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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Monday, March 11, 2013

श्री नरेंद्र सिंह नेगी से उत्तराखंडी फिल्मों के बारे में बातचीत


हिंदी की सड़क छाप फिल्मों की नकल ने गढ़वाली -कुमाउनी फिल्मों को लहूलुहान किया -नरेंद्र सिंह नेगी
                        प्रस्तुति -भीष्म कुकरेती

[गढ़वाली -कुमाउनी फिल्म-वीसीडी ऐलबम उद्यम के बारे में मै कई दिनों से गढ़वाली -कुमाउनी फिल्मकारों से लगातार बात कर रहा हूँ। इसी क्रम में आज हिमालय क्षेत्र के महान गायक, गीतकार, फिल्म-ऐलबम संगीत निर्देशक श्री नरेंद्र सिंह जी से फोन पर गढ़वाली -कुमाउनी उद्यम पर लम्बी बातचीत हुयी। बातचीत गढ़वाली में ही हुयी ]

भीष्म कुकरेती - नेगी जी नमस्कार आज पौड़ी में या कहीं और ?
नरेंद्र सिंह नेगी - नमस्कार जी कुकरेती जी। आज मैं अभी एक समारोह हेतु श्रीनगर आया हूँ। कहिये।
भीष्म कुकरेती - नेगी जी ! गढ़वाली -कुमाउनी फिल्म उद्योग पर बातचीत करनी थी। समय हो तो ..
नरेंद्र सिंह नेगी - हाँ कहिये ! वैसे गढ़वाली फिल्मे कुमांउनी फिल्मों के मुकाबले अधिक बनी हैं। जब कि कुमाऊं में अंतर्राष्ट्रीय स्तर के राजनेता, वैज्ञानिक, सैनिक अधिकारी, ,संगीतकार चित्रकार , साहित्यकार, कलाकार हुए हैं किन्तु यह एक बिडम्बना ही है कि कुमाउनी फिल्मे ना तो उस स्तर की बनी और ना ही संख्या की दृष्टि से समुचित फ़िल्में बनीं।

भीष्म कुकरेती - गढ़वाली व कुमांउनी फिल्मो का स्तर कैसा रहा है?
नरेंद्र सिंह नेगी -देखा जाय तो अमूनन स्तर स्तरहीन ही रहा है। हिंदी के कबाडनुमा फिल्मों की नकल रही है गढ़वाली व कुमांउनी फ़िल्में। असल में उत्तराखंडी फिल्म उद्योग में सांस्कृतिक और सामजिक स्तर के अनुभवी लोग आये ही नही। जब आप क्षेत्रीय फिल्म या ऐलबम बनाते हैं तो पहली मांग होती है कि वह क्षेत्रीय सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक वस्तुस्थिति को दिखाये। किन्तु शुरू से ही गढ़वाली -कुमांउनी फ़िल्में या तो भावनात्मक दबाब या रचनाकारों का हिंदी फिल्म उद्योग में आने के लिए बनायी गयीं और यही कारण है कि कुमांउनी-गढ़वाली फिल्मों ने वैचारिक स्तर व कथ्यात्मक स्तर पर कोई विशेष क्या कोई छाप छोड़ी ही नही। असल में हिंदी की सडक छाप फिल्मों की भोंडी नकल ने कुमांउनी -गढ़वाली फिल्मो को लहूलुहान किया।
भीष्म कुकरेती - आप क्यों हिंदी फिल्मो पर जोर दे रहे हैं?

नरेंद्र सिंह नेगी- कुकरेती जी ! हिंदी फिल्मों में कमोवेश हिंदी भाषा भारतीय है पर कोई भी हिंदी फिल्म हिन्दुस्तान की संस्कृति और समाज का प्रतिनिधित्व नही करती और जब हम डी ग्रेड हिंदी फिल्मों की भोंडी नकल करेंगे तो हमें कबाड़ ही मिलेगा कि नही?
भीष्म कुकरेती -हाँ यह बात तो सत्य है कि अधिसंख्य हिंदी फ़िल्में पलायनवादी याने एक अलग किस्म के समाज को दिखलाती आती रही हैं।
नरेंद्र सिंह नेगी- और जब गढवाली -कुमांउनी रचनाकार एक काल्पनिक समाज की प्रतिनिधि हिंदी फिल्मो की उल -जलूल नकल पर फिल्म बनाएगा तो विचारों के स्तर पर बेकार ही फ़िल्में बनेंगी।आप ही ने एक उदाहरण दिया था की 'कभी सुख कभी दुःख ' फिल्म में गढ़वाली गावों में डाकू घोड़े में चढ़कर डाका डाल रहे है.. अभी एक गढ़वाली डीवीडी फिल्म रिलीज हुयी जिसमे गढवाल के गाँव में खलनायक की टीम दुकानदारों से हफ्ता वसूली कर रही है। अब एक बात बताइये ! गढ़वाल या कुमाऊं के गावों में आज भी शाहूकारी व दुकानदारी के अति विशिष्ठ सामजिक नियम हैं और दुकानदार समाज का उसी तरह का सदस्य है जिस तरह एक लोहार या पंडित। और यदि कोई दुकानदारों से हफ्तावसूली करे तो क्या गाँव वाले हिंदी फिल्मों की तरह चुप बैठ सकते हैं?मैदानी और पहाड़ों में सामाजिक व मानसिक दोहन (एक्सप्लवाइटेसन) बिलकुल अलग अलग किस्म के हैं।फिर इस तरह की बेहूदगी गढ़वाली -कुमांउनी फिल्मों में दिखाई जायेगी तो ऐसी फ़िल्में ना तो वैचारिक दृष्टि से ना ही उद्योग की दृष्टि से दर्शकों को लुभा पाएगी। प्यार के मामले में भी सम्वेदनशीलता की जगह फूहड़ता ... इश्क को फिल्मों में रूमानियत की जगह अजीब और अनदेखा नाटकीयता से फिल्माया जाता है।
भीष्म कुकरेती - कई लोगों ने मुझसे बात की कि यदि गढवाली -कुमांउनी फिल्मों को पटरी पर लाना है तो उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर की वैचारिक फ़िल्में बनानी पड़ेंगी।

