Arrival of Shankaracharya boosted Organized Uttarakhand Tourism Management
( शंकराचार्य आगमन काल में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )
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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास ) -36
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Medical Tourism Development in Uttarakhand (Tourism History ) - 36
(Tourism and Hospitality Marketing Management in Garhwal, Kumaon and Haridwar series--141 ) उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन -भाग 141
कत्यूरी शासकों ने गोपेश्वर , केदारनाथ, तुंगनाथ , कटारमल आदि मंदिरों में पूजा , नृत्य , गायन , बलि , अन्नदान हेतु विशेष प्रबंधन शुरुवात की। मंदिरों को भूमि अग्रहार दिए और इससे इन मंदिरों में प्रतिदिन पूजा व भक्तों हेतु सुविधा प्रबंध सदा के लिए शुरू ह गया। पुजारी , देवदासियां , सेवकों के वयवय के अतिरिक्त मंदिर रखरखाव कार्य हेतु राज्य दत्त भूमि से आय साधन एक सुदृढ़ व्यवस्था बन गयी ।
शंकराचार्य आगमन
शंकराचार्य का जन्म कल्टी , केरल में 788 ईश्वी व मृत्यु केदारनाथ में 820 ईश्वी में माना जाता है।
सनातन या हिन्दू धर्म जागरण हेतु शंकराचार्य ने भारत के प्रदेशों का भ्रमण किया। शंकराचार्य ने भारत के चरों कोनों में चार मठ श्रृंगरी , जग्गनाथ पूरी में गोवर्धन, द्वारिका में शारदा व ज्योतिर्मठ (जोशीमठ ) स्थापित किये। शंकराचार्य जब चंडीघाट हरिद्वार पंहुचे तो उन्हें पता चला कि तिबत के लुटेरों के भय से पुजारियों ने बद्रीनाथ में नारायण मूर्ति कहीं छुपा दी थी। शंकराचार्य ने बद्रीनाथ आकर खंडित मूर्ति की बद्रीनाथ मंदिर में की पुनर्स्थापना की।
इतिहासकार पातीराम अनुसार शंकराचार्य ने ही श्रीनगर में श्री यंत्र में पशु बलि प्रथा बंद करवाई।
बद्रिकाश्रम के निकट व्यास उड़्यार में शंकराचार्य ने शिष्यों के साथ ब्रह्म सूत्र , श्रीमदभगवत गीता , उपनिषदों पर भाष्य लिखे।
भाष्य समाप्त कर शंकराचार्य ने केदारनाथ , उत्तरकाशी , गंगोत्री की यात्राएं कीं।
शंकराचार्य ने केदारनाथ में अपना शरीर छोड़ा। केदारनाथ व गंगोत्री के मध्य एक पर्वत श्रृंखला को शंकराचार्ज डांडा कहते हैं।
बद्रिकाश्रम में दीर्घ कालीन पूजा व्यवस्था
शंकराचार्य आगमन से पहले कतिपय राजनैतिक कारणों (तिब्बती लुटेरों के आक्रमण या बौद्ध संस्कृति प्रसार ) से बद्रिकाश्रम में पूजा पद्धति खंडित हो चुकी थी। गढ़वाल के पूर्ववर्ती कत्यूरी शिलालेखों में भी बद्रिकाश्रम मंदिर हेतु भूमि दान या पूजा व्यवस्था हेतु दान का उल्लेख नहीं है। शंकराचार्य ने अपने शिष्य त्रोटकाचारी को बद्रिकाश्रम पूजा अर्चना व ज्योतिर्मठ की व्यवस्था का भार सौंपा। त्रोटकाकार्य शिष्य परम्परा के 19 आचार्यों ने सन 820 से 1220 तक बद्रिकाश्रम पूजा व्यवस्था व जोशीमठ मठ व्यवस्था संभाली। यह व्यवस्था आज भी दूसरे ढंग से ही सही पर चल रही है।
बद्रीनाथ , जोशीमठ में दक्षिण के पुजारियों द्वारा व्यवस्था ने वास्तव में उत्तराखंड को दक्षिण से ही नहीं जोड़ा अपितु सारे भारत में उत्तराखंड को प्रसिद्धि ही दिलाई। जरा कल्पना कीजिये दक्षिण से कोई पुजारी जब केरल से बद्रीनाथ -केदारनाथ हेतु चलता होगा तो मार्ग में हजारों लाखों लोगों के मध्य इन मंदिरों की चर्चा होती ही होगी और लोगों को मंदिर दर्शन की प्रेरणा मिलती रही होगी।
