिद्वार, बिजनौर , सहारनपुर इतिहास -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग - 90
भरत सिंह उपाध्याय अनुसार भाभर प्रदेश विशेषकर गंगाद्वार (बिजनौर सहित ) में कई वस्तियाँ थीं। बुद्ध कोलिय जनपद के सापुंग निगम से हरिद्वार के समीप उशीरध्वज पर्वत (आज का चण्डीघाट पर्वत ) पंहुचे थे।
उशीरध्वज से ऋषिकेश तक कई वस्तियां थीं। पाणिनि के समय नामों का बाहुल्य था जीने बसे स्थानों के नामन्त 'अर्म' लगा होता था। पत्पश्चात साहित्य में उजड़े स्थानो के नामन्त 'अर्म' लगने लगा। ऋषिकेश में एक स्थान का नाम अब भी 'कुब्जामर्क' है।
पाणिनि साहित्य में भारद्वाज क्षेत्र के दो गाओं का नाम मिलता है -कृकर्ण व पर्ण। पंतजलि ने इसी जनपद के दो नाम उल्लेख किया हैं - ऐणिक व सौँसुक। ईशा के पांचवीं -चौथी सदी पूर्व ये गाँव अवश्य ही महत्वपूर्ण रहे होंगे।
गाँवों से बाहर भिक्षुओं , विद्यार्थियों , ऋषियों, संघकारियों आदि की कुटियाएं होती थीं।
व्यक्तिगत खेतों के अतिरिक्त गाँव की सार्वजनिक (सँजैति ) जमीन भी होती थी।
गाँव में परिवारों के मकान पास पास होते थे। घर मिटटी -पत्थर -लकड़ी से बनाये जाते थे। मकान बनाने हेतु शायद दालों के आटे को मिट्टी के साथ मिलाने की विधि भी परिस्कृत हो चुकी होगी। धरातल लाल मिट्टी से पोती जाती थी व ऊपरी भाग सफेद रंग से रंगा जाता था।
निम्न उपकरणों का उल्लेख अष्टाध्यायी में है -
घास या पुआल का आसान या गद्दा
घास या पुआल का आसान या गद्दा
मांदरे - बांस , पुआल आदि से बना आसान गद्दा आदि
मूँज की चारपाई
पीढ़ा /चौकी
जानवरों के चरम पट्टियां
बांस /लकड़ी से अन्न रखने के पात्र
मिट्टी , लकड़ी व पत्थर के पात्र
थैले - खालों से बनते थे या पौधों की खालों से।
पानी पीने के लिए तुमड़ी का बहुप्रयोग होता था
श्रृंगार आदि
लंगोटी , कच्चा के ऊपर चादर लपेटी जाती थी
अनेक प्रकार के रंगों, चूर्णों से मुखाकृति सजाई जाती थी।
दर्पण का उपयोग भी होता था।
अंजन का प्रयोग आम बात थी यमुना घाटी अंजन उत्पादन के लिए प्रसिद्ध थी।
आभूषण पहनने का रिवाज था। भिक्षु , भिक्षुणियाएं भी आभूषण पहनते थे।
भोजन
दूध, दही , घी , मांश अवहसीक अंग थे।
दूध, दही , घी , मांश अवहसीक अंग थे।
तीखा , काली मिर्च , अदरक पीपल , नमक , गुड से स्वादिष्ट भोजन बनाया जाता था।
कंद मूल को ताजा या सुखाकर प्रयोग होता था।
पतली खिचड़ी , सत्तू आदि का प्रयोग रोज होता था।
मांडी , प्लेउ आदि द्रव रूपी भोजन भी आम भोजन था।
रसों में फलों का रस प्रयोग होता था।
जड़ी बूटियों से बना धूम्र पान (धुंवां ) का प्रचलन बहुत था।
रोग
अतिसार , अर्श , बहुमूत्र , प्रमेह , संग्रहणी , कुष्ट , पामन , खांसी , ज्वर , मलेरिया , चर्मरोग , गण्डमाला , हृदय रोग , पक्षाघात , भगंदर रोग मुख्य थे।
जड़ी बबूटियों का प्रयोग रोग निदान हेतु किया जाता था।
जड़ी बबूटियों का प्रयोग रोग निदान हेतु किया जाता था।
मंत्र व तंत्र
रोग निवारण हेतु तंत्र मंत्र का प्रयोग होता था।
वशीकरण वचार प्रचलित था।
कृषि
मंडुवा , कौणी -झंगोरा , मूंग , उड़द , अरहर , धान , तिल , जौ , गेंहू , गन्ना , कपास की खेती होती थी।
जंगली पशुओं को पकड़ने की कई विधियां उपयोग में लायी जाती थीं।
पशुपालन कृषि का मुख्यांग था।
शस्त्रोपजीविका
अंतिम संस्कार
शस्त्रोपजीविका
