(Critical and Chronological History of Garhwali Poetry, part - 165)
( गढ़वाली कविता क्रमगत इतिहास भाग - 165 )
By: Bhishma Kukreti
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Dharmendra Negi is one of the promising poets of Garhwali language. Dharmendra Negi was born in Churani village of Rikhanikhal block of Pauri Garhwal Uttarakhand in 1975. Dharmendra preferred joining education profession.
Dharmendra Negi published about 20 poems in various publications. Dharmendra posted more than 80 new poems in online media at various sites. Readers, children and critics appreciated his children story with sketches ‘Sikasauri’.
Dharmendra created poetries, Ghazels and free verses on various subjects as society, education, and political value deterioration, falseness in modern society, environment protection, routine Garhwal life and pain of migration. His ways of illustrating Garhwal geographical images is different and it is because of his uses of metaphoric methods.
Dharmendra Negi created poems of inspirational nature, serious, satirical and humorous.
Senior poet and Editor Madan Duklan stated that Dharmendra Negi is capable of tackling big idea and successfully conveying his views to the readers.
A renowned poetry critic Dr. Manju Dhoundiyal appreciated for his words choices for creating free poems, Ghazels or lyrics and appreciated his creating desired images by his proverbs, folk sayings and conventional as well as newer symbols.
Famous Garhwali Humorist Harish Juyal says that Dharmendra creates perfect emotions and intellectual emotional reactions and that could be felt among audience when he reads his poems before audience.
His uses of proverbs in his verses is appreciated by many critics as –
१ पकयां चखलों तैं हवा मा उड़ै दिन्दन उडाण वळा
२ ढंडि क माछौ तैं डाळों मा चढै़ दिन्दन चढ़ाण वळा
३ हैंसै- हैंसै की भि कतगै दौं त रुवै दिन्दन रुवाड़ वळा
४. रौतौं बळ्द मोरि दिदौ अपणि खुशिन
५ कर्यां- धर्यां मा मोळ -माटु छोळि दिन्दन छ्वळण वळा
६ मारि- बांधिऽ मुसळमान भि बणै दिन्दन बणाण वळा
७ पड़म- पड़म कुबथा बोली भि जुते दिन्दन जुत्याण वळा
In private conversation, famous Garhwali critic Virendra Panwar sees high promises from Dharmendra Negi in Garhwali poetry world.
हम सैणs का गोर भ्याल हकै सकदां
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हम सैणs का गोर भ्याल हकै सकदां
हम गौं कि द्वी सार्यूं गोर चरै सकदां
हम कैका भि पुंगड़ा को वाडु सरै सकदां
हम खास भयों मा भी लड़ै करै सकदां
हम गौं कि द्वी सार्यूं गोर चरै सकदां
हम कैका भि पुंगड़ा को वाडु सरै सकदां
हम खास भयों मा भी लड़ै करै सकदां
किलैकि हम आजाद छां, किलैकि हम निरदुन्द छां
हम गौं का नवळौं मा मैणु छोलि सकदां
हम कैका भि डाळिकि नारंगी चोळि सकदां
हम कैका भी खल्यॉण मा दैं फोळि सकदां
हम कैखुणै,कखिम भी कुछ भी बोलि सकदां
हम कैका भि डाळिकि नारंगी चोळि सकदां
हम कैका भी खल्यॉण मा दैं फोळि सकदां
हम कैखुणै,कखिम भी कुछ भी बोलि सकदां
किलैकि हम आजाद छां, किलैकि हम निरदुन्द छां
हम कैकि भि कूड़ि फरै बुजिना खे सकदां
हम अपणि बांठि खैकि हैंककि हते सकदां
हम कैकि भि कूड़ि अर छनुड़ि घंटे सकदां
हम कैका भि कान्धाउन्द झुंटे सकदां
हम अपणि बांठि खैकि हैंककि हते सकदां
हम कैकि भि कूड़ि अर छनुड़ि घंटे सकदां
हम कैका भि कान्धाउन्द झुंटे सकदां
किलैकि हम आजाद छां, किलैकि हम निरदुन्द छां
हम कल्यो खैकि कंडा भ्यालुन्द लमडै सकदां
हम बैलि भैंस्यों तैं लैन्दि बतैकि बेचि सकदां
हम कैकs भि मुंड कि लटुळ्यों तैं झमडै सकदां
हम खुटि अलगैकि बडु़ आदिम बणि सकदां
हम बैलि भैंस्यों तैं लैन्दि बतैकि बेचि सकदां
हम कैकs भि मुंड कि लटुळ्यों तैं झमडै सकदां
हम खुटि अलगैकि बडु़ आदिम बणि सकदां
किलैकि हम आजाद छां किलैकि हम निरदुन्द छां
हम कैका बण्यॉ काम मा भांचि मारि सकदां
हम उकाल काटिकि सरपट भाजि भि सकदां
हम कैका भी तैकs मा अपणि भूड़ि तैलि सकदां हम कैखुणैं भी कखिम भी बौंळि बिटै सकदां
हम उकाल काटिकि सरपट भाजि भि सकदां
हम कैका भी तैकs मा अपणि भूड़ि तैलि सकदां हम कैखुणैं भी कखिम भी बौंळि बिटै सकदां
किलैकि हम आजाद छां किलैकि हम निरदुन्द छां
हम जळड़ा घाम लगाण मा माहिर छां
हम हैंकका नौकि संगरांद बजाणका उस्ताद छां
हम हैंककि कुटीं घाण मा बणदा झट पर्वाण छां
हम भैरा खुणि बिर् वळि अर भितरा खुणि ढिराक छां
हम हैंकका नौकि संगरांद बजाणका उस्ताद छां
हम हैंककि कुटीं घाण मा बणदा झट पर्वाण छां
हम भैरा खुणि बिर् वळि अर भितरा खुणि ढिराक छां
किलैकि हम आजाद छां किलैकि हम निरदुन्द छां
आप सब्यूं तैं आजादी कि भौत-भौत शुभकामना
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" छोड़ि दे "
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रूणु गंगजाणु छोड़़ि दे
आँखा मळकाणु छोड़ि दे
आँखा मळकाणु छोड़ि दे
उंठड़ि उफार ब्वलणु सीख
गिच्चु पळकाणु छोड़ि दे
गिच्चु पळकाणु छोड़ि दे
स्यूं सांसु कैर हिकमत दिखौ
दगड़्या घबराणु छोड़ि दे
दगड़्या घबराणु छोड़ि दे
घ्वीड़-काखड़ सि मार उदाक
कौंपणु थथराणु छोड़ि दे
कौंपणु थथराणु छोड़ि दे
सर-सर कै हिट,अबेर नि कैर
घुमका लगाणु छोड़ि दे
घुमका लगाणु छोड़ि दे
बांठु अपणु हत्यो रै 'खुदेड़'मंगणु , टपराणु छोड़ि दे
Copyright@ Bhishma Kukreti, 2017
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With Kind Regards
Dhangu, Gangasalan Ka Kukreti
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