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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Tuesday, September 9, 2014

इस कविता के कम से कम तीन अर्थ निकलते हैं

चुनै र् वटि 
-महाकवि : कन्हैयालाल डंडरियाल 

मि छौं चुनै र् वटि
म्यार द्वी हैड़ 
इन तपैदिन तक़दीरन कि 
मि कड़कड़ि ह्वे ग्यों 
उल्टां सुल्टाँ यकसानि रै ग्यों। 
मर्चुं कि फ़ोळि अर लुणै गारि 
जीजा अर दीदी 
लगद जन मैत्या  पौणो सि 
कबि कब्यार भ्यलि डैळि 
मि अर तु 
हौरि क्वी ना 
किलैकि तु पिघळि जान्दि 
मी देखी मेरी खैरी सूणि 
तू त छे मेरि 
त्वे दगड़ मि कनि भलि लगदु य नौणी गुंदकी। 
य भौत मताळ ग्यूं कि फुलकी 
यूंकि खट्याण बिगर बातै तिड़याँण 
यी त छन म्यरा द्यूर अर द्यूराण 
xx 
  हाँ झुंगरु चैल सकद 
उन त वैकि अर मेरी 
हार सार अलग 
चौ चलण अलग 
वेक अर म्यार क्य दगुड़ 
उत सिरफ़ बुन बच्याणौ 
खैरि खुदि की छ्वीं लगाणी
यीं दिल्लीम मीतैं
आया गायों कि नजर से बचौंदन 
इनै उनै लुकांदन 
गैसम हीटरम पकौन्दन 
यूँ हलुळ जैगी जैगी ह्वे ग्यों 
भैर काळी अर भितर आली काची 
मितैं मुंगर्युं खुद लगद 
मूळै भटुळि लगदिन 
दाळ , गैथ भट याद अंदिन 
xx 
सचे तुम घौर जैल्या त 
मरसुम मेरी स्यवा   बोलि दियां 
हळया गुयरुं घसेर्युं लखड़ेल्यूं 
 कि भुकी पे दियां 
कन रैंदु छा मि कबि 
उंक हतु हतुम नचणु। 
xx 
 ह्यरां यख त द्यूराण 
इन बणी रैंद जन फकर्याण 
डाँड्यूं मs कन मिल्दि छै मी दगड़ि छप्प 
हम ह्वे जांद छा ढबड़ि रोट 
  यख त चौकम चुल्लम मेजुम प्लेटुम 
बिराजणा छन 
म्यारा द्यूर अर द्यूराण। 
सचे बतौं मि तैं यीं दिल्ली से 
पौड़ी गे बिखळाण  
Copyright@ H.K Dandriyal, Delhi

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