बावरा ::: भीष्म कुकरेती
अच्काल गढ़वळि अर कुमाउँनी भाषा साहित्य मा साहित्यकारुं मध्य एक रिवाज , एक प्रचलन , एक फैसन ऐ ग्यायि बल नगरीय , महानगरीय अर कस्बाई रहन- सहन , उठण -बैठण अर नौकरी -चाकरी तैं थींचो , पीटो अर चट्टेलिक मा -बैणि गाळि द्यावो अर बड़ा साहित्यकार की श्रेणी मा अपण नाम लिखै ल्यावो !
वर्तमान मा अधिसंख्य कुमया -गढ़वळि कवितौं , कथौं , इतर लेखन इख तक कि फेसबुक माध्यम मा बि शहरी संस्कृति की सामत आयीं च जन बुल्यां या मेट्रो ट्रडिशन, सिटी कल्चर या अर्बन फैसिलिटी -सुगमता ही गढ़वाळी -कुमाउँनी सभ्यता , लोकसंस्कृति अर पहाड़ -नदियों की बड़ी बैरी, दुसमन अर परेशानी की जड़ होवाँ धौं।
साहित्यकार या फेसबुक का पोस्टकार सुबेर -सुबेर बर्फीली चोटियों की प्रशंसा युक्त कविता , लेख या फोटो फेसबुक मा पोस्ट करदन या पत्र -पत्रिकाओं मा छपवांदन अर अपर महानगरीय या नगरीय फ़्लैट मा हीटर , गीजर चलांदन या नई नई कंबळि ढिकाण लीन्दन।
आज का साहित्यकारुं मध्य साहित्य मा नागरीय जिंदगी तैं श्राप ग्रसित बताणै ; महानगरीय जिंदगी तैं फिटकार दीणै, , कस्बौ रहन -सहन तैं कीड़ा -मकौड़ों दगड़ धरणो प्रतियोगिता हुणि च , कम्पीटीसन मच्युं च अर जबरदस्त संघर्ष चलणु च। अर यांक दगड़ दगड़ महानगर मा कै साहित्यकारक मा कोठी बणी छन , कु फलण नगर मा कखम कोठी बणाणु च , कैक -कैंकि बंगलो बान जमीन खरीदीं च अर कु कु शहरूं मा जमीन क्रय करणो क्रिया मा व्यस्त च , लिप्त च की चर्चा व्यक्तिगत तौर से साहित्यकारों मध्य खूब जोरों से चलणि रौंद।
आज जब अंतर्राष्ट्रीय थौळ मा , राष्ट्रीय परिवेश मा अर राज्य सचिवालयों मा स्मार्ट मेट्रो सिटीज , स्मार्ट सिटीज अर अत्याधुनिक सुविधाजनक उपनगर स्थापित करणो नीति , योजना , बजट बणना छन तो अवश्य ही गाँवों पर क्वी बि अंतराष्ट्रीय संस्था , सरकार या समाज कथगा बि ध्यान द्यालो तो भि गांवुं मा वा सुविधा नि जुड़ सकदन जु महानगर , नगर अर क़स्बों तैं उपलब्ध होली। याने सुविधाभोग एक वास्तविकता च , एक असलियत च अर महत्वपूर्ण आवश्यकता बि च तो समाज बि मेट्रो , सिटी अर टाउनों तरफ भागल ही।
इन माँ यदि साहित्यकार अपण पाठकों तैं पहाड़ मा बसणो प्रेरणायुक्त साहित्य , पहाड़ी संस्कृति पर चिपकणो प्रेरणायुक्त साहित्य , वापस गाँव जावो कु उत्साहवर्धक साहित्य दयाला तो शर्तिया साहित्यकार अपण पाठकों पर अत्याचार कारल , अपण बंचनेरुं का साथ अन्याय कारल अर अपण समाज तैं डेढ़ सौ साल पैथर धकेलणो अर्थहीन कोशिश कारल।
यदि गढ़वाली -कुमाँऊनी साहित्यकारुं तैं अपण पाठकों से जुड़न , अपण रीडरशिप बढ़ाण अर भाषा विकास करण तो साहित्यकारों तैं अपण साहित्य मा महानगर , नगर अर कस्बों की बात करण पोड़ल , नगरीय साहित्य की रचना करण पोड़ल अर नगरीय सुविधाओं की सकारात्मक छवि बणाण पोड़ल।
अजकाल साहित्य माँ ग्रामीण परिवेश माँ संत समाज , सहकारिता युक्त संस्कृति , संस्कारयुक्त व्यक्तियों बड़ी बड़ाई हूंदी अर महानगरुं , नगरुँ , कस्बों मा पळदा समाज , अपसंस्कृति अर असहयोग की आलोचना , घोर काट, कड़ी निंदा हूंद इख तलक कि महानगरीय परिवेश की बेज्जती करे जांद, महनगरीय जिंदगी तैं साहित्य मा नीचा दिखाए जांद । जब कि यी महानगरीय कमियां गावुं मा हजारों सालों से विद्यमान छे। क्या हम महानगरीय नागरिक बगैर सहकार , बगैर संस्कार , बिना सही संस्कृति का एक दिन भि ज़िंदा रै सकदां ? नही यु सब सकारात्मक गुण , चरित्र अर मानवीयता महानगरों मा बि उनि च जु गाँवों मा छे किलकि यी गुण , चरित्र तो मनुष्य का मानवीय गुण छन , मानवीय आवश्यकता छन तो मनुष्य कखि बि रालो यी मानुषिक चरित्र मनुष्य मा ऐ जाल हाँ यूंक पारम्परिक अभिव्यक्ति अर तरीका बदल जाल।
आज गढ़वळि -कुम्मयों तैं महानगरीय संस्कृति मा सर्वोच्च स्थान पाणो आवश्यकता च। याने कि समाज, साहित्यकार अर विचारकों तैं पहाड़ी समाज तैं महानगरुं मा उच्चता प्राप्त करणो प्रेरणा दीण चयेंद नाकि महानगर मा रैक डेढ़ सौ साल पैथर जैक अप्रसांगिक हूणै प्रेरणा दीण चयेंद।
गढ़वळि -कुम्मय्या साहित्य मा महानगर की सकारात्मक छवि आज की मांग च , आज की आवश्यकता च अर भविष्य की सोच च। भविष्य की सोच से ही साहित्यकार अपण पाठकों से तादत्म्य स्थापित करी सकद अर गढ़वळि -कुमाउँनी भाषा बचै सकदन।
आज गढ़वळि -कुम्मय्या साहित्यकारों तैं बाड़ी -फाणु -भट्वणि ; अंगड़ु- पगड़ु-गुलबंद का दगड्या दगड़ महानगर की सभ्यता , नगरों की सुविधा अर कस्बों मा सकारत्मक समाज की भी बात करण आवश्यक च।
Copyright@ Bhishma Kukreti 29 /9/ 2014
*लेख में घटनाएँ , स्थान व नाम काल्पनिक हैं । लेख की कथाएँ , चरित्र व्यंग्य रचने हेतु सर्वथा काल्पनिक है
*लेख में घटनाएँ , स्थान व नाम काल्पनिक हैं । लेख की कथाएँ , चरित्र व्यंग्य रचने हेतु सर्वथा काल्पनिक है
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