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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Tuesday, June 1, 2010

डा य री" (दैनन्दिनी)

एक दिन देखी मैंने,
पन्ने पलट पलट कर,
जिसमें लिखे हैं स्मरण मैंने,
अतीत से आज तक.

फर्क इतना है,
लिखे हैं मैंने,
कुछ बचपन में पहाड़ पर,
कुछ परदेश प्रवास में,
जीवन काल के बीते लम्हों के,
संकलन के रूप में,
जो फिर नहीं लौटेगा,
तरकस के तीर की तरह.

जब पढ़ा मैंने,
वो बीच का पन्ना,
जिसमें लिखी है,
पहाड़ से परदेश आने की,
तारीख और साल.

कैसे तय किया होगा,
अपने गाँव बागी-नौसा से दूर,
पैदल पहाड़ी रस्ते का सफ़र,
जामणीखाळ बस स्टेशन तक.

फिर मन में ख्याल आया,
तब तो मैं पहाड़ी जवान था,
पर्वतों को लांघने में,
ऊकाळ और ऊद्यार जाने में,
नहीं घबराता था,
आज की तरह,
क्योंकि, अब जकड़ लिया है,
जिंदगी के जालों ने,
चढ़ रहा हूँ,
बुढ़ापे की पहली सीढ़ियाँ,
"डा य री" भी,
आज हो गई मेरी तरह.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित ७.४.२०१०)

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