(गंगासलाण का इतिहास व वैशिष्ठ्य श्रृंखला )
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सर्वाधिकार @ भीष्म कुकरेती , मुंबई , 2018
आलेख : भीष्म कुकरेती
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जसपुर गाँव में कई सामाजिक क्रांतियां हुईं या कहें तो लोगों ने अपने अधिकारों के लिए कई लड़ाइयां लड़ीं , कुछ जीते कुछ अनिर्णीत रह गयीं।
भूमिहीन द्वारा सँजैत भूमि छीनो या भूमि हस्तगत करना भी एक तरह का संघर्ष ही होता है या भूमिहीन द्वारा दूसरे की जमीन हथियाना भी तो संघर्ष ही है । जसपुर गाँव में दो भूमि अधिग्रहण ऐतिहासिक हैं। एक तो जसपुर के शिल्पकारों द्वारा नाओ /नाव /नावो डांड पर कब्जा कर उसे कृषि लायक बनाना और दूसरा सौड़ गाँव वालों द्वारा ग्वील गाँव वालों के कब्जे वाले क्षेत्र कळसूण (जसपुर का अंग ) पर कब्जा।
आज मै नावो डांडे पर चर्चा करुंगा।
नावो डांड जसपुर के उत्तर में दो ढाई मील पर एक विशेष डाँड है। नावो डांड गुडगुड्यार गदन के ऊपर और लयड़ डांड के नीची वाला भूभाग है। नाव डांड की एक और विशेषता है कि यहां बारामासा पानी है शायद इसीलिए इस भूभाग को नाव डांड कहा जाता है और दो मील पश्चिम व एक मील पूर्व में कहीं भी भद्वाड़ हो उस समय मवेशियों को पानी पिलाने यहीं लाना पड़ता था। नाव मे पानी ना होता तो पुरयत , भटिंडा , बांजै धार और लयड़ में भद्वाड़ करना कठिन हो जाता।
इस भूभाग पर जो भी खेत हैं उन पर केवल शिल्पकारों का ही कब्जा है और नीचे जखमोलाओं का कब्जा है। दिखने -सुनने में तो सरल लगता है कि इस भूभाग पर शिल्पकारों का कब्जा है। गढ़वाली राज से लेकर गोरखा राज तक शिल्पकारों को जमीन पर कब्जा देने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था। अंग्रेजों के जमाने में शिल्पकार सवर्णों को वन भूमि को कृषि भूमि बनाने में सहायता करते थे किन्तु अपने आप जंगल की भूमि नहीं हथिया सकते थे। अंग्रेजी सरकार के प्रोत्साहन के कारण ही जो भी खेत आज दिख रहे हैं उनका 60 प्रतिशत हिस्सा अंग्रेजों के समय में ही हस्तगत किया गया । जंगल काट कर कृषि भूमि बनाने हेतु अंग्रेजी शासन ने ही जनता को प्रोत्साहन दिया था। किन्तु तब भी शिल्पकार पीछे रहे क्योंकि समाज में इसे बर्जित माना जाता था।
किन्तु जसपुर में नाव डांड की कृषि भूमि पर शिल्पकारों का कब्जा है। नावो डांड पर शिल्पकारों के कब्जे पर मुझे जसपुर के सवर्णो से तीन कथाएं मिलीं। चूँकि इन कथ्यों की पुष्टि करने वाला कोई नहीं है तो मैं इन कथ्यों को लोककथा ही मानकर चल रहा हूँ।
पहला कथ्य है कि जसपुर के सवर्णों की सहमति से शिल्पकारों ने नावो डांड की खुदाई की और कृषि भूमि तैयार की। बात हजम होने लायक नहीं है। जिस गाँव में --एक कुकरेती मुंडीत वालों ने एक मुट्ठी बंजर सँजैत जमीन (घीड़ी ) में मकान बनाया तो गाँव वालों ने उन पर मुकदमा ठोक डाला। यह मुकदमा बीस तीस साल चला। उस गाँव वालों से शिल्पकारों को सरलता से कृषि भूमि खोदने देना नामुमकिन लगता है।
एक कथ्य है कि शिल्पकार कुल्हाड़ी , तलवार लेकर भूमि खोदने गए। तो उन्होंने इस तरह भूमि छीनी। इस कथ्य में भी तर्क नहीं लगता क्योंकि ऐसा होता तो शिल्पकार अन्य जगह भी यही रणनीति अपनाते। फिर शिल्पकार बाड़ा के नीचे जैखाळ वन की जमीन हथियाना ज्यादा तर्कसंगत होता (वैसे जैखाळ ग्वील वालों का वन भी है ) .
तीसरा कथ्य जो मुझे मेरी दादी जी श्रीमती क्वाँरा देवी पत्नी स्व शीशराम कुकरेती ( मेरे पिता जी की ताई जी ) ने सुनाया था अधिक तर्कसंगत लगता है। कुली बेगारी के समय अंग्रेज अधिकारियों व भारतीय अधिकारियों की भोजन पानी , परिवहन हेतु ग्रामीणों को कुली बेगार करनी पड़ती थी और टट्टी पेशाब का ट्वायलेट कंडोम सिर पर उठाकर ले चलना पड़ता था। ब्राह्मण जाति होने के नाते जसपुर वालों को ट्वाइलेट कंडम उठाना या साफ़ करना नागंवारा लगा तो एक सामाजिक संधि के तहत यह निर्णय हुआ कि शिल्पकार कुली बेगार पांती में ट्वाइलेट कंडम उठाएंगे और इसके ऐवज में शिल्पकार नाव /नाओ डांड को कृषि भूमि लायक बना सकते हैं।
जो भी कारण रहे होंगे शिल्पकारों को नावो डांड भूमि अधिग्रहण में सवर्णो के विरुद्ध संघर्ष तो करना ही पड़ा होगा। संघर्ष में किस तरह सामाजिक तनाव रहा होगा यह हम आज नहीं सोच सकते। इतिहास पर गौर करें तो पाएंगे कि तहसीलदार ठाकुर जोध सिंह नेगी के कारण गढ़वाल में कुली बेगार समाप्त करने हेतु कुली एजेंसी बन चुकी थी। याने शिल्पकारों का नावो डांड पर शिल्पकारों का कब्जा 1900 से कई साल पहले हो चुका था। सरकारी खसरे में कब जमीन जोड़ी गयी यह देखना पड़ेगा। कुछ साल पहले नाव डांड में स्व कानूनगो श्री कृष्ण दत्त ने मकान भी बनवाया था जो अब उजाड़ हो गया है।
यदि आपके पास भी ऐसी सूचनाएं हैं तो साजा कीजियेगा
सर्वाधिकार @ भीष्म कुकरेती , मुंबई , 2018
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