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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Tuesday, March 19, 2013

उत्तराखंड में इकोटूरिज्म


डा .बलबीर सिंह रावत 


एको टूरिज्म पर्यटन की वोह शाखा है पर्यटकों को किसी ऐसे स्थानों से परिचय कराता है जहां का सकल बनस्पति, प्राणी , जीवाणु, जल, वायु , मिट्टी जगत बिकुल प्राकृतिक अवस्था में, एक दुसरे के पूरक के रूप में, अब भी विद्यमान हो और जहां मनुष्य और उसका रहन सहन, जीवन यापन के तौर तरीके , संस्कृति  प्रकृति से मेल खाती हुई,बननाते हुए विद्यमान हो. इक्कीसवीं सदी में ऐसे स्थान बहुत कम रह गए  हैं  और इसीलिये उनका महत्व और भी बढ़ गया है. ऐसे लोगों की संख्या भी बहुत है जो प्रकृति को उसके मूल रूप में देखना चाहते हैं। ऐसे ही जिज्ञासु लोगों के लिए इको टूरिज्म की व्यवस्था  हर उस देश में की जाती है जिनके यहाँ कहीं न कही ऐसे प्राकृतिक स्थान अब भी मिलते हैं। इन स्थानों के मूल रूप को सुरक्षित रखने और संवारने के लिए  यथिचित नियम, कायदे भी बनाए गए हैं और ऐसे स्थान मनुष्य के हस्तक्षेप से सुरक्षित रखने के लिए प्राय: हर ऐसे स्थान को राष्ट्रीय उद्द्यान ( नेशनल पार्क ) के नियमो के अनुसार चिन्हित कर दिया गया है. 

उत्तराखंड ऐसा पर्वतीय क्षेत्र है जहां तराई और नदी घाटियों में उप भूमध्यीय जलवायु और शिखरों में तथा धुर उत्तर में टेम्पेरेट जलवायु मिलती है तो यहाँ हर प्रकार की बनस्पति, पशु पक्षी, और जलवायु  कुछ ही किलोमीटरों के दायरे में मिल जाते है. जहां तराई के नेशनल पार्कों, राजाजी और कोर्बेट , में हाथी, बाघ, हिरन , बन्दर, लंगूर और नाना प्रकार के पक्षी मिलते हैं, साल, शीशम, खैर के घने जंगल हैं, वही उत्तर में ठंडी जलवायु के जानवर, जैसे तेंदुआ, हिरन, घ्वीड़ ,काकड़ (बार्किंग डिएर), सुअर, बन्दर, लंगूर, लोमड़ी , खरगोश, जंगली, बिल्ली, सेही , पक्षियों में  नाना प्रकार के रंगीन और मधुर संगीत गाने वाले पक्शियों के झुन्ड। उत्तराखंड का प्रतीक मोनाल पक्षी, हिमालय के ऊंचे पर्वतं में ही मिलता है, जिसकी सुन्दरता मोर से कम नहीं है. 

वनस्पतियों से उत्तराखंड इतना हरा भरा है की हर पौधे का नाम तो किसी बनस्पति शाश्त्र की पुस्तक से ही जाना जा सकता है. बसंत ऋतु की आहट देने वाली, सबसे पाहिले खिलने वाली प्युन्ली, जाड़ों के पाले से मुझाई धरती को, फरवरी अंत से ही पीले आवरण में ढांकना शुरू कर देती है, बच्चे खुशी खुशी फूल्देइ का त्योहार मनाते हैं, घर घर प्युन्ली के फूल पहुंचाते है.   और उसके पीछे पीछे आडू,,चेरी, खुमानी, प्लम (आलूबुखारा),सेव के बगीचों में फूल आने शुरू होते है जंगलों में भी मेलू,(सेव का मूल बृक्ष जो केवल उत्तराखंड में ही पाया जाता है),  किन्गोड़े और हिन्सालू के पीले और गुलाबी फूलों की छटा  देखने लायक होती है. और इस रंगीन प्रकृति में  दूर से आती चरवाहों के गीतों की मधुर धुन तो मन को इतना मंत्रमुग्ध कर देती है, की नर्म ताजी घास में लेट कर देखने सुन ने का आनंद लेने के अलावा और कुछ भाता ही नहीं है.  

