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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Tuesday, June 1, 2010

"ठोकर"

लगती हैं इंसानों को,

जब वे आँख होते हुए भी,

ज्ञान होते हुए भी,

अज्ञान के वसीभूत होकर,

चलते हैं अपनी राह पर,

और खाते हैं ठोकरें,

तब खुलती हैं उनकी आँखें,

होता है ज्ञान का एहसास,

ठोकर खाने के बाद.



पत्थर से भी लग जाती है,

फिर कोसता है इंसान,

ठोकर लगने के बाद,

पथ पर पड़े पत्थर को,

जो इन्सान की तरह नहीं,

बेजान है पथ पर पड़ा.



खा जाते हैं इन्सान कभी,

कुछ अनोखा करने की ठानकर,

जब नहीं होती कल्पना साकार,

लेकिन! फिर भी आगे बढ़ता है,

ठोकर खाने के बाद,

कुछ प्राप्त करने की चाहत में.



रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"

(सर्वाधिकार सुरक्षित १४.४.२०१०)

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