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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Tuesday, June 1, 2010

गंगा जी का मैती

तिस्वाळा छन आज,
जख बिटि औणि छ गंगा,
अर बग्दु जाणी,
पहाड़ छोड़ी दूर,
सागर की तरफ.

छोया ढुंग्यौं कू पाणी,
हर्चंणु छ आज,
तिस्वाळा छन मन्खी,
अर छन घंगतोळ मा,
बिना पाणी कू क्या करौं?
जाणा छन गौं छोड़ि,
यनु अपणा मन मा सोचि,
तिस्वाळा किलै मरौं.

कथगा धौळि बगणि छन,
देवभूमि उत्तराखंड मा,
ऊंकू पाणी पर्वतजनु तैं पिलावा,
बंजेणा छन घर गौं,
सरकार तैं भी समझावा.

पैलु हक्क पर्वतजनु कु छ,
उंकी तीस बुझावा,
धौळ्यौं कू बग्दु पाणी,
पम्प करिक पहाड़ मा,
गंगा जी का मैत्यौं तैं,
छकि-छकिक पिलावा,
तिस्वाळु न सतावा.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित १२.४.२०१०)

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