जमीन से ऊपर आसमान से नीचे,
पड़ा रहता हूँ प्रकृति के पीछे,
देखने को आँख से अपनी,
उत्तराखंड के पर्वतों से दूर,
नहीं मिलता आप जैसा प्यार,
मन रहता है तुम बिन मजबूर,
देखने को गढ़वाल हिमालय का भाल,
जहाँ अपना कुमायूं अर गढ़वाल,
बहती हैं अनगिनत निर्मल नदियाँ,
मनमोहक पर्वतों की वादियाँ,
खिलते हैं जहाँ डाली डाली पर फूल,
जग प्रसिद्ध है मलेथा की कूल,
मन मरा कसक में तुम्हारी,
आज विरह में "पहाड़ के पंछी" की तरह,
लौटने का पथ भी गया हूँ भूल.
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित 20.4.2010)
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