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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Thursday, June 6, 2013

पर्वतीय क्षेत्र का सर्वांगीण विकास

डा. बलबीर सिंह रावत   (देहरादून )

                        आज के काल में उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों की मूल समस्या है: सक्षम युवा श्रम शक्ति का अतिशय पलायन।  इस क्षेत्र के विकास के लिए अभूतपूर्व आर्थिक संसाधन उपलब्ध कराये जा रहे हैं, और सभी बुनियादी ढांचों को यथासंभव सशक्त भी  किया जा रहा है। लेकिन विकास का मॉडल क्षेत्र विशिष्ट  न हो कर, वही पुराना , मैदानी इलाकों के विकास वाला है,कि मूलभूत सुविधाएं दे कर उत्पादक कार्यों के लिए समय बचाओ, इंफ्रास्ट्रक्चर सुदृढ़ कर दो, लोग अपने आप अपना रास्ता ढूंढ लेंगे।

पर्वतीय क्षेत्र में केवल कठिन श्रम  से  बचाने वाली  मूलभूत सुविधाओन के अलावा और कुछ न दे पाने से कर लोगों को वहाँ नहीं रोका जा सकता है. जितना अधिक मोटर सड़कोँ  का जाल बिछा है, रोजगार के अभाव में , उतना ही अधिक गति से पलायन बढ़ा है। बढ़ती शिक्षा ने शारीरिक श्रम करने की इच्छा को समाप्त कर दिया है। समुचित मशीनीकरण के अभाव में , कृषि का ह्राष हुआ है, खाद्यान्य और सभी आवश्यक वस्तुओं का आयात बढ़ा है। मनीआरडरों से, मनरेगा से और अन्य स्रोतों से जितना पैसा आता है , वह सारा का सारा जीवन यापन के संसाधनों के आयात के लिए वापस बाहर चला जाता है। स्थानीय उत्पादन घटता जा रहा है।  यह समस्या देश की आजादी के समय से और अब अपना राज्य बनने के वावजूद भी बढती जा रही है।

कागजों में बड़ी लुभावनी नीतियाँ बनी हुई हैं , बन रही हैं , प्रयाप्त पैसा भी आरहा है , धरातल में क्या हो रहा है? हर साल एक लाख से अधिक नए  बेरोजगार युवा जुड़ रहें हैं आज के रोजगार तलाशने वाले 6 लाख बेरोजगारों के समूहों में। रोजगार, सालाना 40 - 50 हजार को भी नहीं मिल पा रहा है।
                        इस भीषण समस्या से निपटने के लिए  विकास के ऐसे सारे आयामों को प्रोत्साहित करना नितांत आवश्यक है जिनसे यह युव शकित उत्पादन बृद्धि  के स्वरोजगारी धन्दों में लग सकें।

वर्तमान में दो केंद्र पोषित योजनाएं:  स्किल  डेवलपमेंट  और टेक्नौलौजिकल नर्सरियों की स्थापना की इसी विशेष उद्द्येश्य के लिये लाई गयी हैं। यह सही समय है कि यहाँ, प्रदेश में,  स्वरोजगार और नौकरी के हुनरों  के प्रशिक्षण देने का उर प्रशिक्षितों को काम परलगाने के लिए, पहिले से ही कार्यरत जितनी भी संस्थाएं और विभाग हैं, उन्हें और इन नयी दो योजनाओं को, एक छत्र के नीचे लाकर, सशक्त बनाया जाता, लेकिन ऐसा कुछ  भी होता  दिख रहा है। केवल  ITIs को ही प्रशिक्षण का पूरा भार दिया जारहा है। पर्याप्त साजो सामान और प्रशिक्षकों  के अभाव में, यह संस्था ITI केवल 5 - 6  हजार रुपये प्रतिमाह की नौकरी पाने के गिने चुने परम्परागत हुनरों की अधकचरी दक्षता दे रही  हैं।

क्या कभी यह तय करने का प्रयास हुआ है की पलायन रोक सकने लायक  न्यूनतम पारिवारिक आय प्रतिवर्ष  कितनी होनी चाहिए? क्या कभी किसी ने ऐसा सोचा है कि, पलायन रोकने के लिए अधिक असरदार तरीका स्वरोजगार का है और कि स्वरोजगार के लिए प्रशिक्षण का लक्ष्य एकल व्यक्ति  भी और पूरा परिवार भी, एक साथ, होना चाहिए?  एक ऐसे प्रदेश में  जहां केवल नौकरी से  ही रोजगार पाने की परम्परा रही है, वहाँ स्वरोजगार की पहिली पीढी का प्रशिक्षण उन्ही  स्थान-विशिष्टताओं के अनुरूप ही दे कर  फली भूत होगा, जिनका स्थानीय उत्पादन और आपूर्ति लगातार सुनिश्चित किया जा सकेगा और सारे उत्तराखंड के विकास के लिए, पूरे प्रदेश में स्वरोजगार इकाइयों की उत्पादक कंपनियों का जाल फैला कर और इनके सफल संचालन तथा  उत्पादों की लाभदायक बिक्री के लिए विपणन सस्थाओं का गठन करने की सहूलियत भी आवश्यक समझी जाएगा  ?
                          अगर वास्तव में गंभीरता से पर्वतीय क्षेत्रों को पुनर्वासित करना है तो सारी विकास नीतियों और प्रणालियों को इस उद्द्येश्य की पूर्ती करने के लायक बनाना होगा।

कैसे?  इसके लिए बुद्धिजीवियों से  और  स्थानीय लोगों से सुझाव मांग कर और विषय विशेषज्ञों की कमेटियों से सुझाओं का विश्लेष्ण करा के, संसाधनों और आवश्यकताओं की प्रार्थमिकताओं के अनुरूप, एक मार्ग जीवंत नीति तैयार करके सरकार पर्वतीय विकास को सार्थक बनाने का काम शुरू करे .
-- डा . बलबीर सिंह रावत     
dr.bsrawat28@gmail.com

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