संस्कृति परिवर्तन दर्शक ::: भीष्म कुकरेती
मनिख जब पलायन करद त कुछ दिन तलक अपण पुरातन संस्कृति बचाव मा जी जान लगै दींद। प्रथम कुछ साल वो भूतकाल तैं वर्तमान मा जीणै कोशिस करदो। अर यु मीन मुंबई मा गढ़वाल दर्शन मा दिख्युं च।
गढ़वाल दर्शन जोगेश्वरी , मुंबई याने गढ़वाल का एक बड़ो गाँव याने ए बिग गढ़वाली विलेज ! जी हाँ आज बी गढ़वाल दर्शन मा गढ़वाल का चरित्र ज़िंदा छन। कुछ बूड बुड्या बच्यां छन तो गढ़वाल की संस्कृति दर्शन ह्वे इ जांदन। कुछ नी त गाळी त बचीं इ छन। इख तलक कि गैर गढ़वाली बच्चा बि यूं गाळयूं प्रयोग करणम गर्व महसूस करदन।
गढ़वाल दर्शन की एक बड़ी विशेषता या छे कि जु बि जनानी इक आयी छे उ सीधा ट्रेन से इकि आयी बीच मा दिल्ली देहरादून दर्शन करिक क्वी नि ऐ छायी। तो यूं जनान्युं तै अपण संस्कृति दगड़म लाणम क्वी शरम नि लग अर कसम से यूं जनान्युंन या यूंक पतियोंन या बच्चोंन कबि बि मकर संक्रांति तै लोहड़ी या बिखोत तैं बैशाखी नि बोल। जन दिल्ली देहरादून का प्रवासी आपस मा 'लोहड़ी दि वधाई ' बुल्दन उन गढ़वाल दर्शन का गैर गढ़वाली बि नि बुल्दन। इख आज बि 5 साल का गढ़वाली बच्चा हो या गैर गढ़वाली बच्चा हो उ मकर संक्रांति तैं मक्रैणी इ समजद। हां चूंकि मक्रैणी अर्थ उत्तरायणी या पतंग बाजी बि हूंद तो वो उत्तरायणी बि बोल लींद किन्तु मकरैणी को अर्थ जणदु च।
मेरी मा इख 1972 का करीब ऐ होली- ट्रेन से सीधा ऋषिकेश से मुंबई। इनि गढ़वाल दर्शन का अन्य गढ़वाली जनानी बि ऐ छा। अर एक विशेषता या छे कि 80 प्रतिशत गढ़वाली ढांगू (उदयपुर। लंगूर अजमेर सब ) , बदलपुर ,का छा , कुछ मौ पैनों , बणेलस्यूं , मनियारस्यूं असवालस्यूं, चौंदकोट, पयासु वळ बि छा। याने दक्षिण गढ़वाळयूं बहुमत। ढांगू (मतबल अजमेर , लंगूर , शीला ) वळुं अधिपत्य त अबि बि बरकरार च। आज बी कुकरेती इक बहुमत का करीब ही छन। निथर रिस्तेदार मिलैक त बहुमत ही च। तो एक हैंक से रिस्तेदारी या अन्य संबंध का मामला से बि कुछ हद तलक गढ़वाली भोजन संस्कृति इख अबि बि बचीं च। बार त्यौवारौ दिन स्वाळ -भूड़ा बंटण अर अन्य दिन सागै कटोरी कु आदान प्रदान अबि चलणु रौंद।
हां त विस्तृत ढांगू वळुं अधिपत्य हूण से , मकरैणी दिन बि भोजन संस्कृति कुछ हद तक अबि बि ज़िंदा च।
सन 1971 -75 मा मक्रैणी मतलब छौ खिचड़ी संग्रांद। म्यार पिता जी तैं सूंटै खिचड़ी पसंद छे तो हमर इक बूबा जीक ज़िंदा रौण तक मक्रैणी दिन सूंटै खिचड़ी बणदि छे। अर जौंक इक उड़दै खिचड़ी बणदि छै तो खिचड़ी आदान प्रदान बि ह्वे जांद छौ तब हमर ब्वे या बुबा लोग भोजन आदान प्रदान तै बुरु नि मानदा छा। चूंकि कुकरेती , जखमोला या बलोदी गंगाड़ी छन (इन मथि मुलक्या सर्यूळ बुल्दन ) तो हम भात का मामला मा ज्यादा संवेदन शील बि नि छंवां। त हमर इक नगर गाँव, असवाल स्यूं का चौहान जी या जखनोळी गाँव , मनियारस्यूं का नेगी जीक इखन खिचड़ी ऐ बि जांद छौ तो हम खै लींद छा। तो वै बगत मक्रैणी दिन चार पांच किसमौ खिचड़ी खाणो सुवसर मिल जांद छौ।
अब चूंकि मेरी माँ का उमर की जनान्युं मा मेरी माँ अर खमण की बोडी (स्व कृष्ण दत्त बडा जी की धर्मपत्नी ), जैं गां अजमेर की बिष्ट्यांण भाभी ही बचीं छन अर बोडी व बिष्ट्यांण भाभी बि अब गढ़वाल दर्शन म नि रौंदन त खिचड्या संग्रांद अब पुलाव या बिरयानी संग्रांद तक सीमित ह्वे गे या बंद ही समजो।
मेरी माँ कु जब तक राज छौ त खिचड़ी , झुळळी का अलावा स्वाळ -भूड़ा आवश्यक छा। अब धीरे धीरे ना खिचड़ी महत्व रै गे ना स्वाळ -पक्वड़ की। अब त्यौहारौ गंध लगाणो बान गुलगुला बण जांदन अर पुलाव या बिरयानी।
भौत साल तक गढ़वाल दर्शन मा तिल्लुं लडूं क्वी ख़ास महत्व नि छा किन्तु अब तिल्लुं लडू बि आण लग गेन किन्तु बरानामौ कुण। फिर बि द्वी चार घौरम स्वाळ -पक्वड़ बण इ जांदन।
बच्चा लोग देखादेखी पतंग खिल्दा छा पर अब पतंगबाजी बि कम ही ह्वे गे। नौनी अधिक ह्वे गेन त पतंगबाजी बि समाप्ति ही समजो।
14/1 / 2018, Copyright@ Bhishma Kukreti , Mumbai India ,
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----- आप छन सम्पन गढ़वाली ----
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