उत्तराखंड में कृषि व खान -पान -भोजन का इतिहास -- 86
History of Agriculture , Culinary , Gastronomy, Food, Recipes in Uttarakhand -86
History of Agriculture , Culinary , Gastronomy, Food, Recipes in Uttarakhand -86
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आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व सांस्कृति शास्त्री ) -
जलेबी गढ़वाल कुमाऊं व हरिद्वार सब जगह प्रसिद्ध है तभी तो 'जलेबी तरां सीदी ' कहावत गढ़वाल में आम है। फिर यीं घिरळि पुटुक मिठु कैन भौर जैसे कथ्य भी जलेबी की महत्ता बतलाते हैं। शायद दो एक पहेली भी गढ़वाल कुमाऊं में जलेबी संबंधित हैं।
भारत में जलेबी
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हमें जलेबी व इमरती का जिक्र सबसे पहले 1886 में प्रकाशित हॉबसन -जॉनसन के Jeelaubee में मिलता है और पता चलता है कि जलेबी नाम अरबी भाषा में जलाबिया और ईरानी /फ़ारसी भाषा के शब्द जिलेबिया का अपभ्रंस है। (दिलीप पडगांवकर , 2010, टाइम्स ऑफ इण्डिया )-
एक दसवीं सदी की रसोई किताब में जलेबी बनाने की किस्मों का उल्लेख है। तेरहवीं सदी में इरानी लेखक मुहम्मद बिन हसन बगदादी की रसोई किताब में जलेबी बनाने की विशियों का उल्लेख है ( ऑक्सफोर्ड कम्पेनियन टु फूड , 2014 ).
सत्य प्रकाश सांगर की पुस्तक 'फूड्स ऐंड ड्रिंक्स इन मुग़ल इंडिया (1999 ) में उल्लेख है कि जलेबी मुगलों को पसंद थी।
माना जाता है कि पंद्रहवीं सदी से पहले या इस सदी में तुर्क जलेबी को भारत लाये और जलेबी भारतीयों की जीव की पसंदीदा मिठाई बन गयी।
पंद्रहवीं सदी में जलेबी का नाम भारत में कुंडलीका या जलवालिका था। जैन साहित्य के लेखक जैनसुर के पुस्तक प्रियंकरनृपकथा (1450 ) में उल्लेख है कि सभ्रांत लोग जलेबी कहते थे।
सोलहवीं सदी की भारतीय पुस्तक 'गुणयागुणबोधनी' में भी जलेबी बनाने का जिक्र है (पी की गोडे। 1943 ,दि न्यू इंडियन एंटीक्यूटि , ) .
उत्तराखंड में जलेबी
उत्तराखंड की पहाड़ियों में जलेबी का इतिहास गायब है। हाँ हरिद्वार के बारे में 1808 में रेपर की यात्रा वृतांत बहुत कुछ कहा डालता है। रेपर उल्लेख करता है (The Spectator ,1986, vol 256 ) कि हरिद्वार में हर चौथी दूकान मिठाई की दूकान है और यहां लगता है भगवया रंग सबको पसंद आता है। साधू भगवया कपड़ों में और जलेबी भी भगवैया रंग की।
लगता है कुम्भ मेले के कारण जलेबी सोलहवीं सदी में हरिद्वार में बननी शुरू हुयी होगी। और यदि जलेबी हरिद्वार सोलहवीं या सत्रहवीं सदी में पंहुच गयी थी तो देहरादून वासियों ने अवश्य जलेबी चखी होगी। उदयपुर व ढांगू वालों ने भी अवश्य जलेबी चखी होगी।
फिर कुछ यात्री जलेबी को हो सकता है बद्रीनाथ यात्रा मार्ग में ले गए होंगे और किसी चट्टी निवासी को खिलाया भी होगा। वैसे यात्री जलेबी को महादेव चट्टी तक ही ले जा सकता था आगे तो जलेबी में दुर्गंध ने लग जाती होगी।
पर्वतीय उत्तराखंड में जलेबी का प्रचलन अंग्रेजी शासन में ही हुआ होगा और उसमे सैनकों व जो मैदानों में नौकरी करते थे उनका ही अधिक हाथ रहा होगा। तो कह सकते हैं कि लैंसडाउन के स्थापना बाद जलेबी का प्रचलन शुरू हुआ होगा।
वैसे पीलीभीत , नजीबाबाद व हरिद्वार के बणिये जो भाभर क्षेत्र व रानीखेत , टनकपुर , दुगड्डा में दुकानदारी करने (उन्नीसवीं सदी अंत व बीसवीं सदी ) आये होंगे वे ही जलेबी लाये होंगे। उन्होंने ही जलेबी तलने का काम शुरू किया होगा और मेलों में जाकर जलेबी को घर घर पंहुचाया होगा।
देहरादून में स्वतंत्रता से पहले जलेबी बणियों की दुकानों में तली जातीं थी तो स्वतंत्रता बाद सिंधी स्वीट शॉप , कुमार स्वीट शॉप भी मैदान में आये। गढ़वालियों में बडोनी लोगों की बंगाली स्वीट शॉप के अलावा कोई ख़ास नाम 1975 तक न था।
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