नरेंद्र सिंह नेगी- जी हाँ मै भी इसी विचार का समर्थक हूँ कि जब तलक कुमांउनी-गढवाली फिल्मों में सत्यजीत रे सरीखे समाज और संस्कृति से जुड़े संवेदनशील रचनाकार नहीं आयेंगे तब तक इसी तरह की हिंदी नुमा क्षेत्रीय भाषाओं में बनेंगी। सत्यजीत रे ने बंगाली फिल्मों को बंगाली बाणी दी। मै एक उदाहरण देना चाहूँगा कि किस तरह हमारे क्षेत्रीय फिल्म रचनाकार हिंदी फिल्मों के मानसिक गुलाम हैं। मैंने एक गढवाली फिल्म में म्यूजिक व बैक ग्राउंड म्यूजिक दिया। लड़ाई के एक दृश्य में मैंने डौंर-थाली से डौंड्या नर्सिंग नृत्य संगीत शैली में बैक ग्राउंड म्यूजिक दिया। सारे दिन भर मुंबई के एक स्टूडियो में मैंने यह म्यूजिक रिकॉर्ड किया। पर जब मैंने फिल्म देखी तो वह बैक ग्राउंड म्यूजिक गायब था व हिंदी फिल्मों के स्टौक म्यूजिक का ढिसूं -ढिसूं म्यूजिक डाला गया था।

भीष्म कुकरेती - आखिर क्या कारण है कि गढ़वाली-कुमांउनी फ़िल्मी रचनाकार हिंदी फिल्मों के नकल कर रहे हैं।
नरेंद्र सिंह नेगी- प्रथम कारण, तो गढ़वालियों और कुमांउनी फिल्म रचनाकारों व समाज दोनों को काल्पनिक हिंदी फिल्मों का वातावरण मिलता है तो हर क्षेत्रीय फिल्म रचनाकार इस हिंदी फिल्म के तिलस्म को तोड़ पाने में असमर्थ ही है।
भीष्म कुकरेती -इस समस्या का निदान ?

नरेंद्र सिंह नेगी- जब तक कुमांउनी -गढ़वाली फिल्म उद्यम में संस्कृति व समाज को पहचानने वाले सम्वेदनशील कथाकार, पटकथाकार व फिल्म शिल्पी एक साथ नही प्रवेश करेंगे तो विचारों की दृष्टि से गढ़वाली-कुमांउनी फिल्म व ऐल्बम इसी तरह की काल्पनिक ही होंगी। फिल्म कई कलाओं व तकनीक का अनोखा संगम है अत: सम्वेदनशील रचनाकारों की टीम ही विचारों की दृष्टि से इस खालीपन को दूर कर सकते हैं।

भीष्म कुकरेती- नेगी जी आजकल गढ़वाली -कुमाउनी फिल्म-ऐलबम उद्योग का क्या हाल है?
नरेंद्र सिंह नेगी -कुकरेती जी बहुत ही बुरा हाल है। नई टेक्नौलौजी याने इंटरनेट और डीवीडी से पेन ड्राइव पर डाउन लोडिंग से गढ़वाली -कुमाउनी फिल्म-ऐलबम उद्योग ठप्प ही पड़ गया है।
भीष्म कुकरेती- अच्छा इतना बुरा हाल है?