उत्तराखंड आने से पहले शंकराचार्य भारत में प्रसिद्ध धार्मिक जागरण के सूर्य जैसे प्रतीक बन चुके थे। उनके उत्तराखंड प्रवास व देहावसान ने उत्तराखंड को प्रसिद्धि दिलाई व उत्तराखंड पर्यटन को क्रांतिकारी लाभ पंहुचाया।
कालांतर में शंकराचार्य व दक्षिण के पुजारियों की प्रेरणा से कई दानदाताओं ने उत्तराखंड में कई सुविधाएं जुटायीं।
पर्यटकों को पर्यटक स्थल में एक ठोस व्यवस्था की भारी आवश्यकता पड़ती है और बद्रीनाथ , जोशीमठ , केदारनाथ में पूजा व अन्य व्यवस्थाओं ने पर्यटकों को उत्साह ही दिलाया होगा। वास्तव में शंकराचार्य आगमन से संगठित उत्तराखंड पर्यटन प्रबंधन की नींव पड़ी कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं कहा जाएगा।
शंकराचार्य आगमन से आयुर्वेद ज्ञान का विनियम
पांचवीं व छटी सदी आयुर्वेद संहिता संकलन -सम्पादन (चरक, सुश्रुत व बागभट्ट सहिताएं ) काल माना जाता है। सातवीं सदी से लेकर पंद्रहवीं सदी तक संहिता व्याख्या काल माना जाता है। व्याख्या काल में संहिताओं की व्याख्या की गयी जिसमे रसरत्नसम्मुच्य आदि ग्रंथ रचे गए। इसी काल में कई निघंटु (चिकित्सा शब्दकोश ) जैसे अष्टांग निघण्टु , सिद्धरस निघण्टु , धन्वन्तरी निघंटु , कैव्य निघण्टु , राज निघण्टु आदि संकलित हुए।
चूँकि शंकराचार्य आगमन से संस्कृत विद्वानों व दक्षिण के पुजारियों व उनके साथ अन्य विद्वानों , कार्मिकों का उत्तराखंड में आवागमन वृद्धि हुयी तो साथ में आयुर्वेद विज्ञान विनियम भी बढ़ा और उत्तराखंड में वैज्ञानिक आयुर्वेद विज्ञान प्रसारण को ठोस धरातल मिला।
निघण्टुों में कई ऐसी वनस्पति का विवरण मिलना जो केवल मध्य हिमालय में होती थीं का अर्थ है कि आयुर्विज्ञान व वनस्पति शास्त्र विद्वानों के मध्य ज्ञान विनियम होने की एक व्यवस्था हो चुकी थी और शंकराचार्य आगमन से ज्ञान विनियम में आताशीस वृद्धि हुयी।
इन विद्वानों के आवागमन से जोशीमठ आदि स्थानों में संस्कृत पठन पाठन को संगठित रूप से बल मिला जो आयुर्वेद का औपचारिक शिक्षा दिलाने में सफल सिद्ध हुआ। बाद में यह आयुर्वेद शिक्षा कर्मकांडी ब्रह्मणों के माध्यम से सारे गढ़वाल में प्रसारित हई। बाद में गढ़वाल पंवार राजवंश के साथ अन्य संस्कृत विद्वानों के आने व बाद में अन्य विद्वानों के आने से भी आयुर्वेद प्रसारण को बल मिला। देवप्रयाग में पंडों का आगमन शंकराचार्य आगमन के कारण ही हुआ। देव प्रयाग के पंडो का आयुर्वेद शिक्षा प्रसारण में बड़ा योगदान है। पंडों व बद्रीनाथ आदि मंदिरों के स्थानीय धर्माधिकारियों का जजमानी हेतु देस भ्रमण से भी कई नई औषधि उत्तराखंड को मिली होंगी व उत्तराखंड की कई विशेष जड़ी बूटियों का ज्ञान भारत के अन्य विद्वानों को मिला होगा।
यदि
सदा नंद घिल्डियाल ने 1898 में रसरंजन ' आयुर्वेद पुस्तक रची तो उसके पीछे सैकड़ों साल की आयुर्वेद शिक्षा परम्परा का ही हाथ है जिसे शंकराचार्य आगमन ने प्रोत्साहित किया था।
(शंकराचार्य कार्य -बलदेव उपाध्याय की पुस्तक - श्रीशंकराचार्य आधारित )
Copyright @ Bhishma Kukreti 9 /3 //2018
Tourism and Hospitality Marketing Management History for Garhwal, Kumaon and Hardwar series to be continued ...
उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य
1 -भीष्म कुकरेती, 2006 -2007 , उत्तरांचल में पर्यटन विपणन
2 - भीष्म कुकरेती , 2013 उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन , इंटरनेट श्रृंखला जारी
3 - शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास -part -3 पृष्ठ 479 -482
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