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उत्तराखंडी ई-पत्रिका

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Tuesday, January 1, 2013

प्रणब दा को एक चिठ्ठी


प्रणब दा
आपको सुनाई दे रही होगी
ना मेरी आवाज़ बहुत गौर से
नहीं भी सुनायी दे रही होगी तो-
सुनो गौर से मेरी आवाज़ सुनो
प्रणब दा।

मैं जीना चाहती थी
दूर तक चलना चाहती थी
आसमां में पक्षियों के संग
उड़ना चाहती थी...
खुद के जीवन को एक नई दिशा देना चाहती थी
मैने भी सपने संजोए थे खुद के िए
जिन्हें साकार करना चाहती थी
खेलना चाहती
घर आंगन में अपने
मैं गिनना चाहती थी खुद की सफलताओं को
आसमां में चमकते तारों की टिमटिमाहट में
सफलताओं की इस पोटली को लेकर
लौटना चाहती थी मैं
घर को अपने।
सोना चाहती थी मां की गोद में
पिता को गर्व करते हुए देखना चाहती थी
खुद के लिए
छोटे भाई बहनों को बताना चाहती थी
खुद की उपलब्धियों के मायने...
इसलिए सिर्फ इसलिए तो
आई थी
आपके घर-आंगन में
प्रणव दा...

प्रणब दा मैं बहुत निडर और मजबू थी
खुद के वजूद के लिए
मुझे किसी भय के चेहरे से भी
नहीं था तनिक भी डर
मैं जानती थी मेरे अस्तित्व के लिए
आपके साथ खड़ी है
सर्वश्रेष्ठ शक्तिमान
उपलब्धियों के मायने अच्छी तरह समझने वाली
सोनिया-सुषमा और शीला जैसी मातृशक्तियां
इनकी गोद से मुझे भला कौन दरिंदा उठा सकता है
किसकी क्या हिमाकत
मेरे लिए आपके बनाए चक्रव्यूह 
भेद सके कोई
लेकिन प्रणब दा
मैं इतने सुरक्षित चक्रव्यूह मे रहते हुए
इन महान मातृशक्तियों की गोद मे
सुकून की नींद सोते हुए
अपने जीवन की सीढ़ियां चढ़ते हु-
क्यों आख़िर क्यों
हार गई... लड़खड़ा गई
क्यों मेरा वजूद मिटा दिया
क्यों मुझे निवस्त्र कर फेंक दिया गया
आपके सबसे सुरक्षित चक्रव्यूह  द्वार पर?
और क्या-क्या सवाल करूं आपसे
प्रणव दा...
सोचती हूं...क्या आप देंगे...मेरे सवालों का जबाब मुझे...
आपको जबाब देना होगा
हर हाल में देना होगा
ये मत सोचना मैं हार चुकी
मैं जा चुकी
नहीं...
मैं मरी नहीं हूं...मैं हारी नहीं हूं अभी
प्रणब दा...
मेरा वजूद...मेरे जीने की सहनशीलता
अब और अधिक बढ़ गई है
मेरे कदमों की आहट...अब और तेज होने लगी है
सुनो गौर से सुनो मेरे क़दमों  आहट को
मेरे दर्द को महसूस करो
मेरे शरीर से निकलने वाली
एक-एक ख़ून की बूंद के रंग को ेखो
यह बहुत...गहरा लाल सुर्ख हैं भी भी
मेरे आंखों से टपकते इन आंसूओं को देखो
ये मेरी विदाई के नहीं...गर्व  आंसू हैं...गर्व के...
इन्हें ज़मीन पर मत गिरने देना अब...
किसी भी हाल में नहीं
ये आंसू...आग बन गए हैं अब
प्रणव दा...
इन्हें आग बनने से रोको
इन्हें बिखरने ना दो
इन्हें बर्बाद मत होने दो...
ये मेरी मां के सपने...मेरे पिता का गर्व है
मेरे छोटे-छोटे भाई-बहनों का सम्मान है
और...ये सब मेरे,आपके जीने का जूद भी है
प्रणब दा....
इस वजूद को
इस वजूद के रिश्तों को
खुद को...मुझको...मेरी आत्मा को...मेरे वजूद के लिए खड़ी-
उन तमाम बेटियों के दर्द कोआंसूओं को...
न्याय दे दो...न्याय दे दो...प्रणब दा...

जगमोहन 'आज़ाद'

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