जैसे हे यह फलदार पेड़ों के फूल समाप्ति पर आते हैं, वैसे ही बनो में बुरांस के लाल फूल ऐसे खिल उठते हैं जैसे की धरती लाल साडी पहिन कर पक्षिओं को आकर्षित करते हुए मधुमखियों को प्रेरित कर रही हो की आओ , मेरे शहद से अपने छत्ते भरो, अपने बच्चे पालो , और बदले में मेरे पराग से मेरी बंश बृद्धि में भागीदारी करो. प्रकृति का यह संतुलन, की जो मेरा भला करने आयेगा उसे भी कुछ मिलेगा ही मुझ से. और इसी देने - लेने के सम्बन्ध से वह भोज्य श्रृंखला बनी है जिससे इस धरती का एकोलोजिक्ल सिस्टम स्वचालित रहता है. कितना सुकून देता है यह सब अपनी आँखों के सामने घटित होता हुआ देखने से. और फूलों की घटी तो दुनिया में अपनी सानी नहीं रखती . न ही ब्रह्म कमल कही और मिलता है. और भोज पत्र के बृक्ष?  गौमुख और अन्य आकर्षक ग्लेसियर भी यही हैं अपनी पूरी छटा के साथ. 

उत्तराखंड के सुदूर उत्तर में , हिमाच्छादित पर्वतों की गोद में प्रकृति अब भी अपने अनछुए रूप में देखने को मिलती है. गंगोत्री यमनोत्री एको जोन, नंदा देवी हैबिटाट,पिंडर क्षेत्र के बुग्याल,कौसानी से उत्तर की पर्वत शृंख्लायें, मुनस्यारी से उत्तर के बन , यानी गंगोत्री से लेकर नेपाल की सीमा तक, कहीं भी जाइये , आपको प्रकृति अपने पूरे बैभव  में दिखेगी जहां हर प्रकार का सूक्ष्म से ले कर बड़े घासाहारी पशु, तेंदुए, लोमड़िया,हिमालयी लेपर्ड और गीत गाते रंग विरंगे पक्षी आपका स्वागत करेंगे।  निडर हो कर. किसी भी नदी में उतर जाइये, मछलियां आपके पैर चूमने तुरंत, आजाएंगी, बेखोफ़. यही वोह क्षेत्र है जहाँ आप पशुओं से मित्रता कर सकतें हैं  अगर आपकी शारीरिक भाषा से मित्रता का संदेश जाता है तो. पहिचाना चाहेंगे अपनी यह शक्ति को कि कैसे आप पशुपक्षियों के बीच रह कर ईश्वर को अपने आस पास होने का परमानंद स्वयम को दे सकते है. तो आइये उताराखंड की लम्बी, चौड़ी, गहरी और अपने मूल स्वरूप्प में विद्यमान प्रकृति के इस संतलन को संचालित करते रहने की प्रकिया को देखने , समझने और उसका अलोकिक आनंद लेने . सब से उत्तम समय है अप्रैल से अक्टूबर तक, हर ऋतु का अपना अलग ही आकर्षण है. अपनी पसंद की ऋतु में आइये. प्रकृति आपके स्वागत में वहाँ विद्यमान है.

अगर आपको प्रकृति के इस मूल स्वरुप के दर्शन करने अहिं तो आपको इसी के अनुरूप अपने सोने खाने और प्रयोग के बाद  बची सामग्री को वापस बाहर लाने के सारे प्रबंध करके आना भी आवश्यक है. छोटे छोटे दलों में आयगे तो अकेलेपन का भय नहीं सताएगा . आने से पहिले चुने गए स्थानों के बारे में अध्यन करके, और राज्य के पर्यटन निगमों से सलाह ले कर ही आइये . एक बार आये तो बार बार आने को मन करेगा आपका 

Copyright@ डा .बलबीर सिंह रावत Dehradun 2013 

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