उन दिनों पर्वतीय प्रदेशो याने बिजनौर , हरिद्वार और सहारनपुर क्षेत्र में भी साहसी युवक शस्त्रों से आजीविका कमाते थे। पाणिनि ने अत्ष्टध्यायी में पश्चिमी व मध्य हिमालय ढालों पर रहने वाले शस्त्रोजीवियों याने आयुधजीवियों का वर्णन किया है। सत्यकेतु विद्यालंकार ने महजनपद युग में योधाय जनपद की पहचान सहारनपुर से की है।
भाभर ही नही अन्यत्र भी उत्सेधजीवियों (चोर डाकू ) से बचने के लिये सभ्रांत व व्यापारी आयुधजीवियों की सहायता लेते थे।
भाभर की मंडियों से व्यापार
भाभर व तराई (गढ़वाल , बिजनौर , हरिद्वार व सहारनपुर का भाग ) में व्यापारिक मंडियां थीं और इन मंडियों में पहाड़ों से पर्वतीय उत्पाद निर्यात हेतु आता था और यहीं से मैदानी वस्तुएं पहाड़ी खरीद कर ले जाते थे।
मार्ग
बुद्ध जीवन काल में भाभर में ही उत्तम मार्ग थे। बुद्धकालीन शाक्य , बुलिय , कालाम , मल्ल , लिच्छवी को जोड़ने हेतु व्यापारिक मार्ग अहिछत्रा , गोविषाण , अहोगंग , कालकूट , स्रुघ्न होकर साकल पंहुचता था। इन मार्गों पर जल , घास ईंधन व पड़ाव योग्य स्थान थे व नदी पार करने की सुविधा भी थी। इन मार्गों पर ढोने के पशु परिहवन हेतु पशु हर ऋतू में चल सकते थे।
भाषा
शिष्ट समाज की भाषा संस्कृत थी। जनता की भाषा स्थानीय भाषा थी जिस पर धीरे धीरे संस्कृत का प्रभाव पड़ने लगा था और साथ ही साथ संस्कृत में स्थानीय शब्द आने लगे थे।
नामकरण
नामकरण में मनुस्मृति या स्मृतियों का पूरा प्रभाव था।
परिवार या कुल वास्तव में गाँव के नाम से जाना जाता था।
शिक्षा
गुरुकुल पद्धति से शिक्षा का प्रबंध होता था। लड़कियों को भी शिक्षा दी जाती थी। विद्या धिकार ब्रह्मणो को था किन्तु हरिजन गुरु की इच्छा से विद्या ग्रहण कर सकते थे। बुद्ध के समय व उपरान्त हरिजनों को शास्त्र शिक्षा के लये रास्ते खुल गए थे।
विवाह
महाभारत कालीन विवाह संस्था में अधिक अंतर नही आया था। बहिन के पुत्र -पुत्रियों से अपने पुत्र -पुत्रिओं की शादी करना शुभ माना जाता था। विवाह के अवसर पर मांश परोशना श्रेयकर माना जाता था।
अंतिम संस्कार में मृतक को जलाया भी जाता था व शवों को गाड़ा भी जाता था। दाह संस्कार के बाद मृतक की हड्डियों को किसी स्थान में गाड़कर उस स्थान में स्तूप खड़े करने की परम्परा भी शुरू हो गयी थी।
शासन
गण , एकाधिकारी राज्य या संघ संस्कृति अनुसार शासन व्यवस्था चलती थी।
राजा मंत्रिपरिषद की रचना करता था व उनसे सलाह लेता था।
कर भी लगाये जाते थे।
खेतों को रस्सियों से नापा जाता था।
** संदर्भ - ---
वैदिक इंडेक्स
डा शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड इतिहास - भाग -२
राहुल -ऋग्वेदिक आर्य
मजूमदार , पुसलकर , वैदिक एज
घोषाल , स्टडीज इन इंडियन हिस्ट्री ऐंड कल्चर
आर के पुर्थि , द एपिक सिवलीजिसन
अग्रवाल , पाणिनि कालीन भारत
अग्निहोत्री , पंतजलि कालीन भारत
अष्टाध्यायी
दत्त व बाजपेइ , उत्तर प्रदेश में बौद्ध धर्म का विकास
महाभारत
विभिन्न बौद्ध साहित्य
जोशी , खस फेमिली लौ
भरत सिंह उपाध्याय , बुद्धकालीन भारतीय भूगोल
रेज डेविड्स , बुद्धिष्ट इंडिया
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History of Haridwar, Bijnor, Saharanpur to be continued Part --
हरिद्वार, बिजनौर , सहारनपुर का आदिकाल से सन 1947 तक इतिहास to be continued -भाग -
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