भीष्म कुकरेती
फेस बुक मा पोस्टिंग से एक फायदा च लेखक तैं पता चल जांद कि लेख बंचनेरुं तैं कथगा पसंद आयी। लिखवारुं तैं फटफटाक समज मा ऐ जांद कि लेखौ विषय मा कथगा दम च। बंचनेरुं याने पाठकु रूचि बि पता चौल जांद।
मीन पायी जब मि गढ़वाली गाउँ विषय उठांदु तो पाठकुं प्रतिक्रया बिंडि आंदि। गढ़वाली भाषौ पाठक गढ़वाली गाँव विषय तैं जादा पसंद करद।
उत्तराखंड संबंधी साधारण आम विषयुं मा बि आम बंचनेरुं रूचि कुछ हद तक रौंदि च।
राष्ट्रीय स्तर विषयुं तैं गढ़वाली पाठक बंचद त च पर रूचि का मामला मा गढ़वाली उत्तराखंडी विषय से पैथर छन।
अंतर्राष्ट्रीय विषय गढ़वाली बंचनेर सुंगद बि नि छन।
बात बि सै च अंतररास्ट्रीय या रास्ट्रीय विषयुं तै पढ़न त हिंदी या अंग्रेजी साहित्य अधिक सुभीताजनक च।
गढ़वाली साहित्य का लिख्वार याने लेखक तीन प्रकार का छन -
१-ठेठ गांऊं मा वास करण वाळ
२-उत्तराखंड का शहरी लिख्वार
३-प्रवासी अर प्रवासी बि उत्तराखंड से नजीक का अर दूर का प्रवासी
जख तलक 1970 -1975 तक कु सवाल छौ त सन १९०० कु गढ़वाल अर 1975 कु गढ़वाल मा अधिक अंतर नि छौ तो जु प्रवासी लिख्वारन बचपन मा गढ़वाल देख रै होलु तो अमूनन वो ही बुड्यांदैं गढ़वाल छौ। याने कि प्रवासी गढ़वाली का पास गढ़वाल संबंधी विषय पूरा छा।
अब 1982 का बाद टेलीविजन क्रान्ति अर 1999 का बाद सूचना क्रांति का बाद स्तिथि बिलकुल अलग च। पलायन से अब गांव अर गाँव वाळु मनस्थिति मा रोज नया बदलाव आणा छन।
सामजिक अर आर्थिक स्थिति मा अब हर पांच साल मा 180 डिग्री को अंतर ह्वे जांद।
शिक्षा अर शिक्षा माध्यम अब वै तरां का नि छन जु में सरीखा या पाराशर गौड़, जेठुरी, विजय गौड़ , सेमवाल सरीखा विदेश बस्याँ प्रवासी लेखकुंन देखि छौ।
यद्यपि पाराशर गौड़, जेठुरी, सेमवाल, विजय गौड़ सरीखा विदेश बस्याँ प्रवासी लिखवारुं मा विस्तृत वैश्वविक भौगोलिक अर सांस्कृतिक पैनोरामा च , अलग अलग भाषओं साहित्य पढ़णो अवसर जादा च किन्तु गढ़वाल की महीन -सामयिकता का ज्ञान नि हूण से गढ़वाल का बारा मा गढ़वाली साहित्य मा सामयिकता लाण मा यी प्रवासी साहित्यकार या दिल्ली -मुम्बई का साहित्यकार लाचार छन।
तबि तुम दिखिल्या कि बालकृष्ण भट्ट , विजय गौड़ , जेठुरी , भीष्म कुकरेती , सेमवाल , पाराशर गौड़, प्रभात सेमवाल , जगमोहन जयाड़ा आदि लिखवारुं अधिकतर विषय या तो स्मृतियूँ - यादूं पर आधारित विषय छन या अखबार , टीवी , इंटरनेट की सूचनाओं आधारित विषय छन। भौत सा प्रवासी लिखवारुन अफु तैं गढ़वाल कि प्रकृति तक सीमित करी दे।
भौत सा प्रवासी लिख्वार बस सांस्कृतिक -सामाजिक स्ट्रक्चर टुटण तक ही सीमित ह्वे गेन अर अपण खुद का साहित्य मा इवॉल्यूशनरी बदलाव लाण मा नाकामयाब छन खासकर पाराशर गौड़, बालकृष्ण भट्ट अर जगमोहन जयाड़ा का साहित्य तो जाम ह्वे गे। इन नी च कि यूं तैं पता नी च कि यूंक साहित्य मा एक ठहराव आयुं च। किन्तु प्रवास मा रैक यी लिख्वार अपण साहित्य मा इवोल्यूशनरी चेंज लाण मा लाचार छन।
भीष्म कुकरेती , गीतेश नेगी अर विजय गौड़ यद्यपि कोशिस करणा छन कि अपण खुद का लिख्युं साहित्य मा इवॉल्यूशनरी बदलाव लावन किन्तु चूँकि यी साहित्यकार वास्तविक धरातल से भौत दूर छन तो यूँन एक नई विधि अपनायी अर वा च साहित्य मा नाम, प्रतीक गढ़वाली दे द्यावो बकै विषय तैं रास्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय ही रौण द्यावो। इखम मि गीतेश नेगी कु उदाहरण दींदु जौं तैं अंतराष्ट्रीय साहित्य कु भलो ज्ञान च (खासकर कविता ) किन्तु गढ़वाल मा नि रौणो कारण वो उथगा उत्पादक साहित्य नि दे सकणा छन जथगा कि गीतेश मा सामर्थ्य च। इनी विजय गौड़ मा कविता कु मर्म समझणो भौत बड़ी सामर्थ्य च किन्तु गढ़वाल से दूर रौण से विजय गौड़ की पूरी सामर्थ्य को उपयोग पूरो नि ह्वे सकणु च।
प्रवासी लिख्वार जाणदा छन कि महीन-सामयिक सामाजिक -सांस्कृतिक -भौगोलिक स्थति तैं चित्रित करण ही युंक धर्म च, कर्म च किन्तु वास्तविकता याने गढ़वाल से दूर रौणो कारण प्रवासी गढ़वाली भाषा का साहित्यकार वास्तव मा लाचार छन अर अधिकाँश प्रवासी साहित्यकार अपणी क्षमता से भौत कम उत्पादक साहित्य दीणा छन। यूंकि लियाकत का समणि वास्तविकता से दूर रौण बड़ो रोड़ा च , पौड़ च।
Copyright@ Bhishma Kukreti 30 /3/2014
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