नामी गिरामी " ललित केशवान "
संवत १८६१ ,.....गते .... (१७ auj १९३९ )
पौड़ी जिल्ला , पट्टी इडवाळस्यूं
छटी ग्या कुयेडी पुरणी ,चमक चौछ्व्डी घाम
आ हा पैदा व्हाई सिरालीऽम , गढ़ कवि एक महान
भै बंधो ,गढ़ कवि एक महान
'खिल्दा फूल हंसदा पात' ,रुमझुम बरखणी बरखा आज
खित खित हैसणु डांडीयूँ मा द्याखा , दंतुडी दिखान्द चौमास
बांजी पुंगडी चलदा व्हेंगी , इन्न आई गढ़ स्यारौं मा मौल्यार
भै बंधो ,इन्न आई गढ़ स्यारौं मा मौल्यार
डालियुं मा चखुली बसणी छाई , बस्णु छाई कक्खी कफ्फु हिलांस
मोरणी छाई मातृ भाषा , करण कैल अब म्यारू थवांस
कै से करण आज आश मिल ,छीं दिख्याँ दिन अर तपयाँ घाम
भै बंधो ,छीं दिख्याँ दिन अर तपयाँ घाम
'दीबा व्हेय ग्या दैणी फि'र ,व्हेय ग्या दैणु 'जय बद्री नरैण'
प्रकट व्हेग्या लाल हिमवंत कु , प्रकट व्हेय ग्याई कवि ललित महान
भै बंधो , प्रकट व्हेय ग्याई कवि ललित महान
कलम प्लायी इन्ह उन्ल तब ,सर सर चलैं व्यंग बाण
लस्स लुकाई मुखडी अंध्यरऽल , पैटाई जब 'गढ़ गंगा ज्ञान'
प्रकट कै दयाई भड गंगू रमोला ,प्रकट कै दयाई हरी हिंदवाण ,
भै बंधो , प्रकट कै दयाई 'हरी हिंदवाण' ,
टूट्ट ग्यीं मायाऽक जाल पुरणा सब , तिडकीं पुरणा बिम्ब , प्रतीक
छौंक लगाई ढौऽल पुरैऽक कविता कु तब , छोळिक किस्म किस्मऽक रंग
मच ग्याई जंग असलियात की तब ,जब ध्वळी मर्चण्या व्यंग ,
भै बंधो ,जब ध्वळी मर्चण्या व्यंग
भूख मिटै बरसूँ की मेरी ललित , तिल्ल मिटै सखियुंऽक तीस
खुश व्हेयऽक सरस्वती तब्ब , देंदी यू शुभ आशीष
मातृ भाषा की सेवा मा हे गढ़ गौरव ! अजर अमर करयाँ त्वै थैं जगदीश
मातृ भाषा की सेवा मा हे गढ़ गौरव ! अजर अमर करयाँ त्वै थैं जगदीश
मातृ भाषा की सेवा मा हे गढ़ गौरव ! अजर अमर करयाँ त्वै थैं जगदीश |
रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी ,सर्वाधिकार सुरक्षित
संवत १८६१ ,.....गते .... (१७ auj १९३९ )
पौड़ी जिल्ला , पट्टी इडवाळस्यूं
छटी ग्या कुयेडी पुरणी ,चमक चौछ्व्डी घाम
आ हा पैदा व्हाई सिरालीऽम , गढ़ कवि एक महान
भै बंधो ,गढ़ कवि एक महान
'खिल्दा फूल हंसदा पात' ,रुमझुम बरखणी बरखा आज
खित खित हैसणु डांडीयूँ मा द्याखा , दंतुडी दिखान्द चौमास
बांजी पुंगडी चलदा व्हेंगी , इन्न आई गढ़ स्यारौं मा मौल्यार
भै बंधो ,इन्न आई गढ़ स्यारौं मा मौल्यार
डालियुं मा चखुली बसणी छाई , बस्णु छाई कक्खी कफ्फु हिलांस
मोरणी छाई मातृ भाषा , करण कैल अब म्यारू थवांस
कै से करण आज आश मिल ,छीं दिख्याँ दिन अर तपयाँ घाम
भै बंधो ,छीं दिख्याँ दिन अर तपयाँ घाम
'दीबा व्हेय ग्या दैणी फि'र ,व्हेय ग्या दैणु 'जय बद्री नरैण'
प्रकट व्हेग्या लाल हिमवंत कु , प्रकट व्हेय ग्याई कवि ललित महान
भै बंधो , प्रकट व्हेय ग्याई कवि ललित महान
कलम प्लायी इन्ह उन्ल तब ,सर सर चलैं व्यंग बाण
लस्स लुकाई मुखडी अंध्यरऽल , पैटाई जब 'गढ़ गंगा ज्ञान'
प्रकट कै दयाई भड गंगू रमोला ,प्रकट कै दयाई हरी हिंदवाण ,
भै बंधो , प्रकट कै दयाई 'हरी हिंदवाण' ,
टूट्ट ग्यीं मायाऽक जाल पुरणा सब , तिडकीं पुरणा बिम्ब , प्रतीक
छौंक लगाई ढौऽल पुरैऽक कविता कु तब , छोळिक किस्म किस्मऽक रंग
मच ग्याई जंग असलियात की तब ,जब ध्वळी मर्चण्या व्यंग ,
भै बंधो ,जब ध्वळी मर्चण्या व्यंग
भूख मिटै बरसूँ की मेरी ललित , तिल्ल मिटै सखियुंऽक तीस
खुश व्हेयऽक सरस्वती तब्ब , देंदी यू शुभ आशीष
मातृ भाषा की सेवा मा हे गढ़ गौरव ! अजर अमर करयाँ त्वै थैं जगदीश
मातृ भाषा की सेवा मा हे गढ़ गौरव ! अजर अमर करयाँ त्वै थैं जगदीश
मातृ भाषा की सेवा मा हे गढ़ गौरव ! अजर अमर करयाँ त्वै थैं जगदीश |
रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी ,सर्वाधिकार सुरक्षित
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आपका बहुत बहुत धन्यवाद
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