नरेंद्र सिंह नेगी - अजी ! इतना बुरा हाल है कि कई म्यूजिक कम्पनियों ने म्यूजिक उद्योग बंद कर तम्बाकू -गुटका पौच बेचने का धंधा शुरू कर दिया है
भीष्म कुकरेती - क्या कह रहे हैं आप ?
नरेंद्र सिंह नेगी -हाँ जब क्षेत्रीय म्यूजिक से मुनाफ़ा ही नही होगा तो म्यूजिक कम्पनियां दूसरा धंधा शुरू करेगे ही कि नहीं?
भीष्म कुकरेती -पर कॉपी राईट के नियम तो हैं ?
नरेंद्र सिंह नेगी - भीषम जी ! नियम तो हैं पर न्यायिक प्रक्रिया इतनी जटिल और लम्बी है कि कोई भी उद्योगपति न्यायालयों के झंझटों में नही पड़ना चाहता।

भीष्म कुकरेती - फिर कुछ ना कुछ समाधान तो ढूंढना ही होगा।
नरेंद्र सिंह नेगी - अभी तो फिल्म कर्मियों को नई तकनीक द्वारा असम्वैधानिक तरीकों से नकल का कोई तोड़ नही मिल रहा है
भीष्म कुकरेती - आपका मतलब है अब म्यूजिक कम्पनियां गढ़वाली -कुमाउनी फिल्म -ऐलबम निर्माण कर ही नहीं पाएंगी?
नरेंद्र सिंह नेगी - नही टी सीरीज जैसी बड़ी कम्पनियों के लिए तो अभी भी यह बजार मुनाफ़ा दे सकता है क्योंकि उन्हें वितरण के लिए केवल गढ़वाली -कुमाउनी फिल्म -ऐलबमों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। फिर कुछ छोटी याने आज आयि कल गयी कम्पनियां मर मर कर इस उद्योग को चलाती रहेंगी।

भीष्म कुकरेती -मतलब ब्यापार की दृष्टि से आज का गढ़वाली -कुमाउनी फिल्म -ऐलबम निर्माण घाटे का सौदा है।
नरेंद्र सिंह नेगी - आज की स्थिति से तो यही लगता है।
भीष्म कुकरेती - नेगी जी ! मै सोच रहा था कि नई तकनीक से क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मो को फायदा होगा किन्तु ...
नरेंद्र सिंह नेगी -देखिये इंटरनेट और डाउन लोडिंग तकनीक से क्षेत्रीय भाषाई म्यूजिक या फ़िल्में दूर दूर भारत के शहरों में व विदेशों में बसे प्रवासियों को सुलभ हो गईं । यह एक बहुत फायदा भाषा को हुआ किन्तु इससे फिल्म और म्यूजिक ऐलबम निर्माण तो ठप्प हो गया कि नहीं? जब उत्पादन का निर्माण ही नही होगा तो फिर भविष्य में बिखरे उत्तराखंडियों को कहाँ से फिल्म दर्शन व संगीत उपलब्ध होगा?
भीष्म कुकरेती - मतलब सामजिक जुम्मेवारी यह है कि उत्तराखंडी लोग स्वयं ही अनुशासित हो कापीराईट का उल्लंघन ना करें और नकली डीवीडी ना खरीदें

नरेंद्र सिंह नेगी - आदर्शात्मक हिसाब से सही है किन्तु ...
भीष्म कुकरेती - इसका अर्थ हुआ कि राज्य सरकार को कुछ करना चाहिए?
नरेंद्र सिंह नेगी -किस सरकार की बात कर रहे हैं आप ? जिस राज्य के एक मुख्यमंत्री संस्कृत को राज भाषा घोषित करें और दूसरे मुख्यमंत्री उर्दू को राजभाषा घोषित करें पर दोनों राष्ट्रीय दलों के मुख्यमंत्रियों को लोक भाषाओं की कतई चिंता ना हो उस राज्य में आप क्षेत्रीय भाषाई फिल्म -ऐल्बम उद्योग की सरकारी सहयोग-प्रोत्साहन की कैसे आशा कर सकते हैं ? हाँ कोई फिल्म अकादमी बने तो ...
भीष्म कुकरेती- तो वहां समाज सरकार पर दबाब क्यों नही बनाता।

नरेंद्र सिंह नेगी -आप सरीखे सम्वेदनशील लोग इधर उधर बिखरे हैं। मै या अन्य रचनाकार सभाओं में फिल्म उद्योग को सरकारी संरक्षण , प्रोत्साहन की बात अवश्य करते हैं किन्तु हमारी राजनैतिक जमात सोयी नजर आती है।
भीष्म कुकरेती- पर कुछ ना कुछ उपाय तो अवश्य करने होंगे

नरेंद्र सिंह नेगी -हाँ ! फिल्म रचनाकार , कलाकार, समाज व सरकार सभी इस दिशा में एकी सोच से काम करें तो यह उद्योग बच सकता है।
भीष्म कुकरेती -जी धन्यवाद। मुझसे बात करने के लिए मै आपका आभारी हूँ

Copyright@ Bhishma Kukreti 11/3/2013

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