ना घर ही बचा है ,बची ना निशानी
बहा ले गया सब पहाड़ों का पानी
थी कंठों मे अटकी सांसें हमारी
छिटक हाथ से जा रही ज़िंदगानी
कहीं पर लिखी जा रही थी कहानी
कहीं पग तले धंस रही थी जवानी
ना घर ------------
जो बिछुड़े थे उस पल जाने कब मिलेंगे
भोगा था जो सच वो हमसे कहेंगे
अचरज भरी होगी उनकी कहानी
पहाड़ों पर आई ,ये कैसी सुनामी
ना घर ----------
केदार नाथ त्रासदी पर पिछले वर्ष यह रचना रची थी अनेक पत्र पत्रिकाओं ऐवम काव्य संग्रह मे भी प्रकाशित हुई है। आपको सादर प्रेषित
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